जिंदगी ने हमको इतना अकेला बना दिया कि जरूरतों ने हमारी जान को जोखिम में डाल दिया… उनसे वफा की उम्मीद करते हैं, जो आपका भरा पेट देखकर अपनी भूख से विचलित होते रहते हैं… शहर में ऐसे सैकड़ों लोग हैं जो नौकरों के भरोसे जिंदगी चलाते हैं और भरोसा टूटने पर उन पर इल्जाम लगाते हैं… लेकिन अपनी जिंदगी को ही पहचान नहीं पाते हैं… इंदौर में हाल ही में एक कालोनाइजर चंद दिनों पहले ही घर मेंं आए नौकर के हाथों लुट गया… गनीमत है कि नौकर ने अपने साथी के कहने पर उसकी जान नहीं ली… अब पुलिस लुटेरे नौकर को तलाश रही है… इस बात का भी इल्जाम लगा रही है कि कालोनाइजर ने नौकर की तस्दीक नहीं कराई, जबकि हकीकत यह है कि पुलिस केवल फार्म भरवाती है… ना उसकी तस्दीक कर पाती है…ना उसका रिकार्ड रख पाती है.. ना उसकी जिंदगी में झांक पाती है… और ना ही उसे रखने या ना रखने की सलाह दे पाती है… वो तो केवल इस बात का शुक्र मनाती है कि लोग ना किरायेदारी की जानकारी देते हैं और ना ही नौकर की तस्दीक कराते है.. और हमारी हालत यह है कि नौकर मिलते ही हम खुशी से झूमने लग जाते हैं… नौकर को परिवार के सदस्य से ज्यादा जरूरी मानते हैं… उसके हर नाज-नखरों को सिर पर उठाते हैं… एक दिन के लिए वो छुट्टी पर चला जाए तो निढाल हो जाते हैं… दूसरे दिन उसकी हिमायत में जुट जाते हैं… क्योंकि हमारे घर में या तो लोग हैं नहीं और हैं तो इतने आलसी हो चुके हैैं कि परिवार की जिम्मेदारी तो दूर अपना खुद का काम अपने हाथों से नहीं कर पाते हैं… उल्टा इस तरह की लापरवाही दिखाते हैं कि घर के सारे राज तक नौकरों को बताने में शान समझने लग जाते हैं… उन्हें अपने जेवर दिखाते हैं.. उनके सामने नकद का लेन-देन और घर में जमा धन आम होने लगता है… आपका खर्च… आपका खान-पान… आपके महंगे कपड़े… आपकी शान सब कुछ उनकी इष्र्या को जगाता है… फिर उनकी भूख कुलबुलाती है… एक रात में सब कुछ हांसिल करने की हसरत उनमें जागती हैं… उनकी निगाह कातिल हो जाती हैं… वो मौका तलाशते हैं और माल तो माल…जान तक लुटने से भी बाज नहीं आते हैं… नौकर की यह चाहत और जरूरत जान की दुश्मन बन जाती है… फिर अखबार की खबरों में खुद को समेटकर लुटा हुआ अमीर फकीर की तरह मासूम बन जाता है… अपनी जिंदगी की हकीकत को समझ नहीं पाता है… जिन बच्चों के लिए वो संसार सजाता है… उन्हीं बच्चों को संस्कार नहीं दे पाता है… अपनी जरूरतों के लिए बच्चे दूर चले जाते हैं… फिर नौकर मालिक बनकर उनकी जिंदगी में शामिल हो जाते हैं… कभी हम सामूहिक परिवारों में रहते थे… हमारे लालच ने हमें अकेला बना दिया… जिंदगी की मौज-मस्ती और आजादी के लिए परिवार को एकांकी बना लिया.. ना संस्कार रहा… ना लिहाज रहा… रही तो केवल आजादी… इसी आजादी की चाहत में बच्चों ने अपना अलग मुकाम बना लिया और आपको नौकरों के हवाले छोड़ दिया… यह करनी है खुद की जो करतब दिखा रही है… कहीं नौकरों के हाथों दौलत तो कहीं जान जा रही है… घर भी इतने बड़े-बड़े हो गए हैं कि इंसानियत छोटी होती जा रही है… पड़ौसी को नहीं पता होता कि पड़ोस में कौन रह रहा है और किस दौर से गुजर रहा है… जिंदगी की जवानी तो जश्न और मस्ती में गुजर जाती है… लेकिन उम्र की शाम अंधेरा बनकर हार जाती है… समय नौकरों को कोसने का नहीं…. हालात को समझने का है… हकीकत से जुडऩे का है… परिवार को संस्कारित बनाओ… सामूहिक परिवार की जरूरतों को जगाओ… नौकरों के भरोसे नहीं अपनों के भरोसे रहने की संस्कृति को अपनाओ… वरना तन्हाई में आंसू बहाओगे… जालिमों के हाथों जान गंवाओगे… जो आप खुद झेल रहे हो वैसी ही जानलेवा विरासत अपने बच्चों को थमाओगे….
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