जो चर्चित नहीं होते हैं वो चौंकाते हैं… और जो चौंकाते हैं वो तब तक इस भ्रम को पालते हैं, जब तक उनके सामने जनता के चौंकाने वाले फैसले नहीं आते हैं…अतिउत्साह और जबरदस्त आत्मविश्वास से भरी भाजपा ने जिस-जिस नाम को आजमाया जनता ने उसके आगे सर झुकाया… फिर वो सांसद शंकर लालवानी हों या महापौर रहीं उमाशशि शर्मा या कृष्णमुरारी मोघे… उमाशशि को संघर्ष करना पड़ा…मोघे हारते-हारते बचे, लेकिन लालवानी को तो भरपल्ले वोट मिले और इतने मिले कि पूरा देश चौंक गया… और इसके बाद से भाजपा का चौंकाने वाला क्रम बढ़ता गया…भाजपा में कार्यकर्ता खामोश और नेता समझौता कर रहे हैं…जो ऊपर से आता है उसके लिए सजदा हो जाता है…अनुशासन की दृष्टि से यह उचित माना जाता है… लेकिन जब नेताओं का नेताओं पर शासन हो जाता है तो विचलन बढ़ जाता है… भाजपा ने इंदौैर के महापौर के लिए नेताओं के जाजम को हटाया और पहले संघ के निष्ठ निशांत खरे को आजमाया…खरे ने कोविड प्रबंधन में काम संभाला था और कई नेताओं के फजीते किए थे…लिहाजा खरे स्थानीय नेताओं के लिए खोटे हो गए और चंद घंटों में उभरकर लुप्त हो गए…फिर कुछ नेताओं के नाम चले, आगे बढ़े और अपनी ही बिरादरी की भेंट चढ़ते गए… मधु वर्मा में पार्टी ने उम्र से लेकर हार तक की मीन-मेख निकाल दी…रमेश मेंदोला के साथ जो होता आया है वही हुआ…वापरो और फेंक दो की नीयत का शिकार हुए मेंदोला के लिए विधायकी का नियम लगाकर रास्ते रोक दिए गए…जिराती को संगठन का बता दिया और गौरव को इंदौर के संगठन का रण थमा दिया…जब सबको रस्ते लगा दिया तो नेताओं ने अपना पत्ता चला दिया और ब्राह्मण के सामने ब्राह्मण की काट का वार चलाकर भार्गव को अपना गर्व बना लिया… भार्गव युवा हैं… पढ़े-लिखे हैं… द्वेष-विद्वेष से परे हैं, लेकिन वो इसीलिए साफ-सुथरे हैं कि अभी राजनीति के दलदल में धंसे नहीं हैं… लेकिन जिस पद की दावेदारी वो कर रहे हैं, वहां जनता की भलाई से पहले नेताओं की बुराई से भिडऩा पड़ता है… एक नहीं पूरे 85 दिमाग पर लदते हैं और उनसे लड़-भिडक़र ही महापौर आगे बढ़ सकते हैं… ऐसी ही चतुर पिच्यासी (पार्षदों) का शिकार उमाशशि की तो ऐसी फजीहत हुई थी कि पांच एमआईसी मेंबर ही घर बैठ गए और ललित पोरवाल उन पर राज करते रहे…जैसे-तैसे जनता ने पांच साल गुजारे और उसके बाद फिर भाजपा ने मोघेजी को उतार दिया…जनता से अपरिचित मोघेजी जैसे-तैसे चुनाव जीते… कांग्रेस उम्मीदवार पंकज संघवी ने तो यहां तक आरोप मढ़ा कि मोघेजी को जनता ने नहीं कलेक्टर ने जिताया…खैर! अगली पारी मालिनी गौड़ ने संभाली… वो महिला थीं… विधायक भी थीं…परिचित भी थीं… इसलिए जीतीं भी और चलीं भी…न कोई रोड़ा लगाया… न अड़ंगा अपनाया… इसलिए शासन और प्रशासन ने खुलकर इंदौर को अव्वल बनाया…लेकिन उसके बाद से चुनाव के इंतजार में नेताविहीन निगम में मनमानियों का ऐसा सिलसिला चल रहा है कि हर नागरिक उबल रहा है…वो चुनाव के राहत पैकेज का इंतजार कर रहा था लेकिन भाजपा के चौंकाने वाले फैसले से चौंककर अपना सर खुजाल रहा है…फिलहाल तो शासन की पैरवी कर जनता के खिलाफ शासन को लाभ पहुंचाने वाले पेशेवर अधिवक्ता महापौर के उम्मीदवार पुष्यमित्र भार्गव को नेताओं से भिडऩा है…उन्हें अपनी तरफ करना है… फिर जनता को विश्वास दिलाना है…अपने कलेवर में परिवर्तन लाना है और खुद को शासन के साथ जनता का भी मुंतजिर बनने का भरोसा जताना है…समय कम है और काम ज्यादा…ताकत के रूप में उनके साथ भाजपा है और नेपथ्य में संघ की शक्ति… लेकिन मुकाबला भी मुकाबिल से है… भाजपा के मुकाबले जनता का चिर-परिचित चेहरा है… जिससे मिलने … रोष व्यक्त करने… लडऩे-भिडऩे में जनता को ज्यादा आसानी होगी… कांग्रेस ने भी सोच-समझकर संजय शुक्ला को उम्मीदवार बनाया है… जिसके घर में दो भाजपाई रहते हैं इसलिए विरोधी भी उंगली उठाने से परहेज करते हैं… कांग्रेस के पास कोई दूसरा दावेदार नहीं था इसलिए सारे नेता एकजुट नजर आ रहे हैं… संघर्ष बड़ा होगा… देखना है भाजपा की खीर में चौंकाने वाली शकर स्वाद बढ़ाएगी या कांग्रेस की रसोई जनता को भाएगी…
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