– गिरीश्वर मिश्र
स्कूली शिक्षा सभ्य बनाने के लिए एक अनिवार्य व्यवस्था बन चुकी है। शिक्षा का अधिकार संविधान का अंश बन चुका है। भारत में स्कूलों पर प्रवेश के लिए बड़ा दबाव है और अभी करोड़ों बच्चे स्कूल नहीं जा पा रहे हैं। जो स्कूल जा रहे हैं उनमें से काफी बड़ी संख्या में बीच में ही स्कूल की पढ़ाई छोड़ दे रहे हैं। यानी शिक्षा के सार्वभौमीकरण का लक्ष्य पूरा नहीं हो पा रहा है। दूसरी तरफ स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता को लेकर भी सवाल खड़े होते रहे हैं। बच्चों को उनकी रुचि, क्षमता और स्थानीय सांस्कृतिक प्रासंगिकता आदि को दरकिनार रख सभी को एक ही ढाँचे में एक ही तरह के सांचे में ढाल कर शिक्षा की व्यवस्था की जाती है। सरकार की औपचारिक शिक्षा प्रणाली फैक्ट्री में थोक के हिसाब से माल तैयार करने के तर्ज पर एक ही तरह के मानक की पक्षधर है।
मनुष्य मात्र में जन्म से ही दिखने वाली व्यक्तिगत भिन्नता के तथ्य की अनदेखी करते हुए और मानवीय प्रतिभा की सृजनात्मकता और स्वतन्त्र चिंतन की नैसर्गिक विशेषताओं को भुलाकर सबके लिए एक ही पैमाने का उपयोग व्यवस्था की दृष्टि से सुभीता तो जरूर देता है पर सहज मानसिक विकास में बाधक होता है। कुल मिलाकर मुख्यधारा के स्कूलों को लेकर काफी असंतोष देखने को मिलता है। शिक्षा में जिस खुलेपन और विविधता की जरूरत होती है उसके लिए विद्यालय की संस्था को अधिक संवेदनशील और आग्रहमुक्त होने की जरूरत है। वैसे भी विश्व की अनेक प्रतिभावान विभूतियों ने स्कूल की संस्था की उपादेयता पर प्रश्नचिह्न उठया है। स्कूलों की संस्था की उपयोगिता के विवाद में न भी पड़ें तो स्कूलों में विविधता इसलिए भी जरूरी है कि स्कूली आयु के बच्चे न केवल सामाजिक-आर्थिक दृष्टि से अनेक तरह की पृष्ठभूमियों से आते हैं बल्कि उनकी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, स्कूल के लिए तत्परता और शारीरिक-मानसिक क्षमता (जैसा दिव्यांग बच्चों में मिलता है) और जटिल सामाजिक पारिवारिक परिवेश में भी अंतर पाए जाते हैं। कुंठा के चलते स्कूल छोड़कर चले जाने वाले बच्चों और युवाओं की संख्या बहुत बड़ी है। देश अभी भी पूर्णत: साक्षर नहीं हो सका है। ऐसे में वैकल्पिक स्कूलों की व्यवस्था का महत्त्व बढ़ जाता है।
आधुनिक भारत में प्रचलित स्कूली व्यवस्था एक ओर अपने औपनिवेशिक अतीत से बंधी है तो दूसरी ओर अब उसपर वैश्विकता का भूत सवार है। इन सबके बीच यथास्थिति बनी हुई है- न ययौ न तस्थौ। इनको अपर्याप्त मानते हुए वैकल्पिक स्कूल को लेकर कई प्रयास होते रहे हैं। पाठशाला, गुरुकुल और मदरसे तो जमाने से चले आ रहे थे। अंग्रेजों के जमाने में नया ढांचा चला जो अब मुख्यधारा बना हुआ है। गांधीजी ने शिक्षा के सुन्दर वृक्ष के समूल विनाश के लिए अंग्रेजों को उत्तरदायी ठहराया था परन्तु 1947 में स्वतंत्रता मिलने के बाद भी प्रतियोगिता और उपभोक्तावाद के आगोश में हम उसी शिक्षा पद्धति को चलाते रहे। इससे सामाजिक असमानता भी बढ़ी और मूल्यों की दृष्टि से भी हम कमजोर पड़ते गए। इसके समानांतर महंगे निजी स्कूलों की भी भरमार हो गई।
वैकल्पिक दृष्टि से स्वामी विवेकानंद और स्वामी दयानंद ने प्रयास शुरू किया था। महात्मा गांधी, गुरुदेव रबीन्द्र नाथ टैगोर, श्री अरविन्द, गीजू भाई बधेका, जिद्दू कृष्णमूर्ति के शैक्षिक प्रयासों से नए तरह के स्कूल के प्रयोग शुरू हुए। चिन्मय मिशन, साधू वासवानी ट्रस्ट, दयालबाग शैक्षिक संस्थान आदि भी इस दिशा में कार्यरत हैं। ऐसे ही मांटेसरी पद्धति के विद्यालय भी चल रहे हैं। सत्तर के दशक में होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम, बंगलोर का विकासना, राजस्थान में दिगंतर, उत्तराखंड में सिद्ध स्कूल, मध्य प्रदेश में आधारशिला शिक्षण केंद्र, तमिलनाडु में विद्योदय स्कूल, बिहार में चरवाहा विद्यालय जैसे प्रयासों के साथ ही पूरे देश में इस तरह के प्रयास हो रहे हैं। राष्ट्रीय मुक्त शिक्षा संस्थान भी इस दिशा में कई नवाचारी प्रयास कर रहा है।
इन वैकल्पिक स्कूलों के विचारों और अभ्यासों को आत्मसात कर मुख्यधारा की शिक्षा में सकारात्मक परिवर्तन लाया जा सकेगा। भारत में नवाचारों के लिए प्रतिरोध आम बात है। माता-पिता, अभिभावक, नीति निर्माता, अध्यापक सभी चाहते हैं कि सुधार हो परन्तु यह सरल नहीं होता है। हम विकल्प के स्कूल के रूप में जिन संस्थाओं को पाते हैं वे प्राय: उन सीमाओं को लांघने की कोशिशें हैं, जिनसे उबरने के लिए मुख्यधारा की संस्थाएं जूझ रही हैं। वैकल्पिक स्कूल शिक्षा के उन्नयन की राह दिखाते हैं। इनमें बच्चे स्वयं अपनी प्रतिभा और रुचि को तलाशते हुए आगे बढ़ते हैं। इस काम में अध्यापक, माता-पिता, हित मित्र सहायक का काम करते हैं। सीखना अपने आसपास के पूरे परिवेश के बीच और परिवेश के माध्यम से होता है। ज्ञान, कौशल और मूल्यों की बच्चे की अपनी चाह को आदर देते हुए वैकल्पिक स्कूल परीक्षा, प्रतिष्ठा और पद की लालसा के बदले सीखने की सामर्थ्य पर बल देते हैं। इनमें बच्चा या विद्यार्थी ही केंद्र में होता है। सीखने और सिखाने की कोई एक मानक शैली न होकर उसकी कई राहें खुली होती हैं। इन स्कूलों में ज्ञान के विषयों की सीमाएं आपस में मिलती हैं और उनके आपसी रिश्तों की पड़ताल की जाती है। सीखते हुए और खेलकूद, संगीत और कल्पनाशीलता के लिए अवसर मिलने से बच्चे की संवेदना का भी विस्तार होता है। जीवन को समृद्ध करने वाले आध्यात्मिक, सामाजिक तथा नैतिक मूल्यों के साथ दायित्वों को जीवन में उतारने की कोशिश इन स्कूलों की ख़ास विशेषता होती है। लोकतांत्रिक और लचीले प्रशासन के बीच संचालित होने वाले इन स्कूलों में बच्चों को व्यावसायिक शिक्षा और उनके हुनर विकसित करने की भी व्यवस्था होती है।
वैकल्पिक स्कूल बच्चों के सर्वांगीण विकास की दिशा में निरंतर आगे बढ़ रहे हैं और उनमें ऐसा बहुत कुछ है जो मुख्यधारा के लिए प्रासंगिक और उपयोगी है। देश के लिए विकसित हो रही नई शिक्षा नीति में भी वैकल्पिक स्कूली शिक्षा को समर्थ बनाने की बात कही गई है। जरूरी है कि इस तरह के वैकल्पिक स्कूल से उन तत्वों को ग्रहण किया जाय जिनसे शिक्षा की मुख्यधारा को उस कैद से आजाद किया जाय जिनके चलते सीखने की जगह परीक्षा और कौशल की जगह प्राप्तांक को तरजीह मिलाती है।
(लेखक महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विवि, वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)
©2024 Agnibaan , All Rights Reserved