– डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा
यदि कोरोना प्रकोप छोड़ दिया जाए तो अब इसमें कोई दोराय नहीं कि दुनिया के देशों में जीवनरेखा में उल्लेखनीय सुधार हुआ है। स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार के समग्र प्रयासों का परिणाम है कि अपने समय की जानलेवा बीमारियां टीबी, मलेरिया, टाइफाइड, पोलियो, पीलिया, डायरिया आदि पर काफी हद तक कंट्रोल कर लिया गया हैं। दुनिया के देशों में बाल मृत्युदर लगभग आधी रह गई है तो प्रसव के दौरान मातृ मृत्यु दर भी करीब एक तिहाई रह गई है। संस्थागत प्रसव ने हालातों में तेजी से सुधार किया है। दुनिया के अधिकांश देशों में संक्रामक रोगों का असर भी कम हुआ है तो डेंगू, स्वाइन फ्लू व इसी तरह की कुछ जानलेवा बीमारियां सामने आने लगी है।
पिछले कुछ दशकों से हमारे देश ही नहीं दुनिया के लगभग अधिकांश देशों में स्वास्थ्य सेवाओं में उल्लेखनीय सुधार हुआ है। इसके लिए वैक्सीनेशन अभियान और सरकारों द्वारा अनवरत रूप से चलाए जाने वाले अवेयरनेस और नियंत्रण अभियानों से हालातों में तेजी से सुधार हुआ है। लोगों की जीवन प्रत्याषा में बढ़ोतरी हुई है। कोरोना के अपवाद को अलग कर दिया जाए तो जहां 2000 में औसत आयु 67 साल होती थी वह 2019 तक बढ़कर 73 साल हो गई है। यानी की 19 सालों में छह साल अधिक जीने लगे हैं आमनागरिक। यह अपने आप में बड़ी उपलब्धी है सरकारों और स्वास्थ्य सेवाओं की।
यदि हमारे देश की ही बात करें तो जच्चा-बच्चा सुरक्षा अभियान के तहत महिला के प्रेगनेंट होने के साथ से ही नियमित जांच, दवा और टीकों का अभियान चलने के साथ ही प्रसव के बाद बच्चों की सुरक्षा और भविष्य में बीमारी ना हो इसके लिए नवजात बच्चों को मासिक, त्रैमासिक, छमाही, वार्षिक के साथ ही पाचं सात साल की उम्र होने तक जिस तरह से अलग अलग बीमारियों से सुरक्षा के लिए टीके लगाये जा रहे हैं और सरकारी डिस्पेंसरियों में वार विशेष को टीका लगाने की व्यवस्था होने से लोगों में अवेयरनेस आई है और इसका सकारात्मक परिणाम प्राप्त होने लगा है। टीकाकरण और समय समय पर एनिमिया, दस्त निरोधक, कृमि नाशक दवाएं अभियान चलाकर उपलब्ध कराने से सेहत के क्षेत्र में लगातार सुधार आया है। यह वास्तव में चिकित्सा जगत की बड़ी उपलब्धि मानी जानी चाहिए और इसके लिए सरकारों व स्वास्थ्य सेवा से जुड़े लोगों को श्रेय दिया जाना चाहिए। उन्हीं के प्रयासों से यह संभव हो पाया है।
एक तरफ स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार से जीवन रेखा बढ़ी है तो तस्वीर का धुधला पहलू यह भी सामने आना लगा है कि जो चीजें हमें प्रकृति से आसानी से मिल जाती है जिन तक सहज पहुंच है उन्हीं की डेफिसिएंसी ज्यादा होने लगी है। यह सब हमारे रहन-सहन, खान-पान और दौड़ती भागती जिंदगी का परिणाम है। आज लोगों में विटामिन डी या सी की कमी आम होती जा रही है। जबकि हम जानते हैं कि चंद मिनटों यानी कि पांच सात मिनट प्रतिदिन धूप सेवन ये विटामिन डी की डेफिसिएंसी को दूर किया जा सकता है पर हालात यह हो गए कि हम केमिकल से तैयार दवा लेने को तैयार है पर पांच मिनट धूप सेवन के लिए हमारे पास समय की कमी है।
हांलाकि मेट्रो सिटीज में गगनचुंबी अट्टालिकाओं के कारण सूर्य भगवान से साक्षात्कार करना लगभग मुश्किल भरा हो जाता है। इसी तरह से काम धंधे की भागदौड़ में धूप सेवन जैसी प्रकृति से सीधे साक्षात्कार का अवसर लाभ नहीं ले पाते हैं। और तो और रंग काला हो जाएगा इसी के चलते धूप से परहेज किया जाने लगा है। इसी तरह से बच्चों का मिट्टी में खेलने तो अब सपना रह गया है। परंपरागत खेल जो शारीरिक व मानसिक व्याधियों से बचाने में सहायक होते थे आज कहीं नेपथ्य में चले गए हैं। आज पैसा खर्च कर जिम में जाकर पसीना बहाने को तैयार है पर प्राकृतिक रूप से मिलने वाले उपहार धूप, हवा पानी से दूर होते जा रहे हैं। एक कारण बढ़ता प्रदूषण भी है। इस सबसे अधिक चिंतनीय यह होता जा रहा है कि आज की पीढ़ी तेजी से डिप्रेशन की शिकार होती जा रही है। प्रतिस्पर्धा का यह दौर डिप्रेशन के रूप में सामने आ रहा है और सेहत के मोर्चें पर इसके दुष्परिणाम तेजी से सामने आने लगे है।
खैर जिस तरह से कोरोना प्रकोप के बाद लोगों में और अधिक अवेयरनेस आई है और जिस तरह से स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार और विस्तार हुआ है इसके सकारात्मक परिणाम सामने आने लगे हैं। सतत विकास लक्ष्य संबंधी हालिया रिपोर्ट तो यही तस्वीर सामने रख रही है। इसे सुखद भी माना जाना चाहिए कि संक्रामक रोगों पर नियंत्रण पाया जा रहा है तो लोगों में स्वास्थ्य के प्रति अवेयरनेस भी आई है।
(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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