मियां मैं शेर हूं शेरों की गुर्राहट नहीं जाती
मैं लहजा नर्म भी कर लूं तो झुंझलाहट नहीं जाती
भोपाल की दूसरी पीढ़ी के सहाफी (पत्रकार) लज्जाशंकर हरदेनिया 3 दिन पेले 88 बरस के हो गए। ऊपर लिखा ये शेर इनके किरदार पे एकदम फिट बैठता हेगा। सरकार किसी की बी रई मियां खां को उसका कोई रद्देअमल नहीं जमा तो उसकी खुल के मुखालिफत करी। ये आज भी सरकार को आईना दिखाने से नहीं चूकते। हरदेनिया साब सहाफत के कमिटमेंट का जीता जागता सरमाया हैं। गोया के अपनी जवानी में पत्रकारिता के जो तीखे तेवर हुआ करते थे वही तेवर आज भी कायम हैं। बाकी उमर की ये जइफी इस पत्रकार के लिए कोई मायने नहीं रखती। उम्र से बावस्ता बीमारियों के बावजूद ये आज भी खुद को एक्टिव बनाए हुए हैं। अपनी सालगिरा के रोज मियां खां ने खूब राग बतोले करे और अपने चाहने वालों से पुराने दौर की पत्रकारिता के किस्से साझा करे। गोया के इनकी जिंदादिली में कोई कमी नई हेगी। मिजाज में वोई कर्रापन और ठसक कमोबेश अब भी मौजूद है। इनका शुमार उन चुनिंदा सहाफियों में होता है। जिन्ने सहाफत को किसी मकसद के लिए जिया। आप इब्तिदाई दौर सेई कम्यूनिजम से मुतास्सिर रहे। लिहाजा कौमी यकजहती, भाईचारा और आपसी मुहब्बत का परचम आज भी बलंद किए हुए हैं। हरदेनिया साब के सामने भोपाल की पत्रकारिता ट्रेडिल प्रेस, हैंड कंपोजिंग से लेके आज कंप्यूटर के दौर तक करवट बदलती रही। जब सूरमा ने पूछा के साब आजकल क्या मशगला चल्लिया हेगा। तो तपाक से बोले: फिरकापरस ताकतों से मेरी लड़ाई आज भी चल रही है। और। ये मरते दम तक चलेगी। अपने पेशे को पूरी ईमानदारी और मकसद के साथ जीने वाले इस सहाफी की आंखों में गिरती पत्रकारिता और गायब हो चुका कमिटमेंट नुमायां हो जाता है। और वो अपने 64 साला सहाफत के फ्लैशबैक में कहीं खो जाते हैं। इस सफर पे रोशनी डालते हुए लज्जाशंकर हरदेनिया कहते हैं की ये 1956 में भोपाल आए। तबके सीएम रविशंकर शुक्ल ने पूना के मशहूर अंग्रेजी अखबार हितवाद को भोपाल बुलवाया। 1958 में इन्ने हितवाद में रिपोर्टर की नोकरी कर ली। शाहजहानाबाद में हितवाद का दफतर था और कोई मणि साब इसके एडिटर थे। बाद के बरसों में इन्ने द करंट, इकोनॉमिक्स टाइम्स, इंडिया प्रेस एजेंसी सहित कई अखबारों में मुलाजमत करी। उस दौर में यशवंत अरगरे, डीवी लेले, श्याम सुंदर ब्योहार, गोवर्धनलाल मेहता, केपी नारायण, प्रेम श्रीवास्तव,तरुण कुमार भादुड़ी, त्रिभुवन यादव, जैसे सीनियर जर्नलिस्टों का इने साथ मिला। हरदेनिया साब ने कई किताबें लिखीं हैं। इनकी आत्मकथा में सहाफत का पूरा संघर्ष है। इसके अलावा गुजरात का सच, धर्मनिरपेक्षता और पत्रकार काफी मकबूल हुईं। और हां हरदेनिया साब ने मौत के बाद अपना जिस्म गांधी मेडिकल कालेज में दान करने की वसीयत करी है। इन्ने कम्युनिस्ट लीडर बादल सरोज और शैलेंद्र कुमार शैली को ये जवाबदारी सौंपी है की उनकी मौत के बाद शव को मेडिकल कालेज को दान कर दिया जाए। साब आप आने वाले कई बरसों तक जिंदा रहे और सहाफत और समाज को अपनी सरपरस्ती और रहबरी से नवाजते रहें सूरमा येई दुआ करता है।
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