नई दिल्ली। यदि कोई व्यक्ति केवल आरक्षण लाभ (Reservation benefits) प्राप्त करने के लिए बिना किसी आस्था के धर्म परिवर्तन (Religion change) करता है तो यह आरक्षण की नीति (Reservation policy) की सामाजिक भावना के खिलाफ होगा। यह निर्णय मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने दिया है। कोर्ट ने मद्रास हाई कोर्ट (Madras High Court) के आदेश को बरकरार रखते हुए एक महिला को अनुसूचित जाति (SC) प्रमाण पत्र देने से इनकार कर दिया। महिला ने यह प्रमाण पत्र एक उच्च श्रेणी के लिपिक पद की नौकरी पाने के लिए पुदुचेरी में प्राप्त करने के उद्देश्य से मांगा था। उसने दावा किया था कि वह हिंदू धर्म अपनाकर अनुसूचित जाति में शामिल हो चुकी है।
जस्टिस पंकज मिथल और आर महादेवन की पीठ ने इस मामले पर सुनवाई की। उन्होंने अपने फैसले में कहा, “इस मामले में प्रस्तुत साक्ष्य से यह स्पष्ट होता है कि अपीलकर्ता ईसाई धर्म का पालन करती हैं और नियमित रूप से चर्च जाती हैं। इसके बावजूद, वह खुद को हिंदू बताती हैं और रोजगार के लिए अनुसूचित जाति प्रमाणपत्र की मांग करती हैं। उनका यह दोहरा दावा अस्वीकार्य है और वह बपतिस्मा लेने के बाद खुद को हिंदू के रूप में पहचान नहीं सकतीं।”
कोर्ट ने आगे कहा, “इसलिए सिर्फ आरक्षण का लाभ लेने के लिए एक ईसाई धर्मावलंबी को अनुसूचित जाति का सामाजिक दर्जा देना संविधान की मूल भावना के खिलाफ होगा और इसे धोखाधड़ी माना जाएगा।”
कोर्ट ने कहा कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है और प्रत्येक नागरिक को संविधान के तहत अपने धर्म को मानने और पालन करने का अधिकार है। जस्टिस महादेवन ने फैसले में लिखा, “यदि धर्म परिवर्तन का उद्देश्य आरक्षण के लाभ प्राप्त करना है, न कि किसी अन्य धर्म में विश्वास, तो इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि ऐसे व्यक्तियों को आरक्षण के लाभ देना समाजिक नीति की भावना के खिलाफ होगा।”
इस मामले में अपीलकर्ता सी. सेलवरानी ने मद्रास हाईकोर्ट के 24 जनवरी, 2023 के आदेश को चुनौती दी थी। उनकी याचिका को खारिज कर दिया गया था। उन्होंने दावा किया था कि वह हिंदू धर्म का पालन करती है और वह वल्लुवन जाति से ताल्लुक रखती है, जो कि अनुसूचित जाति में आती है। महिला ने द्रविड़ कोटा के तहत आरक्षण का लाभ प्राप्त करने का हकदार बताया था।
कोर्ट ने महिला द्वारा प्रस्तुत दस्तावेजों और गवाहियों की समीक्षा की और पाया कि वह एक जन्मजात ईसाई हैं। इसके अलावा, कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि यदि सेलवरानी और उनके परिवार ने वास्तव में हिंदू धर्म अपनाना चाहा था तो उन्हें कुछ ठोस कदम उठाने चाहिए थे। जैसे कि सार्वजनिक रूप से धर्म परिवर्तन की घोषणा करना चाहिए था।
कोर्ट ने अपीलकर्ता के उस तर्क को भी खारिज कर दिया, जिसमें कहा गया था कि उसे बपतिस्मा तब दिया गया था जब वह तीन महीने से कम उम्र की थी। कोर्ट ने कहा कि यह तर्क विश्वसनीय नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यदि परिवार वास्तव में हिंदू धर्म अपनाना चाहता है तो उन्हें इस बारे में कुछ ठोस कदम उठाने चाहिए थे। कोर्ट ने यह भी कहा कि बपतिस्मा, विवाह और चर्च में नियमित रूप से जाने के प्रमाण दिखाते हैं कि वह अभी भी ईसाई धर्म का पालन करती हैं।
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