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    सूरमा के बतोले

  • June 21, 2022

    बीती शाम मेरे लिए कई मायनों में यादगार रही। यूं लगा जैसे मेरे गरीबखाने पे लघु भारत ही तो सिमट आया है। घर के हॉल मैं बैठ के गुफ्तगू कर रहे वो बच्चे अलग अलग राज्यों से हैं। ज़ाहिर है उनकी मादरी ज़बान, बातचीत का लहजा और खानपान भी अलहदा है। बहरहाल, उन सबों में गर कोई आपसी समानता है तो वो है बेलौस मुहब्बत, एक दूसरे की फिक्र और जज्बातों की कद्र का भाव। रात के खाने की ये महफिल हमारे यहां सजाई थी हमारे फरजंद साहिल ने। इन सब दोस्तों ने माखन लाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवम जनसंचार विश्व विद्यालय से ई कॉमर्स से एमबीए से लास्ट सेमेस्टर का इम्तहान तीन रोज पहले ही दिया है। अब ये बच्चे अपने घरों को लौट रहे हैं। इनमे से कुछ पुणे या बेंगलुरु में अपनी नई नोकरियां ज्वाईन करने के लिए सीधे निकल जायेंगे। मैने लघु भारत का लफ्ज़ इस लिए इस्तेमाल किया की इन बच्चों में सौरभ केरल के कोवलम से है, देवज्योति और दिशारी कोलकाता और दुर्गापुर से हैं। गायत्री ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर के पास किसी कस्बे से हैं। अभय प्रताप यूपी के तारीखी शहर अयोध्या से हैं, जबकी अदिति का ताल्लुक लखनऊ से है। वहीं तान्या विनोद बेंगलुरु की, गौरव पाल दिल्ली और आर्या भोपाल के हैं। इनके लिए हमने इनकी पसंद का सामिष और निरामिष भोजन परोसा। बच्चों ने हम दोनो के चरण छुए। कन्याओं ने मेरी शरीके हयात से खाने की रेसिपी पूछी। कुछ के लिए इस अंदाज के खाने का ये पहला मौका था। इसी हफ्ते ये सभी अपने मुस्तकबिल की नई उड़ान शुरू कर रहे हैं। किसी ने एमेजॉन को ज्वाईन किया है तो कोई किसी मल्टी नेशनल में जा रहा है। ज्यादर ने डिजिटल मार्केटिग को अपना करियर बनाया है। कंटेंट राइटिंग और सोशल मीडिया मार्केटिंग से ये बच्चे रिमोटली काम करके अच्छा खासा कमा रहे हैं। हम जैसे नॉन कंप्यूटर फ्रेंडली लोगों के लिए इन बच्चों की वेब थ्री वर्क लाइफ स्टाइल को समझना जरा मुश्किल है। मसलन ये लोग अपने सामूहिक बिल को कांट्रीब्यूट करने के लिए गूगल स्प्लिट का इस्तेमाल करते हैं। इन नौजवानों की आपसी बातचीत में मोदी ,अग्निपथ या बेरोजगारी जैसे मुद्दे शामिल नहीं हैं। इन्हें सरकारी नौकरियों की भी कोई तवक्को नहीं । इनका टारगेट डिजिटल मार्केटिंग के हाई लेवल तक पहुंचना है। बाकी…खानपान के बाद जब दावत अपनी तकमील पे पहुंची और एक दूसरे को अलविदा कहने की बारी आई तो बच्चों की आंखें भीग गईं। सब की आंखों से जैसे जज्बातों की गंगा बहने लगी। आगे न जाने किससे कब, कहां मुलाकात होगी, या शायद ये आखरी मुलाकात हो…बच्चे एक दूसरे से गले मिलने लगे। आंसू छुपाने के लिए किसी ने अपने चेहरे को हाथों से ढंक लिया तो कोई दीवार की तरफ मुंह कर खड़ा हो गया। विदाई के ये लम्हे सचमुच बहुत भावुक करने वाले थे। हम मियां बीवी अपने जज्बात पे काबू रखने की कोशिश में दूसरे कमरे में चले गए। हमे लगा इस दौर में जब मुल्क में चंद मुठ्ठी भर लोग नफरतों का रायता फैला रहे हैं, वहीं इन बच्चों की बेलौस मुहब्बत उम्मीदों की नई सुबह का इशारा भी कर रही है। जाहिर है इंसानियत का परमानेंट जेस्चर तो यकजहती है, भाईचारा है। कायम रहे ये जज्बा…सूरमा येई दुआ करता है।

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    सात फेरों के लिए सिर्फ आठ मुहूर्त शेष, फिर करना होगा 133 दिन इंतजार

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