– विकास सक्सेना
चंद हफ्ते पहले तक उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में दमदारी से भाजपा का मुकाबला करते दिख रहे सपा मुखिया अखिलेश यादव के असमंजस से उनके समर्थक हैरान हैं। पहले चरण के नामांकन की प्रक्रिया के कई दिन बीतने के बाद भी बगावत के डर से उन्होंने अपने उम्मीदवारों की सूची तक जारी नहीं की थी। जिन उम्मीदवारों को सीधे टिकट दिया गया उनको चेतावनी दी गई कि वे इसका प्रचार न करें अन्यथा उनके टिकट काट दिए जाएंगे। नई सपा को हिन्दू विरोधी छवि से उबारने के लिए मुस्लिमों से संबंधित मामलों पर मौन साधने वाले अखिलेश यादव अब टिकट वितरण में भी जिस तरह लुकाछुपी का खेल खेल रहे हैं, उससे सपा समर्थक हताश हैं। भाजपा के मुखर वक्ताओं और आक्रामक प्रचार के सामने अखिलेश की छवि असमंजस से घिरे एक भयभीत और निर्णय लेने में असमर्थ नेता की बन रही है।
योगी सरकार की कार्य प्रणाली से नाराज वर्ग के लोगों ने काफी समय से सपा के पक्ष में वातावरण बनाने में पूरी ताकत झोंक रखी थी। भाजपा विरोध की राजनीति करने वाले भी बीते साढ़े चार साल से लगातार अलग अलग मुद्दों को उठाकर सरकार के खिलाफ जनमत तैयार करने में जुटे थे। कृषि कानूनों के विरोध में दिल्ली बार्डर पर चले किसान आंदोलन, कोरोना महामारी के कारण बढ़ी बेरोजगारी, पेट्रोल- डीजल की बेतहाशा बढ़ी कीमतों, गुपचुप तरीके से घरेलू रसोई गैस सिलेण्डर की सब्सिडी लगभग खत्म करके उसकी कीमत एक हजार रुपये तक बढ़ाने से समाज का एक तबका असहज महसूस कर रहा था। उच्च अधिकारियों की मनमानी और उनके अव्यावहारिक आदेशों से कर्मचारियों में आक्रोश लगातार बढ़ रहा था। पुरानी पेंशन दोबारा लागू करने, कैशलेस उपचार, पदोन्नति जैसी तमाम मांगों को लेकर आंदोलन कर रहे कर्मचारियों के प्रति सरकार के उदासीन रवैये से उनमें सरकार के प्रति नाराजगी है। इसके अलावा भव्य राममंदिर निर्माण,काशी विश्वनाथ कॉरीडोर, नागरिकता संशोधन कानून, कश्मीर में धारा 370 निष्प्रभावी करने और तीन तलाक के खिलाफ कानून बनाने जैसे कदमों से मुस्लिम समुदाय का एक बड़ा वर्ग सरकार की नीतियों का मुखर विरोध कर रहा है। इन हालत में सपा नेता और कार्यकर्ता उत्साहित थे।
विधानसभा चुनावों की घोषणा से पहले अखिलेश यादव ने प्रदेश के कई जिलों में रथयात्रा निकालकर सपा के पक्ष में माहौल बनाना शुरू कर दिया था। सत्ता से भाजपा को किसी भी कीमत पर बेदखल करने की प्रबल इच्छा रखने वालों को उनमें बड़ी उम्मीद दिखाई दे रही थी। चुनावी समर में भाजपा को पछाड़ने के लिए हर कदम सोच समझ कर आगे बढ़ाया जा रहा था। पार्टी की मुस्लिमपरस्त और हिन्दू विरोधी छवि को साफ करने के लिए सपा के मंचों की प्रथम पंक्ति से मुस्लिम नेताओं को दूर कर दिया गया। धार्मिक टोपी पहने मुस्लिम उलेमा और धर्मगुरुओं की सपा के सर्वजनिक कार्यक्रमों में उपस्थिति नगण्य हो गई। मुस्लिम समुदाय के लोगों को साफ तौर पर समझा दिया गया कि अगर योगी और मोदी को सत्ता से हटाना है, तो सपा को हिन्दुओं का विश्वास जीतना होगा। हालांकि सपा की इस गोलमोल नीति से और अपनी राजनैतिक उपेक्षा से मुस्लिम नेतृत्व में बेचैनी थी लेकिन फिर भी वे खुलकर इस नीति का विरोध करने से बच रहे थे।
प्रदेश में योगी सरकार बनने के बाद सत्ता के संसाधन का निजी हित में उपयोग का मंसूबा पूरा न होने से खफा इन लोगों का एक धड़ा मौका मिलते ही भाजपा और सरकार के खिलाफ मुखर हो गया। सपा के पक्ष में बन रहे माहौल का लाभ उठाने के लिए वे अखिलेश यादव के खेमे में खड़े हो गए। इसके अलावा विधानसभा चुनाव लड़ने के इच्छुक जिन नेताओं को भाजपा से टिकट मिलने की उम्मीद नहीं थी, उन्होंने भी सपा का झण्डा थाम लिया। सपा मुखिया अखिलेश यादव ने किसी भी नेता को निराश नहीं किया। इस तरह प्रदेश की लगभग सभी विधानसभा सीटों पर बड़ी संख्या में टिकट के दावेदार सपा में भर्ती हो गए।
सपा में भर्ती होने से पहले अखिलेश यादव से मुलाकात के समय अधिकांश नेताओं ने पार्टी के प्रति निष्ठा, भाजपा को हराने का निस्वार्थ संकल्प और नेतृत्च के प्रति समर्पण का जो वाकजाल बुना वह उसके पीछे छिपे राजनीतिक आडम्बर को समझने में नाकाम रहे। उन्हें लगा कि जो लोग सपा की ओर आकर्षित हो रहे हैं, वे भाजपा के शासन से पीड़ित हैं।अखिलेश यादव यह नहीं समझ सके कि जो लोग सपा में शामिल हो रहे हैं, उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा पूरी न होने के कारण ही वे भाजपा से नाराज हैं। इनमें से तमाम लोग ब्लॉक प्रमुख से लेकर, सहकारी संस्थाओं, गन्ना समितियों, जिला पंचायत अध्यक्ष समेत सभी पदों को अपने परिवार में समेट लेने की चाहत रखते हैं। खुद विधानसभा पहुंचकर सत्ता सुख भोगने की आस में सपा के पाले में खड़े होने वाले
नेता किसी दूसरे की पालकी उठाने को तैयार हो जाएंगे, ये कैसे संभव है। यही कारण है कि चुनाव की घोषणा होने के बाद जब टिकट वितरण की बारी आई तो सपा में बगावत का डर सताने लगा। सपा से टिकट न मिलने पर इन बागियों के दूसरे दलों में जाने के भय से अखिलेश यादव नामांकन की अंतिम तिथि से एक दिन पहले तक प्रथम चरण की 58सीटों के लिए अपने उम्मीदवारों के नामों को अन्तिम रूप नहीं दे सके थे। दूसरे चरण की 55सीटों के लिए नामांकन प्रक्रिया शुरू हो चुकी, लेकिन अभी तक टिकट मिलने की आस में उम्मीदवार लखनऊ में डेरा डाले हुए हैं।
अखिलेश यादव को अपने पिता और समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव से सीखना चाहिए कि लोकतंत्र में शत प्रतिशत वोटों को हासिल करने की होड़ में कभी नहीं पड़ना चाहिए। अपने समर्थकों का खुल कर साथ देने के लिए हर समय तैयार रहना चाहिए। उन्होंने कभी भी मुस्लिम और यादव वोटों की कीमत पर अन्य समुदायों के वोटों को लुभाने की कोशिश नहीं की थी। लोकतंत्र में अपने समर्थकों का विश्वास जीतने के लिए उनके हक की ल़ड़ाई खुलकर सड़कों पर लड़नी पड़ती है। सच यह है कि हिन्दू मतदाताओं का विश्वास जीतने के लिए मुसलमानों से दूरी दिखाने की कोशिश लोगों को दिखाई देने लगी है। टिकट वितरण में लुकाछुपी के खेल से अखिलेश यादव चुनावी रण के लिए तैयार खड़ी कार्यकर्ताओं की फौज के भयाक्रांत और निस्तेज सेनापति दिखाई दे रहे हैं। इस तरह से तो वे अपने रणबांकुरों में उत्साह का संचार नहीं कर सकेंगे।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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