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हिमालय में गंभीर होता पर्यावरणीय संकट

August 24, 2022

– कुलभूषण उपमन्यु

इस साल की बरसात पूरे देश के लिए तबाही ले कर आई है। किन्तु हिमालयी क्षेत्रों में जैसी तबाही हुई है, वह अभूतपूर्व हैं। हिमाचल प्रदेश में शिमला-सिरमौर से लेकर चंबा तक तबाही का आलम पसर गया है। सड़कें बंद हैं। चक्की का रेल पुल बह गया है। बहुमूल्य जन-धन की क्षति हुई है। सिहुंता घाटी में 135 लोगों को घरों से निकाल कर जनजातीय भवन में आश्रय दिया गया है। मंडी में 22 लोग काल का ग्रास बन गए। प्रदेश में कई लोग अभी लापता हैं। 18 अगस्त से 20 अगस्त की दोपहर तक बारिश की भयावहता से लोग कांप गए। 48 घंटे में ही धर्मशाला से सिहुंता घाटी तक 500 मिलीमीटर बारिश हो गई। पूरे प्रदेश में अगस्त में इस क्षेत्र में औसत 349 मिलीमीटर से 600 मिलीमीटर बारिश होती है। कुल्लू जिला की स्थिति भी बहुत ही खराब हुई है। चारों ओर बादल फटे हैं। यह वैश्विकस्तर पर जलवायु परिवर्तन का परिणाम तो है ही किन्तु हिमालय में तापमान वृद्धि दर वैश्विक औसत से ज्यादा होने के कारण भी है। हिमालय की संवेदनशील परिस्थिति को देखते हुए लंबे समय से उसके लिए अलग विकास मॉडल की मांग होती रही है। क्योंकि मुख्य धारा का विकास मॉडल हिमालय क्षेत्र के अनुकूल नहीं है।

नीति आयोग ने हिमालयी राज्य क्षेत्रीय परिषद का गठन करके एक तरह से हिमालयवासियों की समस्याओं और संभावनाओं को मैदानी क्षेत्रों से अलग दृष्टिकोण से देखने की उम्मीद और मांग को मान्यता देने की पहल की है। इसका खुले दिल से स्वागत किया जाना चाहिए। 1992 में डॉ. एसजेड कासिम की अध्यक्षता में एक विशेषज्ञ दल का गठन किया गया था। इसकी संस्तुतियां भी हिमालयी राज्यों की पारिस्थिक अवस्था के आधार पर बनी थीं। मगर उनके सुझाव लागू नहीं हो सके। नीति आयोग ने 2017 में पांच कार्य समूह बनाए। इनकी रिपोर्ट अगस्त 2018 में आई। कुछ महीनों के भीतर ही हिमालयी क्षेत्रीय परिषद के गठन से माना जा सकता है कि सरकार इस दिशा में कुछ गंभीर है। वरिष्ठ वैज्ञानिक पृष्ठभूमि के डॉ. वीके सारस्वत इस परिषद के अध्यक्ष बनाए गए हैं। परिषद पांच कार्य समूहों की रपट के आधार पर कार्रवाई बिंदु तय करेगी। परिषद की भूमिका हिमालय के वैकल्पिक विकास मॉडल के सन्दर्भ में काफी महत्वपूर्ण रहने वाली होगी। उम्मीद करनी चाहिए कि परिषद को भूमिका निर्वहन के लिए पर्याप्त शक्तियां प्रदान की जाएंगी।

कार्य समूहों से निम्न मुद्दों पर विशेषज्ञ रिपोर्ट मांगी गई थी। एक- जल स्रोत जलागम के प्रबन्धन से जलस्रोतों को पुनर्जीवित करना। दोः टिकाऊ पर्यटन की व्यवस्था खड़ी करना। तीन-झूम खेती के विकल्पों से पूर्वोतर राज्यों में कृषि की टिकाऊ व्यवस्था खड़ी करना। चार- हिमालयी क्षेत्रों के लिए उपयुक्त कौशल विकास और उद्यमिता सशक्तिकरण। पांच-जानकारी आधारित निर्णय प्रक्रिया के लिए आंकड़ों और सूचनाओं का संग्रह।यह परिषद आपदा प्रबन्धन, ऊर्जा, ढांचागत विकास, परिवहन, वन, जैव विविधता, शहरीकरण, स्वास्थ्य, शिक्षा, आदि प्रमुख क्षेत्रों के विषयों में भी आकलन प्रस्तुत करेगी। इसके आधार पर हिमालय क्षेत्रों में टिकाऊ विकास के लिए दिशा-निर्देश और रूपरेखा विकसित की जानी है।

हिमालय में टिकाऊ विकास के लिए खतरे या रुकावटों को यदि चिह्नित करने का प्रयास किया जाए तो स्पष्ट होगा कि पांच कार्य समूहों के अतिरिक्त ऊर्जा, ढांचागत विकास, सड़कें, परिवहन और पर्यावरण विनाशक उद्योग टिकाऊ विकास को दिग्भ्रमित करने वाले मुख्य कारक रहे हैं। इनको संज्ञान में तो लिया गया है किन्तु अच्छा होता यदि इनके लिए भी अलग अलग विशेष कार्य समूह बना कर विशेषज्ञ संस्तुतियां प्राप्त कर ली जातीं। हिमालय में अत्यधिक चौड़ी सड़कें अपने साथ भारी तबाही ले कर आती हैं। आवागमन की सुविधा में सुधार की खुशी उसके कारण होने वाली तबाही को भुला देती है। उसके खिलाफ कोई आवाज उठाएगा तो विकास विरोधी कहलाया जाएगा, इस डर से या अपने-अपने निहित स्वार्थों के चलते कोई कुछ नहीं बोलता। इसलिए सड़क निर्माण में पर्वतीय क्षेत्रों में क्या सावधानियां बरती जानी चाहिए इस बात का कोई ख्याल तक नहीं करता। हिमालय में यदि सड़कें कट ऐंड फिल विधि से बनाई जाएं तो 30 फीसद तक खर्च में वृद्धि तो होगी किन्तु निर्माण कार्य के दौरान होने वाली तबाही से बड़ी हद तक बचा जा सकता है। सड़कों के विकल्प के रूप में कुछ जगहों पर रोप-वे या मोनो रेल जैसे विकल्पों पर भी सोचा जाना चाहिए।

इसी तरह ऊर्जा के क्षेत्र में हिमालय में जल विद्युत का दोहन जिस स्तर और तकनीक से किया जा रहा है उससे बनावटी झीलों के कारण होने वाले मीथेन उत्सर्जन के कारण स्थानीय स्तर पर वायुमंडल के तापमान में वृद्धि हो रही है। सुरंगों से जल स्रोत सूख रहे हैं। नदी घाटी स्तर पर पारिस्थितिकीय व जलवायु में बदलाव आ रहे हैं। पांच मेगावाट तक माइक्रो हाइडल का दर्जा देकर छोटे-छोटे नालों पर भी भारी तोड़फोड़ की जा रही है। कई जगह छोटी खड्डों और नालों पर बनने वाले इन माइक्रो हाइडल परियोजनाओं से लोगों के पानी के अधिकारों का हनन हो रहा है। इससे सिंचाई व पेयजल के लिए टकराव की स्थितियां पनप सकती हैं। जल विद्युत् दोहन के लिए एक मेगावाट से नीचे नीचे की परियोजनाओं को ही मान्यता मिलनी चाहिए। वोरटेक्स तकनीक और हाइड्रो काईनैटिक तकनीक को भी विकल्प के तौर पर परखा जाना चाहिए, जिनमें पनचक्की जितने प्रपात पर या उससे भी छोटे प्रपात पर बिजली बनाई जा सकती है। हाइड्रो काईनैटिक तकनीक में तो बहते हुए पानी में तैरते प्लैटफार्म से टरबाइन जोड़ कर ही बिजली बनाई जा सकती है। इस तकनीक का प्रयोग समुद्र की लहरों से भी बिजली बनाने के लिए किया जा सकता है। सौर उर्जा पर भी विशेष काम करने की जरूरत है।

पर्वतीय प्रदेशों की सरकारें आर्थिक संसाधनों के दबाव के चलते कई बार अवांछित या पर्यावरण के विनाशक तरीकों से भी आय की आशा में फैसले कर लेती हैं। इन पर अंकुश वैकल्पिक व्यवस्थाओं को प्रोत्साहन दे कर ही लग सकता है। हमें उम्मीद करनी चाहिए कि हिमालयी राज्य क्षेत्रीय परिषद ऐसे जरूरी मुद्दों पर विशेषज्ञ कार्य समूह बना कर मुख्यधारा की विकास अवधारणाओं से हट कर हिमालय के लिए उपुक्त तकनीकों का प्रचालन करवाने में मुख्य भूमिका निभाएगी।

वर्तमान कार्यसमूह रोजगार को मुख्य बिंदु मान कर गठित किए गए हैं। पर्यावरण मित्र विकास के लिए विधि- निषेध का ध्यान रखा जाना बहुत जरूरी है। हिमालय में क्या नहीं होगा, यह उतना ही जरूरी है जितना कि यहां क्या होगा, यह जरूरी है। हिमालयवासियों और हिमालय की चिंता करने वाले सभी लोगों को इस परिषद का स्वागत करना चाहिए। परिषद को भी चाहिए कि इस क्षेत्र के अनुभवी लोगों और संगठनों- संस्थाओं को जोड़कर आगे बढ़ने की संस्कृति को अपना कर कार्य करें। विकास मॉडल से जुड़े मामलों में समुदायों को भी मुख्य दावेदार माना जाना चाहिए जबकि आम तौर पर प्रबन्धन से जुड़े विभागों, औद्योगिक और वाणिज्यिक दावेदारों को ही मुख्य भूमिका में देखा जाता है। केंद्र और राज्य सरकारें एवं हिमालयी राज्य परिषद इस दिशा में शीघ्र सक्रिय हों यही आशा और मांग है।

(लेखक, जल-जंगल-जमीन के मुद्दों के विश्लेषक और पर्यावरणविद् हैं।)

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