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    भगवान विष्णु का आठवां अवतार है श्री कृष्‍ण, जानें 5 शक्तिशाली अस्‍त्र

  • February 01, 2021

    हिन्दू धर्म में श्री कृष्ण को भगवान् विष्णु का आठवां अवतार माना गया है। श्याम वर्ण श्री कृष्ण बहुत ही चंचल और मनमोहक हैं।और उनकी लीलाओं की में ऐसा रस है जो किसी भी व्यक्ति के मन को अपने वश में कर लेता है। द्वापर युग में जब भगवान विष्णु श्री कृष्ण के रूप में अवतरित हुए थे तो उन्होंने अपने उपदेशों और लीलाओं से सम्पूर्ण मानव जाति को उचित और अनुचित का बोध करवाया था। और इसी कड़ी में उन्होंने कुरुक्षेत्र के मैदान में महाभारत युद्ध के दौरान गीता उपदेश भी दिया था। जिसमे उन्होंने समस्त मानव जाति को धर्म और कर्म का ज्ञान दिया था। भगवान् कृष्ण की बुद्धि, ज्ञान और नीतियों के कारण ही आज वो विश्व के कई देशों में पूजे जाते हैं। ज्ञान और उपदेश के आलावा श्री कृष्ण के पास कुछ प्रलयंकारी अस्त्र भी थे। तो मित्रों आइये जानते हैं श्री कृष्ण के पांच सबसे शक्तिशाली अस्त्र के विषय में।

    कौमोदकी गदा
    कौमोदीकी गदा को श्री विष्णु की शक्तिओं का स्रोत माना जाता हैं।इस गदा को भगवान विष्णु अपने बाएं हाथ में धारण करते हैं। विष्णु जी की भिन्न भिन्न अवस्थाओं में यह गदाअलग-अलग बातों को दर्शाता है। जैसे विष्णु जी की ध्यानावस्था में कौमोदीकी ज्ञान, बुध्दि एवं समय की शक्ति को प्रदर्शित करता है। विष्णु पुराण में गदा को ज्ञान की शक्ति बताया गया है। इसके अतिरिक्त यह गदा अहम् और अहंकार की प्रवृत्ति को भी प्रदर्शित करता है। विष्णुधर्मोत्तर पुराण में कौमोदकी भगवन विष्णु की पत्नी, तथा समृद्धि एवं बुद्धि की देवी लक्ष्मी को दर्शाता है। वहीँ कृष्णोपनिषद के अनुसार यह गदा माँ काली अर्थात समय की शक्ति को दर्शाता है। यह गदा महाभारत काल में भगवन कृष्ण को वरुणदेव से प्राप्त हुई थी। यह भयंकर गर्जना उत्पन्न करके शक्तिशाली असुरों और राक्षसों का विनाश करने में सक्षम थी।

    नारायणास्त्र
    ऐसा माना जाता है की यदि नारायणास्त्र का एक बार प्रयोग कर दिया जाए तो सम्पूर्ण सृष्टि में कोई भी शक्ति इसे रोकने में सक्षम नहीं थी। शत्रु यदि कहीं छुप भी जाए तो भी यह अस्त्र उसे ढूँढ़कर उसका वध कर देता था। इस अस्त्र को केवल उसके सामने खुद को समर्पण करके ही रोका जा सकता था। इसका निर्माण सतयुग में स्वयं भगवन नारायण द्वारा किया गया था। महाभारत काल में इस अस्त्र का ज्ञान भगवान विष्णु के रूप भगवान कृष्ण, गुरु द्रोणाचार्य और उनके पुत्र अश्वत्थामा को था। महाभारत युद्ध के दौरान जब अश्वत्थामा ने अपने पिता की मृत्यु के पश्चात पांडवों की अक्षौहिणी सेना को नष्ट कर दिया था तब भगवान कृष्ण ने सबको समर्पण करने के लिए कहा अन्यथा पांडव सेना का विनाश निश्चित था।



    सुदर्शन चक्र
    सुदर्शन चक्र भगवान विष्णु का सबसे प्रिये अस्त्र माना जाता है।यह चक्र बारह अरों, दो युगों और छः नाभियों से युक्त था। यह अत्यंत गतिशील और बड़े से बड़े अस्त्रों का नाश करने वाला था।ऐसा माना जाता है की इसके अरों में देवता, सभी राशियां, अग्नि, ऋतुएं, सोम, वरुण, मित्र, इंद्र, प्रजापति, हनुमान, तप, धन्वंतरि और चैत्र माह से फाल्गुन माह तक सभी बारह मास प्रतिष्ठित थे। सुदर्शन चक्र को ऊँगली से घुमाने पर यह वायु के प्रवाह के साथ मिलकर अग्नि प्रज्ज्वलित कर शत्रु को भस्म कर सकता था। चांदी से निर्मित यह दिखने में बहुत आकर्षक और तुरंत संचालित होने वाला विध्वंसक अस्त्र था। इसके ऊपर और नीचे की सतहों पर लोहे के शूल लगे हुए थे।

    धर्म ग्रंथों में वर्णित कथा के अनुसार यह चक्र भगवान विष्णु को असुर श्रीदामा का वध करने के लिए शिव जी से प्राप्त हुआ था। भगवान विष्णु से यह अग्निदेव के पास गया, अग्निदेव से वरुण देव के पास और वरुण देव से भगवान परशुराम के पास पहुंचा और अंततः परशुराम ने भगवान कृष्ण को दिया। कहा जाता है गोमांतक पर्वत पर श्री कृष्ण और जरासंध के युद्ध के पश्चात कृष्ण और परशुराम की भेंट हुई और भगवान कृष्ण ने परशुराम को युद्ध का पूरा हाल सुनाया। तब परशुराम ने कृष्ण को सुदर्शन चक्र के योग्य मानते हुए उन्हें यह अस्त्र दिया था। भगवान कृष्ण द्वारा इसका पहला प्रयोग एक हिंसक प्रवृत्ति के राजा शृगाल पर किया गया था।

    एक अन्य कथा के अनुसार ऐसा माना जाता है कि भगवान कृष्ण को यह अस्त्र देवी से प्राप्त हुआ था।

    वैष्णवास्त्र
    वैष्णवास्त्र की सबसे बड़ी शक्ति थी इसकी गति। अधिक तीव्र गति के कारण शत्रु के लिए इसे रोक पाना बहुत कठिन होता था। भगवन विष्णु के वराह अवतार के समय यह अस्त्र पृथ्वी को प्रदान किया गया था। पृथ्वी से यह नर्क के राजा नरकासुर को प्राप्त हुआ। बाद में नरकासुर ने यह अस्त्र अपने पुत्र भागदत्त को प्रदान किया। भागदत्त प्राग्ज्योतिषपुर का राजा था। महाभारत के द्रोण पर्व में उल्लेखनीय है कि राजा भागदत्त और अर्जुन के मध्य चल रहे युद्ध के समय जब अर्जुन के बाणों से भागदत्त पूरी तरह घायल हो गया तब क्रोधित होकर उसने वैष्णवास्त्र का प्रयोग अर्जुन पर किया। इसे कैसे रोका जाए इसका ज्ञान अर्जुन को नहीं था। तब भगवन कृष्ण ने बीच में आकर इसे अपनी छाती पर ले लिया और यह अस्त्र उनके गले में वैजन्ती माला के रूप में सुसज्जित हो गया।

    क्यूंकि भगवन कृष्ण स्वयं ही इसके निर्माता थे इसलिए यह उन्हें हानि नहीं पहुंचा सकता था। महाभारत काल में यह अस्त्र श्री कृष्ण के अतिरिक्त भगवन परशुराम, भागदत्त, महारथी कर्ण और कृष्ण पुत्र प्रद्युम्न के पास था। इस अस्त्र को संचालित करने के पश्चात यह पहले आकाश की ओर बहुत ऊँचाई तक जाता था और बिजली की गति से नीचे आकर शत्रु पर प्रहार करता था।

    नोट- उपरोक्‍त दी गई जानकारी व सूचना सामान्‍य उद्देश्‍य के लिए दी गई है। हम इसकी सत्‍यता की जांच का दावा नही करतें हैं यह जानकारी विभिन्‍न माध्‍यमों जैसे ज्‍योतिषियों, धर्मग्रंथों, पंचाग आदि से ली गई है । इस उपयोग करने वाले की स्‍वयं की जिम्‍मेंदारी होगी ।

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