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सामाजिक-पारिवारिक मूल्यों के रखवाले हैं श्रीराम

January 14, 2024

– डॉ. राकेश राणा

भगवान श्रीराम का अतीत इतना व्यापक और विस्तारित है कि उस पर समझ और संज्ञान की सीमाएं हैं। उन्हें चिह्नित करना बहुत दूर की कौड़ी है। भारतीय समाज में श्रीराम उस वट वृक्ष की तरह हैं जिसकी छत्रछाया में भक्त, आलोचक, आम, खास, आराधक, विरोधी, संबोधक सबके सब न जाने कितने सालों से एक साथ चले आ रहे हैं। ‘श्रीराम’ भारतीय चिंतन परंपरा का सबसे चहेता चेहरा हैं। उनमें निर्गुणों व सगुणों सब ही का समान हिस्सा है। ब्रह्मवादी उनमें ब्रह्मस्वरूप देखते है। निर्गुणवादियों के लिए आत्मा ही श्रीराम है। अवतारवादियों के वे अवतार हैं।


वैदिक साहित्य में उनका विचित्र रूप है। बौद्ध कथाएं उनके करुणा रूप से कसी हुई हैं। वाल्मीकि के श्रीराम कितने निरपेक्ष हैं देखते ही बनता है। तुलसी के श्रीराम भारतीय जनमानस में बसे श्रीराम हैं, यहां सबके घट-घट में सजे श्रीराम हैं। श्रीराम ही हैं, जो भारत को उत्तर से दक्षिण तक और पूरब से पश्चिम तक एक सूत्र में पिरोए हुए हैं। भारतीय समाज के लिए तो मान-सम्मान का सम्बोधन ही ‘राम-राम’ हो जाता है। यह अकारण नहीं है जो सब कुछ राममय हो गया है। यहां हर घर का बड़ा बेटा राम हो जाता है जो आज्ञाकारी है, त्यागी है, सेवाभाव वाला है। आदर्श शासक सबको राम सरीखा नजर आता है। यहां तक कि रामराज्य आदर्श व्यवस्थाओं के आग्रह का आवश्यक आधार बन जाता है।

श्रीराम भारतीय परम्परा का अभिन्न हिस्सा हैं। तुलसी के श्रीराम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं और वाल्मीकि के राम मानवीय भावनाओं से ओत-प्रोत संतुलित राम हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने अपने जीवन में एक-एक मर्यादा की पालना की, समाज के सम्मुख आदर्श रखे। पुत्र, पिता, भाई, पति, राजा, मित्र तमाम स्वरूपों में मानवीय भावनाओं के संतुलक राम सिर्फ भारत के ही आदर्श नहीं है बल्कि पूरे विश्व के लिए आदर्श रूप में अनुकरणीय हैं। प्रभु श्रीराम का जीवन आम जीवन से जुड़ा जीवन है, वह सबको चमत्कृत नहीं अपितु आकर्षित करता है। पत्नी के अपहरण पर भी समाज से सहयोग मांगा और संघर्ष किया। तो उसे वापस पाने के लिए मिल-बैठकर नीति बनाई। लंका जाने के लिए एक-एक पत्थर जोड़कर पुल बनाया। एक कुशल प्रबन्धक की तरह लौटे तो पूरी सेना के साथ लौटे, एक साम्राज्य निर्माण की आकांक्षा से लबरेज रामराज की कामना के साथ। राम अगम है सगुण हैं निर्गुण है। कहत कबीर “निर्गुण राम जपहुं रे भाई।”

श्रीराम के चरित्र में पग-पग पर मर्यादा है, त्याग है, प्रेम है और लोक व्यवहार का साक्षात्कार है। राम मानवता में मथे महापुरुष हैं। राम लोकतंत्र के लोकपाल हैं, सबके प्रेरक हैं और समाज के सह-निर्माता हैं। राम के आदर्शों का जनमानस पर इतना गहरा प्रभाव तब ही संभव हो भी पाया। श्रीराम से भारतीय समाज सदैव सार्थकता पाता रहा है। भारत का आम जन-जीवन युगों-युगों से राम के दृष्टिकोण के साथ जीवन के संदर्भों-स्थितियों-परिस्थितियों-मनःस्थितियों-घटनाओं और प्रघटनाओं को मूल्यांकित करता रहा है। श्रीराम भारतीय समाज की वैचारिक थाती हैं। श्रीराम भारतीय संस्कृति की सतत प्रवाहमान धारा हैं। उनके उग्र स्वरूप के चित्रण में वैसा प्रभाव नहीं है जैसा उनकी सौम्यता में समाया हुआ है। राम बहुत सहज, सौम्य और सम्मोहक हैं। इसलिए वह सर्वत्र हैं। सबके हैं और सब उनके हैं। रहीम खान-ए-खाना कहते हैं कि ‘रामचरित मानस हिन्दुओं के लिए ही नहीं मुस्लिमों के लिए भी आदर्श है। तभी उन्होंने लिखा- ‘रामचरित मानस विमल, संतन जीवन प्रान, हिन्दुअन को वेद सम, तुरकहिं प्रगट कुरान।’

श्रीराम किसी धर्म, देश, दुनिया की सीमाओं में सीमित नहीं हैं, अपितु वह एक विलक्षण विचार हैं। साहित्य में खुसरो, रसखान, आलम रसलीन, हमीदुद्दीन नागौरी, ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती आदि सब ने राम की काव्य-पूजा की तो किसी ने राम की शक्ति-पूजा की है। तुलसी, कबीर, नानक और रैदास सब राम में रमे रहे। तुलसी कहत ‘राम न सकहिं नाम गुन गाहीं।’अर्थात स्वयं ‘राम’ भी इतने समर्थ नहीं हैं कि वह अपने ही नाम के प्रभाव का गान कर सकें। कबीर कहते है-‘राम गुण न्यारो न्यारो। अबुझा लोग कहांलों बूझे, बूझनहार विचारो।’

श्रीराम के गुण बेहद न्यारे हैं। नासमझ लोग उन्हें रटते रहते हैं, कोई समझने की कोशिश ही नहीं करता। गांधी के राम ‘रघुपति राघव राजा राम’ जब 22 जनवरी, 1921 को आज से लगभग एक सदी पूर्व ‘यंग इंडिया’ में उन्होंने लिखा, ‘मेरे लिए राम, अल्लाह और गॉड सब एक ही हैं।’ इसी चिंतनधारा में संत विनोबा भावे जी राम, कृष्ण, बुद्ध को अवतार घोषित किए जाने के प्रश्न पर कहते है ‘दरअसल विचार का ही अवतार होता है। लोग समझते हैं कि राम, कृष्ण, बुद्ध, अवतार थे। हमने उन्हें अवतार बनाया है। अवतार व्यक्ति का नहीं विचार का होता है और विचार के वाहन के तौर पर मनुष्य काम करते हैं। युगानुकूल वैचारिकी खड़ी करते हैं। किसी युग में राम के रूप में सत्य की महिमा प्रकट हुई तो किसी में कृष्ण के रूप में प्रेम की, तो कभी बुद्ध के रूप में करुणा की।’ भारत की हर एक भाषा में रामकथाएं कही गई हैं।

भारत के बाहर फिलीपाईन्स, थाईलैंड, लाओस, मंगोलिया, साइबेरिया, मलयेशिया, म्यांमार, स्याम, इंडोनेशिया, जावा, सुमात्रा, कम्बोडिया, चीन, जापान, श्रीलंका, वियतनाम सभी में रामकथा के ढेरों स्वरूप मौजूद हैं। इससे स्पष्ट है कि यदि श्रीराम केवल राजा होते, न्यायी होते, सदाचारी होते, धर्म प्रवर्तक होते तो शायद उनकी स्मृति भी कब की क्षीण हो चुकी होती और वह इतिहास बनकर रह गए होते। श्रीराम इतिहास नहीं हैं वह तो हर पल नए निवर्तमान हैं। अपना कोई धर्म-पंथ न चलाते हुए भी धर्म का आदि और अंत हैं। स्थूल रूप में अपने समय में नर-लीला करते हुए भी अतीत नहीं हुए वर्तमान हैं।

मौजूदा दौर का सवाल थोड़ा दुरुह है। क्या राम विचार का विश्राम हैं, तब जब राजनीति के राम जय श्रीराम हैं। इक्कीसवीं सदी की वैचारिक विमाओं में श्रीराम की भूमिका राष्ट्र निर्माण के किस रुप में अवतरित हो? आज यह यक्ष प्रश्न भारतीय चित्त की बड़ी चुनौती है। मौजूदा भारतीय नेतृत्व को नए राष्ट्र संगठक श्रीराम की तलाश है। श्रीराम की प्रतिष्ठा राजनीति से ज्यादा राष्ट्र नीति में निहित है। गंभीर सवाल यही है कि नई पीढ़ी के लिए श्रीराम कैसे हों? नयी सदी के नए दिमागों में श्रीराम की नयी उपमाएं कैसे उगें? मौजूदा चुनौतियों को मानस मंथन की नयी व्याख्याएं कैसे हल करें। जब विश्व मानवता और विज्ञान के विकास का क्रम इतना सहज न रहा हो? क्या नई पीढ़ी का वाल्मीकि के ‘श्रीराम’ से काम चल जायेगा? या तुलसी, कबीर और रसखान के ‘श्रीराम’ से सब काम बन जायेगा। आजाद भारत में गांधी, निराला और रामानंद सहित भारतीय राजनीति ‘श्रीराम’ को कितना भारतीयता के निकट ला पाती है। युवा पीढ़ी की आधुनिकता को कितना श्रीराम समर्थित बना पाती है। आधुनिक श्रीराम और आध्यात्मिक श्रीराम में संतुलन साधने का उद्यम तो नई पीढ़ी के लिए आज नहीं तो कल करना ही होगा। जो जय श्रीराम के जयकारे से आगे बढ़कर हर दिल के हलकारे तक श्रीराम के रंग बिखेर सके। देश का हर जवान उमंगित हो उठे, झूम उठे, गा उठे कि “होली खेले रघुवीरा, अवध में…”।

नए भारत के ग्लोबल इंडिया के ये वे द्वंद्व हैं, जो नए मुहावरों में श्रीराम को रमना चाहते है। क्या नयी सदी का भूमंडलीय भारत नयी नैतिकताओं और नयी सामूहिकताओं की नयी सामाजिक संहिता की सैद्धांतिकी के साथ नए श्रीराम की रचना करने वाले नए नरेशन को राजनीति के बाहर विस्तारित कर पायेगा। यहीं वह सबसे मौजूं सवाल है जिसके जवाब में श्रीराम युगों-युगों तक भारत के भीतर प्राण संचार करने वाले जन-नायक रहे हैं। श्रीराम का जीवन चरित्र संघर्ष में भी धीरज देता है। घोर नैराश्य में भी साहस और संयम सिखाता है। श्रीराम एक आदर्श व्यक्तित्व के पूरक हैं। श्रीराम का पूरा जीवन ही संघर्षों और आदर्शों से लबालब है। श्रीराम एक आदर्श पुत्र, पति या भाई ही नहीं हैं अपितु भारतीय समाज के लिए मर्यादा हैं। विनय और विवेक के विनायक हैं। लोकतांत्रिक मूल्यों और संयम के संवाहक श्रीराम हैं। एक मर्यादित, संयमित और संस्कारित जीवन की जीवंत झांकी हैं मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम। श्रीराम का राज्य जन सेवा के लिए नीतिकुशल न्यायप्रिय राजा का है। पारिवारिक मूल्यों के लिए निष्ठावान पीढ़ी के संस्कार वाला जीवन श्रीराम का है। वैवाहिक आदर्शता की पराकाष्ठा को परोसते श्रीराम ने पिता के तीन विवाहों के वातावरण में भी सीता सी सती के लिए वियोगी जीवन संघर्ष जारी रखा। यह श्रीराम ही कर सकते हैं।

श्रीराम का यह पारिवारिक व्यवहारिक जीवन-दर्शन भारतीय समाज की रग-रग में रमता है। उनके आदर्श उत्तर से दक्षिण तक सम्पूर्ण भारतवर्ष के जनमानस में जमें हुए है। श्रीराम का तेजस्वी और पराक्रमी स्वरूप भारत राष्ट्र को रक्षित रखता है। असीम क्षमता और अपार शक्ति वाले श्रीराम संयमित और मर्यादित जीवन जीते हैं। सामाजिक, पारिवारिक, लोकतांत्रिक और आध्यात्मिक आह्वान के साथ लोक कल्याण में रत श्रीराम मानवीय करुणा वाले कर्मवीर हैं। तभी तो मानते हैं-‘परहित सरिस धर्म नहीं भाई।’

राममनोहर लोहिया कहते हैं गांधी ने भारत को संबोधित करने के लिए श्रीराम का ही सहारा लिया, यह अकारण नहीं है। दरअसल श्रीराम इस राष्ट्र की एकता के प्रवर्तक हैं। गांधी ने श्रीराम को माध्यम बना हिन्दुस्तान के सामने एक मर्यादित तस्वीर रखी, क्योंकि गांधी के राम-राज्य की परिकल्पना में लोकहित सर्वोपरि हैं। भारत की हर नई पीढ़ी राम और रहीम की साझी परम्पराओं के सामाजिक, ऐतिहासिक, आध्यात्मिक और वैज्ञानिक संदर्भ समझती आयी है। श्रीराम की यह थाती हमारी अमूल्य निधि है और असली ताकत भी। हमारी सामाजिक-राजनीतिक परम्पराओं के समावेशी चरित्र को बनाने में श्रीराम की अद्वितीय भूमिका है। श्रीराम भारत के जन-जीवन में समाए हुए सर्वग्राही नायक हैं। हिन्दू श्रीराम को अपनी उस आध्यात्मिक शक्ति का प्रकाश-पुंज मानते हैं, जिसके सहारे वह हर क्षेत्र में राम-राज्य की स्थापना के व्यावहारिक और अभिनव प्रयोग करते दिखते है। हर भारतवासी की श्रीराम में अगाध श्रद्धा है। श्रीराम भारतीय जीवन को शुरू से अंत तक अजस्र शक्ति स्रोत के रूप में ऊर्जित रखते हैं। श्रीराम उस ऊर्जा स्रोत की तरह भारतीय अस्तित्व मे समाये हुए हैं, जो इस समाज को बार-बार संभालता है और लोक-कल्याण की दिशा में प्रेरित रखता है। यहां हर घर में श्रीराम रमण करते है, घट-घट में श्रीराम बसते हैं।

(लेखक,स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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