उज्जैन। किसी भी शहर की सुंदरता वहां की तालाब, झील और नदी होती है, आज उदयपुर राजस्थान में वर्षभर में लाखों देशी विदेशी पर्यटक जाते हैं क्योंकि वहाँ बड़ी झीलों को साफ रखा गया है और उन्हें पर्यटन स्थल के रूप में तब्दील कर दिया गया है लेकिन मध्यप्रदेश सरकार का पर्यटन को बढ़ावा देने की ओर कोई ध्यान ही नहीं है। उज्जैन धार्मिक नगरी है और यहां दो कारणों से लोग आते हैं..पहला महाकाल मंदिर के दर्शन करने और दूसरा शिप्रा नदी में स्नान करने..लेकिन शिप्रा की जो हालत हुई है, उसे लिखकर बयान करना मुश्किल है। पूरा नदी क्षेत्र का पानी गंदा है और नाले के पानी के रूप में बदल चुका है..!
शिप्रा नदी में हर साल बारिश निपटते ही जलकुंभी का जमावड़ा शुरू हो जाता है। सितंबर माह में बारिश का काल पूरा होता है और अक्टूबर-नवंबर माह से ही बड़े पुल के आगे चक्रतीर्थ से होते हुए ऋणमुक्तेश्वर घाट तक गंदगी और जलकुंभी जमा होने लग जाती है। उधर गंगाघाट के आगे से लेकर मंगलनाथ घाट तक नदी का तल जलकुंभी से पटा नजर आता है। यह एरिया ऐसा है जो अक्टूबर से लेकर जून-जुलाई तक लगभग 9 महीने जलकुंभी के साम्राज्य से ढंका हुआ रहता है। हालात यह है कि मंगलनाथ क्षेत्र में श्रद्धालु स्नान तो दूर आचमन तक नहीं कर पाते हैं। मंगलनाथ से होकर आगे तक शिप्रा में जलकुंभी ही जमी रहती है। इधर रामघाट क्षेत्र से लेकर छोटे पुल तक पूरे साल शिप्रा में सफाई होती रहती है परंतु बड़े पुल से लेकर मंगलनाथ घाट तक कहीं भी पूरे साल जलकुंभी हटाने या शिप्रा में जमी गंदगी साफ करने का अभियान नगर निगम नहीं चलाता। रामघाट से लेकर छोटे पुल तक नदी की सफाई के लिए नगर निगम ने स्थाई और अस्थाई रूप से रखे गए लगभग 50 से ज्यादा सफाईकर्मियों की ड्यूटी लगा रखी है। हैरत की बात है कि स्नान पर्वों के दौरान भी चक्रतीर्थ क्षेत्र और मंगलनाथ क्षेत्र में शिप्रा को साफ नहीं रखा जाता। दूसरी ओर शिप्रा में अभी भी 13 बड़े नाले लगातार मिल रहे हैं। रही सही गंदगी की कसर यह पूरी करते रहते हंै। त्रिवेणी पर कान्ह नदी का पानी मिलता रहता है।
नदी में मिल रहे अभी भी आधा दर्जन नाले
गुणवती शिप्रा नदी में गंदे नाले मिल रहे हैं जिसमें शहर का मलमूत्र जा रहा है और अन्य अपशिष्ट पदार्थ का गंदा पानी मिल रहा है। पूर्व में भी शिप्रा नदी में नालों को बंद करने की योजना बनी तथा दावे किए गए लेकिन भ्रष्ट अधिकारी पैसा खा गए और काम नहीं कराया। अधिकारियों की जिम्मेदारी तय नहीं होने के कारण वे बेपरवाह होकर टेण्डर निकालते हैं और करोड़ों रुपए के बिल पास कर देते हैं तथा अपना कमीशन लेकर निकल जाते हैं। शिप्रा नदी की दुर्दशा इसी भ्रष्टाचार का परिणाम है। शहर के लोगों को याद होगा कि कुछ वर्ष पहले शिप्रा नदी को साफ करने के लिए एक बनावटी संत ने भी अभियान चलाया था लेकिन पब्लिसिटी लेने के बाद वह भी निकल गया।
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