– आर.के. सिन्हा
पाकिस्तान के पेशावर की एक शिया मस्जिद में बीते शुक्रवार को जुमे की नमाज के दौरान हुए दिल दहलाने वाले आत्मघाती बम विस्फोट में लगभग 60 से अधिक शिया नमाजी मारे गए और 200 से अधिक घायल हो गए। मारे गए लगभग सभी अभागे शिया मुसलमान बताए जाते हैं। अब गौर करें कि हमलावरों ने निशाना बनाया शिया मुसलमानों और उनकी इबादतगाह को। यह भी याद रखा जाए कि एक इस्लामिक मुल्क में ही शिया मुसलमानों का जीना मुश्किल हो गया है। वे हर वक्त डर-भय के साए में रहते हैं। यह हाल उस पाकिस्तान का है, जो मुसलमानों के वतन के रूप में बना था या जबरदस्ती जिन्ना वादियों द्वारा बनवाया गया था।
पेशावर की शिया मस्जिद में हुआ हमला पहली बार नहीं हुआ है। वहां शिया मुसलमानों पर लगातार जुल्मो-सितम होते रहे हैं। शिया पाकिस्तान की आबादी का 10 से 15 फीसदी हैँ। वे देश के विभाजन के समय लगभग 25 फीसदी से भी ज्यादा थे। इन्हें बार-बार हमलों और ईशनिंदा के आरोपों में फंसाया जाता रहा है। पाकिस्तान में लगातार प्रतिबंधित संगठन शियाओं के ख़िलाफ़ खुलेआम प्रदर्शन करते रहते हैं। इस तरह के ज्यादातर प्रदर्शन लाहौर, क्वेटा, पेशावर वगैरह जगहों पर देखने को मिलते हैं।
वहां शिया मुसलमानों के खिलाफ माहौल बनाने वाला विकृत और भड़काऊ साहित्य हर जगह उपलब्ध है। तो क्या इन हालातों में शियाओं पर आगे हमले नहीं होंगे? याद रखें कि शियाओं पर हमले कानून और व्यवस्था का मसला नहीं है। हालांकि पाकिस्तान के हुक्मरान यही मानते या मानने का नाटक करते हैं। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान से लेकर गृह मंत्री शेख राशिद तक यही कह रहे हैं कि शिया मस्जिद पर हमला करने वालों को दंड दिया जाएगा। वे इस तरह के दावे तो पहले भी करते रहे हैं। उनके दावों के बावजूद वहां शियाओं के खिलाफ हमले लगातार बढ़ते जा रहे हैं। वे बताएं कि ये हमले क्यों नहीं थम रहे हैं। अगर पाकिस्तान के मानवाधिकार संगठनों की एक रिपोर्ट को ही माना जाए तो वहां साल 2001 से अबतक हमलों और टारगेट किलिंग में तीन हजार से ज्यादा शिया मार डाले गए हैं।
इधर देखने में आया कि ख़ैबर पख़्तूनख़्वा और बलूचिस्तान प्रांतों में शिया मस्जिदों पर लगातार हमले हो रहे हैं। यह बताना जरूरी है ख़ैबर पख़्तूनख़्वा सूबे में एक दौर में सरहदी गांधी खान अब्दुल गफ्फार खान का खासा प्रभाव था। लेकिन, लगता है कि वक्त गुजरने के साथ वहां सरहदी गांधी और उनके आदर्शों को भुला दिया गया है। यह सच है कि आज पाकिस्तान में शियाओं के अधिकारों को कोई देखने-सुनने वाला नहीं है।
पाकिस्तान में सुन्नी मुसलमानों के अलावा बाकी किसी का रहना मुश्किल होता जा रहा है। वहां के बंद समाज और कठमुल्लों ने अपने देश के महान वैज्ञानिक अब्दुस सलाम तक को नहीं बख्शा। भौतिकी में शानदार काम करने वाले और पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम के आरंभिक चरण में उसे दिशा देने वाले सलाम साहब को पाकिस्तान का नायक होना चाहिए था। लेकिन, उन्हें वहां सिर्फ इसलिए जलील किया गया क्योंकि उनका संबंध अहमदिया समुदाय से था। अब उनका नाम-काम स्कूल की किताबों से भी हटा दिया गया है क्योंकि वे अहमदिया मुसलमान थे। उनकी कब्र को भी तोड़ दिया गया था। पाकिस्तान में अहमदिया मुसलमानों को गैर- इस्लामिक घोषित कर दिया है और उन्हें काफिर माना जाता है।
दरअसल अब्दुस सलाम और उनके जैसे दूसरे लाखों अहमदिया मुसलमानों की जिंदगी सत्तर के दशक में ही बदल गई थी जब पाकिस्तान की संसद ने अहमदिया लोगों को मुसलमान मानने से मना कर दिया था। अहमदिया मानते हैं कि हजरत मिर्जा गुलाम अहमद अल्लाह के पैगम्बर थे। इस्लाम पैगम्बर मोहम्मद को ही अंतिम पैगम्बर मानता है और उनके बाद अपने को पैगम्बर घोषित करने वालों को काफिर मानता है। क्या आप मानेंगे कि पाकिस्तान में अहमदिया लोगों को पासपोर्ट के लिए आवेदन देते हुए एक दस्तखत करना होता है कि अहमदिया संप्रदाय के संस्थापक छली थे और उनके शिष्य मुसलमान नहीं हैं।
महत्वपूर्ण है कि भारत के गुरुदासपुर के कादियां कस्बे में अहमदिया समुदाय की नींव 23 मार्च 1889 को रखी गई थी। अजीब इत्तेफाक है कि अहमदिया संप्रदाय की जिस दिन नींव रखी गई थी उसके 51 साल बाद लाहौर में पाकिस्तान के पक्ष में मुस्लिम लीग प्रस्ताव पारित कर रही थी। उस प्रस्ताव में एक स्वतंत्र इस्लामिक देश की मांग की जा रही थी। यह बात 23-24 मार्च, 1940 की है। मोहम्मद अली जिन्ना ने मुस्लिम लीग के पृथक मुस्लिम राष्ट्र की मांग के हक में रखे प्रस्ताव पारित कर अपने भाषण में कहा था- “हिन्दू-मुसलमान दो अलग मजहब हैं। दो अलग विचार हैं। दोनों की संस्कृति, परंपरा और इतिहास अलग हैं। दोनों के नायक भी अलग हैं। इसलिए दोनों कतई साथ नहीं रह सकते।” लेकिन भारी खून-खराबे के बाद जिस देश को उन्होंने बनाया, वहां पर तो मुसलमानों के ही कुछ वर्गों को काफिर कहा जाने लगा। उनमें शिया और अहमदिया भी थे।
पाकिस्तान में शियाओं के अलावा भी कई संप्रदाय अछूत हैं। वहां अहमदिया तथा शिया मुसलमानों के साथ-साथ हिंदुओं, सिखों और ईसाइयों जैसे धार्मिक अल्पसंख्यकों की स्थिति खराब होती गई। 1947 में पाकिस्तान में हिन्दुओं और सिखों की आबादी एक करोड़ के आसपास थी। इसमें पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) शामिल नहीं था। अब वहां मात्र 12 लाख हिन्दू और 10 हजार सिख रह गए हैं। हिन्दुओं और सिखों की इतनी बड़ी संख्या जो लगभग 88 लाख के करीब बनती है, आख़िरकार गई कहां? क्या हुआ इनका? पाकिस्तान में हिन्दू और सिख दोयम दर्जे के नागरिक हैं। पाकिस्तान के सिंध और पंजाब प्रान्त में हिन्दू लड़कियों के अपहरण और उनके साथ जबरन शादी के मामले बार-बार सामने आते रहे हैं जिसकी वहां कोई सुनवाई नहीं है।
अब बात कर लें जरा ईसाइयों की। उनके ऊपर होने वाले अन्याय की भी लंबी दास्तान है। ईसाइयों को भी गाजर-मूली की तरह काटा जाता रहा है। पाकिस्तान में हिंदुओं के बाद ईसाई दूसरा सबसे बड़ा अल्पसंख्यक समूह है। पाकिस्तान में लगभग 18 करोड़ की आबादी में 1.6 प्रतिशत ईसाई हैं।
इधर बीते कुछेक साल में पाकिस्तान के अन्दर ईसाइयों को निशाना बनाकर कई बड़े हमले किए गए हैं। मार्च 2015 में लाहौर के चर्चों में दो बम धमाके हुए थे, जिनमें 14 लोग मारे गए थे। 2013 में पेशावर के चर्च में हुए धमाके में 80 लोग मारे गए थे। 2009 में पंजाब में एक उग्र भीड़ ने 40 घरों को आग लगा दी थी। इसमें आठ ईसाई मारे गए थे। 2005 में क़ुरान जलाने की अफ़वाह के बाद पाकिस्तान के फ़ैसलाबाद से ईसाइयों को अपना घर छोड़कर भागना पड़ा था। हिंसक भीड़ ने चर्चों और ईसाई स्कूलों को आग लगा दी थी। 1990 के बाद से कई ईसाइयों को क़ुरान का अपमान करने और पैगंबर की निंदा करने के आरोपों में दोषी ठहराया जा चुका है। कभी-कभी बुरा भी लगता है कि हमसे ही धर्म के नाम पर अलग हुआ हमारा पड़ोसी इतना अनपढ़ और वहशी है कि वह अपने ही लोगों को मारता-काटता रहता है।
(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)
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