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    संघ प्रमुख के सन्देश में राष्ट्रवाद के सूत्र

  • July 09, 2021

    – डॉ. दिलीप अग्निहोत्री

    संघ प्रमुख के किसी बयान पर ओवैसी और दिग्विजय सिंह प्रतिकूल टिप्पणी ना करें, ऐसा हो नहीं सकता। इन्होंने कुछ दिन पहले ही अनुच्छेद 370 को बहाल करने संबधी बयान दिया था। इससे पाकिस्तान व उसके हमदर्द अलगाववादी खुश हुए थे। मतलब इस अनुच्छेद की समाप्ति राष्ट्रीय हित में थी। इसी आधार पर मोहन भागवत के सार्थक सन्देश का आकलन किया जा सकता है। उनके बयान में राष्ट्रीय समरसता का व्यापक सन्देश है। इस पर प्रतिक्रिया देने से पहले पूरे प्रसंग को समझना आवश्यक है।

    संघ प्रमुख मोहन भागवत राष्ट्रीय मुस्लिम मंच द्वारा आयोजित कार्यक्रम में विचार व्यक्त कर रहे थे। यह संगठन राष्ट्रीय भावना के अनुरूप बेहतरीन कार्य कर रहा है। बड़ी संख्या में मुसलमान इस संगठन से जुड़ रहे हैं। मोहन भागवत ने पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के सलाहकार रहे डॉ. ख्वाजा इफ्तिकार अहमद की पुस्तक का विमोचन किया। इस इस अवसर पर उन्होंने कहा कि इस पुस्तक में सत्य है। दिल से आह्वान किया गया है कि हम सब एक हैं और एक होना है। हिन्दू मुसलमान एकता जो शब्द है ये भ्रामक है। हिन्दू मुसलमान एक हैं। हम आकार निराकार दोनों की श्रद्धा का आदर करते हैं। हमारी मातृभूमि ऐसी है कि हम इतना झगड़कर भी इसी पर रहते हैं। ये मातृभूमि हमें पालती आ रही है। पहले बाहर से जो लोग आए उन्हें भी इस भूमि ने अपनाया। अथर्ववेद में इसकी चर्चा है। कहा गया कि अनेक भाषाओं को मानने वाले यहां रहते हैं। वस्तुतः इस पुस्तक के अनेक प्रसंग भारत की राष्ट्रीय भावना को रेखांकित करने वाले है। इसमें खिलाफत आंदोलन का उल्लेख किया गया।

    मोहन भागवत ने इससे एक कदम आगे बढ़ते हुए संघ की स्थापना संबन्धी विषय उठाया। कहा कि संघ संस्थापक डॉ. हेडगेवार ने कहा कि हिन्दू अपनी दुर्गति के लिए अंग्रेजों और मुस्लिमों को जिम्मेदार ठहराते हैं। लेकिन अपने देश में ऐसी हालात के लिए खुद जिम्मेदार हैं। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की स्थापना राष्ट्र भाव करने के लिए हुई थी। संघ संस्थापक के डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार के निवास स्थान में समर्थ गुरु रामदास व शिवजी के चित्र लगे थे। वह जो छड़ी लेकर चलते थे, उसमें शेर बना था। उनका कहना था कि शेर जंगल का राजा होता है। उसे यह बात कहनी नहीं पड़ती। इन प्रतीकों से संघ के संस्थापक के विचार का अनुमान लगाया जा सकता है। वह भारत को पुनः विश्व गुरु के रूप में प्रतिष्ठित करना चाहते थे। यह सामान्य संगठन है, जो खुले मैदान में चलता है। विश्व का सबसे बड़ा ही नहीं सर्वाधिक खुला संगठन है।

    संघ की स्थापना से पहले डॉ. हेडगेवार ने महात्मा गांधी से वार्ता की थी। कहा कि समाज को मजबूत बनाना चाहते हैं, राजनीतिक पार्टी नहीं बनाना चाहते। महात्मा गांधी दो बार संघ के शिविर में आये। संघ को गांधीजी से कभी परहेज नहीं रहा। एकात्मक स्त्रोत में गांधीजी का स्मरण किया जाता है। द्वितीय सरसंघ चालक गुरुजी ने कहा था कि संघ परिवार केंद्रित कार्य करता है। बड़ों की सेवा करना परिवार का काम है। विदेशों में यह कार्य भी सरकार करने लगी। संघ का प्रयास है कि ऐसी जिम्मेदारी का परिवार स्तर पर ही निर्वाह करे।

    यह विचार आदर्श समाज की स्थापना करता है। ऐसा आदर्श चिंतन भारतीय संस्कृति में ही संभव है। यह सही हो तो परिवार सही रहेगा, इससे समाज भी मजबूत होगा। संघ का यही प्रयास है। संघ का चाहता है कि स्नेह सद्भाव का रिश्ता होना चाहिए। कुटुंब प्रबोधन कार्यक्रम चलाया जा रहा है। इसका उद्देश्य समरसता कायम करना है। एकाकी परिवार के बाद भी कोई अपने को अकेला ना समझे। सब एक दूसरे का सहयोग करें, तो सामाजिक जिम्मेदारी का भाव जागृत होता है।

    संघ संवाद के माध्यम से सद्भाव का वातावरण बनाने में लगा है। भारत परम्परा से हिन्दू राष्ट्र है। यह शाश्वत सत्य है। संघ समाज से जुड़ा संगठन है। समाज से अलग नहीं है। समाज के साथ ही चलना है। संघ यही कर रहा है। इतिहास वह नहीं है जो अंग्रेजों ने लिखा। बहुत से गौरवशाली काल इतिहास में शामिल ही नहीं किये गए। इससे गलतफहमी हुई। हिन्दू शब्द को साम्प्रदायिक मान लिया गया। यहाँ कभी सभ्यताओं का संघर्ष नहीं रहा। उत्पीड़ित लोगों को शरण देना भारतीय संस्कृति है। हिंदुत्व शब्द जोड़ने वाला है। जिसमें उपासना पद्धति पर भेदभाव नहीं किया गया। विश्व में ऐसा अन्य कोई देश नहीं है। हिन्दू राष्ट्र में सभी के पूर्वजों को एक मानने का भाव रहा है। यह तो जोड़ने वाला विचार है। संघ स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हुआ था। उस समय सभी संगठन कांग्रेस के माध्यम कार्य कर रहे थे। संघ के स्वयंसेवक यह कर रहे थे। संघ के संस्थापक स्वयं स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे।

    भारत केवल भूगोल नहीं है। यह सांस्कृतिक भूमि है। सीमा की भी रक्षा करनी है। संस्कृति की रक्षा के लिए भी समाज में लोगों को आगे आना पड़ता है। मानव सभ्यता का विकास सबसे पहले भारत में हुआ। यहाँ के वन जंगल तक वैज्ञानिक अनुसंधान के केंद्र थे। चक्रवर्ती सम्राटों की यहाँ सुदीर्घ श्रृंखला थी। भारत ने अपनी संस्कृति का विस्तार तलवार की नोक पर कभी नहीं किया।

    मास लीन्चिंग भारतीय संस्कृति के प्रतिकूल है। गाय के प्रति हमारा सम्मान है। गौ हत्या पाप व अपराध है। कानून के अनुसार ऐसा करने वालों को सजा मिलनी चाहिए। भारत ने वसुधा को कुटुंब माना। उदार चरित्र की अवधारणा दी। डॉ. हेडगेवार चिंतन करते थे कि इतना महान देश विदेशी दासता में कैसे जकड़ गया। इसके पीछे उन्हें दो कारण नजर आए। एक यह कि भारत के लोग अपनी सर्वश्रेठ विरासत पर स्वाभिमान करना भूल चुके थे। इसका प्रभाव उनके आचरण पर पड़ा। दूसरा कारण यह था कि हमारे भीतर भेदभाव आ गया। इससे हमारी संगठित शक्ति कमजोर हुई। इसके विदेशी शक्तियों ने लाभ उठाया। डॉ. हेडगेवार भारत को पुनः परम वैभव के पद पर आसीन देखना चाहते थे। वह देश को अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त करना चाहते थे। इसीलिये कांग्रेस द्वारा चलाये जाने वाले आंदोलनों में सक्रिय भाग लेते थे।

    कांग्रेस के नागपुर सम्मेलन की पूरी व्यवस्था उन्होंने की थी। लेकिन कांग्रेस द्वारा शुरू किए गए खिलाफत आंदोलन से वह असहमत थे। इसका नाम भी भ्रामक था। ऐसा अहसास कराया गया कि यह अंग्रेजों के खिलाफ है लेकिन यह तुर्की के खलीफा को अपदस्त करने के विरोध में था। डॉ. हेडगेवार ने कांग्रेस के बड़े नेताओं से अपना विरोध दर्ज कराया। उनका कहना था कि तुर्की के शासक का मसला उनका है। भारत स्वयं ही गुलाम है। उसे किसी बाहरी मुल्क के मामले में पड़ने की जरूरत नहीं है। गुलामों की बात को विश्व सम्मान नहीं देता। कांग्रेस केवल तुष्टिकरण के लिए खिलाफत आंदोलन चला रही है। डॉ. हेडगेवार की बात कांग्रेस के शीर्ष नेताओं ने नहीं मानी। इसलिए समाज को एकजुट करने, राष्ट्रीय भावना की प्रेरणा देने के उद्देश्य से उन्होंने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की स्थापना की थी।

    संघ के स्वयंसेवक राष्ट्रीय आंदोलन में भी सहयोग करते थे। आजादी के बाद भी राष्ट्रीय व प्राकृतिक आपदा के समय स्वयंसेवक अपनी प्रेरणा से सेवा कार्य में जुटते रहे है। चीन व पाकिस्तान के आक्रमण के समय स्वयंसेवक अपने स्तर से सहयोग करते थे। इसलिए गणतंत्र दिवस परेड में स्वयंसेवकों को पथ संचलन हेतु राजपथ पर आमंत्रित किया गया था। लाल बहादुर शास्त्री ने द्वितीय सर संघचालक से पूछा था कि आप स्वयंसेवकों को राष्ट्र सेवा की प्रेरणा कैसे देते थे। गुरु गोलवलकर ने कहा था को हम लोग शाखा में खेलते हैं। यहीं संगठन की प्रेरणा मिलती है, संस्कार और राष्ट्रभाव जाग्रत होता है। इसके लिए शाखाओं की पद्धति शुरू की गई।

    वस्तुतः मोहन भागवत ने कोई नई बात नहीं कही है। संघ प्रारंभ से ही इसी सांस्कृतिक अवधारणा पर विश्वास करता रहा है। इसी विचार को मोहन भागवत ने अभिव्यक्त किया। कहा कि सभी भारतीयों का डीएनए एक है। चाहे वे किसी भी धर्म के हों। लिंचिंग हिंदुत्व के विरुद्ध है। हिंदू मुस्लिम एकता भ्रामक है क्योंकि वे अलग नहीं। पूजा पद्धति को लेकर लोगों के बीच अंतर नहीं किया जा सकता। यह सिद्ध हो चुका है कि हम पिछले चार हजार सालों से एक ही पूर्वजों के वंशज हैं। देश में एकता के बिना विकास संभव नहीं है। एकता का आधार राष्ट्रवाद होना चाहिए। स्पष्ट है कि मोहन भागवत का बयान भारतीय संस्कृति के अनुरूप है।

    (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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