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शरीयत अदालतों की कानून में कोई जगह नहीं, सुप्रीम कोर्ट ने कहा- किसी पर जबरन लागू नहीं किए जा सकते फतवे

April 29, 2025

नई दिल्ली. शरीयत कानून (Sharia law) और फतवों (Fatwas) से संबंधित एक मुकदमे में जारी आदेश के जरिए सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने दोहराया है कि ‘काजी की अदालत’, यानी दारुल कजा, ‘काजियात की अदालत’ और ‘शरिया कोर्ट’ (Sharia courts) नहीं है. उनके द्वारा दिया गया कोई भी निर्देश कानून में लागू नहीं होता. ना ही उनका फैसला बाध्यकारी है.



जस्टिस सुधांशु धूलिया और जस्टिस अहसानुद्दीन अमानुल्लाह की पीठ ने विश्व लोचन मदन बनाम भारत सरकार के मामले में 2014 के फैसले का हवाला दिया है. इसमें कहा गया था कि शरीयत अदालतों और फतवों को कानूनी मान्यता नहीं है. सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के उस फैसले को चुनौती देने वाली एक महिला की अपील पर फैसला दिया जिसमें फैमिली कोर्ट के फैसले को बरकरार रखा गया था.

फैमिली कोर्ट ने याचिकाकर्ता को इस आधार पर कोई गुजारा भत्ता नहीं देने का आदेश दिया गया था कि वह विवाद का कारण है. फैमिली कोर्ट ने इस तरह के निष्कर्ष निकालने के लिए काजी की अदालत के समक्ष दायर एक समझौता डीड पर भरोसा किया था.

फैमिली कोर्ट के दृष्टिकोण की आलोचना करते हुए जस्टिस अमानुल्लाह के फैसले में साफ कहा गया कि ‘काजी कोर्ट’, ‘(दारुल कजा) ‘काजियात कोर्ट’, ‘शरिया कोर्ट’ इत्यादि किसी भी नाम से पुकारे जाने वाले न्यायालयों की भारतीय कानून में कोई मान्यता नहीं है. विश्व लोचन मदन (सुप्रा) में उल्लेख किए गए ऐसे निकायों द्वारा कोई भी घोषणा/निर्णय, चाहे किसी भी नाम से पुकारा जाए, किसी पर भी बाध्यकारी नहीं है. उन फतवों या आदेशों को किसी भी बलपूर्वक उपाय का सहारा लेकर लागू नहीं किया जा सकता है.

अदालत ने कहा, ‘ऐसी घोषणा/निर्णय कानून की नजर में तभी टिक सकते हैं जब प्रभावित पक्ष उस घोषणा/निर्णय को उस पर अमल करके या स्वीकार करें या फिर जब ऐसी कार्रवाई किसी अन्य कानून के साथ संघर्ष न करे. इस सबके बावजूद ऐसी घोषणा/निर्णय, सबसे अच्छी स्थिति में, केवल उन पक्षों के बीच ही वैध होगी जो उस पर अमल करना/स्वीकार करना चुनते हैं, न कि किसी तीसरे पक्ष के बीच.’

क्या है पूरा मामला?
अपीलकर्ता महिला का विवाह 24.09.2002 को इस्लामी रीति-रिवाजों के अनुसार हुआ था. यह दोनों की दूसरी शादी थी. 2005 में, ‘काजी की अदालत’, भोपाल, मध्य प्रदेश में महिला के खिलाफ तलाक का मुकदमा दायर किया गया जो दोनों पक्षों के बीच 22.11.2005 को हुए समझौते के आधार पर खारिज हो गया. इसके तीन साल बाद 2008 में उसके शौहर ने (दारुल कजा) काजियात की अदालत में तलाक के लिए एक और मुकदमा दायर किया. उसी साल, पत्नी ने भरण-पोषण की मांग करते हुए CrPC की धारा 125 के तहत फैमिली कोर्ट का रुख किया.

अगले ही साल 2009 में शरई अदालत दारुल कजा ने तलाक की अनुमति दिए जाने के बाद तलाकनामा सुनाया गया. फैमिली कोर्ट ने महिला के भरण-पोषण के दावे को इस आधार पर खारिज कर दिया कि प्रतिवादी पति ने महिला को नहीं छोड़ा था बल्कि वह खुद ही अपने स्वभाव और आचरण के कारण विवाद व वैवाहिक घर से चले जाने का मुख्य कारण थी.

‘फैमिली कोर्ट का तर्क सिर्फ अनुमान पर आधारित’
सुप्रीम कोर्ट ने फैमिली कोर्ट के इस तर्क की भी आलोचना की कि चूंकि दोनों पक्षों की यह दूसरी शादी थी इसलिए पति के दहेज मांगने की कोई आशंका नहीं थी. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि फैमिली कोर्ट द्वारा दिया गया ऐसा तर्क/अवलोकन कानून के सिद्धांतों से अनजान है. यह केवल अनुमान पर आधारित है. फैमिली कोर्ट यह नहीं मान सकता था कि दोनों पक्षों के लिए दूसरी शादी में दहेज की मांग अनिवार्य रूप से नहीं होगी.

कोर्ट ने यह भी कहा कि समझौता डीड भी फैमिली कोर्ट द्वारा किए गए किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा सकता. पीठ ने व्यक्ति को फैमिली कोर्ट के समक्ष भरण- पोषण याचिका दायर करने की तिथि से अपीलकर्ता को भरण-पोषण के रूप में प्रति माह 4,000/- रुपये का भुगतान करने का निर्देश दिया.

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