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सरोजिनी नायडू की स्वतंत्रता आंदोलन में थी अहम भूमिका

February 13, 2024

– योगेश कुमार गोयल

आजादी के राष्ट्रीय आन्दोलन में उल्लेखनीय योगदान देने वाली स्वतंत्रता सेनानियों में ‘नाइटिंगेल ऑफ इंडिया’ तथा ‘भारत कोकिला’ के नाम से विख्यात प्रख्यात कवयित्री और देश के सर्वोत्तम राष्ट्रीय नेताओं में से एक सरोजिनी नायडू का नाम सदैव आदर के साथ स्मरण किया जाता है। उनके नाम का जिक्र होते ही एक ऐसी महिला की छवि उभरकर सामने आती है, जिन्हें कई भाषाओं में महारत हासिल थी और जिनकी लिखी कविताएं हर ओर धूम मचाती थी। उन्हीं के सम्मान में उनके जन्मदिवस 13 फरवरी को अब प्रतिवर्ष ‘राष्ट्रीय महिला दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। 13 फरवरी 1879 को हैदराबाद में एक बंगाली परिवार में जन्मी सरोजिनी नायडू की 135वीं जयंती के अवसर पर 13 फरवरी 2014 से देश में राष्ट्रीय महिला दिवस मनाने की शुरुआत की गई थी और आज समूचा देश उनकी 145वीं जयंती मना रहा है।


सरोजिनी नायडू के पिता अघोरनाथ चट्टोपाध्याय एक रसायन वैज्ञानिक और निजाम कॉलेज के संस्थापक थे जबकि उनकी माता वरदा सुंदरी बंगाली कवयित्री थी। सरोजिनी के पिता चाहते थे कि उनकी बेटी भी उन्हीं की भांति महान् वैज्ञानिक बने लेकिन सरोजिनी को कविताओं से अगाध प्रेम था, जिसे वह कभी त्याग नहीं सकी। वह बचपन से ही पढ़ाई-लिखाई में बहुत तेज थी और उन्होंने केवल 12 वर्ष की आयु में ही मद्रास यूनिवर्सिटी से मैट्रिक की परीक्षा में शीर्ष स्थान हासिल किया था तथा केवल 13 वर्ष की आयु में ही 1300 पदों की ‘लेडी ऑफ द लेक‘ नामक पहली लंबी कविता और करीब 2000 पंक्तियों का अपना पहला विस्तृत नाटक लिखकर अंग्रेजी तथा अन्य भाषाओं पर अपनी पकड़ का परिचय दिया था। पढ़ाई के साथ-साथ वह कविताएं भी लिखती थी और उनका पहला कविता संग्रह ‘द गोल्डन थ्रैशहोल्ड’ 1905 में प्रकाशित हुआ, जो आज भी पाठकों के बीच बेहद लोकप्रिय है। अत्यंत मधुर स्वर में अपनी कविताओं का पाठ करने के कारण उन्हें ‘भारत कोकिला’ कहा जाता था। उन्हें ‘शब्दों की जादूगरनी’ के नाम से भी जाना जाता था। 14 वर्ष की उम्र में ही उन्होंने लगभग सभी प्रमुख अंग्रेजी कवियों की रचनाओं का अध्ययन कर लिया था।

मेधावी होने के कारण 1895 में हैदराबाद के निजाम ने उन्हें ज्यादा से ज्यादा ज्ञान अर्जित करने के लिए वजीफे पर इंग्लैंड भेजा और इस प्रकार केवल 16 साल की उम्र में ही वह उच्च शिक्षा के लिए लंदन चली गई। पहले लंदन के किंग्स कॉलेज और उसके बाद कैम्ब्रिज के गिरटन कॉलेज में उन्हें अध्ययन करने का अवसर मिला। इंग्लैंड का मौसम अनुकूल नहीं होने के कारण वह 1898 में ही इंग्लैंड से स्वदेश लौट आई। जब वह इंग्लैंड से लौटी, तब फौजी डॉक्टर डा. गोविन्दराजुलु नायडू के साथ विवाह करने को उत्सुक थी, जिन्होंने तीन साल पहले उनके समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा था। हालांकि शुरू में सरोजिनी के पिता इस शादी के खिलाफ थे लेकिन बाद में 19 साल की उम्र में उनकी शादी डा. गोविन्दराजुलु के साथ हो गई।

1914 में जब सरोजिनी नायडू पहली बार राष्ट्रपिता महात्मा गांधी से मिली, तभी उनके विचारों से प्रभावित होकर वह वतन के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर करने को तत्पर हो गई और अपना जीवन देशसेवा में समर्पित कर दिया। 1915 से 1918 तक उन्होंने भारत के स्वतंत्रता आंदोलनों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। आजादी की लड़ाई में संकटों का डटकर मुकाबला करते हुए वह एक वीरांगना की भांति गांव-गांव, गली-गली घूमकर देश-प्रेम की अलख जगाकर देशवासियों को उनके कर्त्तव्य की याद दिलाती रही। उन्होंने न केवल गांधीजी के अनेक सत्याग्रह आन्दोलनों में हिस्सा लिया और जीवन-पर्यन्त उनके विचारों तथा मार्ग का अनुसरण किया बल्कि ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के तहत जेल भी गई थी। दांडी मार्च के दौरान गांधीजी के साथ अग्रिम पंक्ति में चलने वालों में वह भी शामिल थी। उनके विनोदी स्वभाव के कारण उन्हें ‘गांधीजी के लघु दरबार में विदूषक’ भी कहा जाता था।

महात्मा गांधी के अलावा सरोजिनी नायडू गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर, गोपाल कृष्ण गोखले, एनी बेसेंट तथा पं. जवाहरलाल नेहरू के साथ भी विशेष रूप से जुड़ी रही। गोपाल कृष्ण गोखले को तो वह अपना राजनीतिक पिता मानती थी। गांधीजी तो अपने पत्रों में सरोजिनी नायडू को कभी ‘डियर बुलबुल’ तो कभी ‘डियर मीराबाई’ और कभी-कभी मजाक में ‘अम्माजान’ या ‘मदर’ भी लिखते थे, वहीं सरोजिनी भी गांधीजी को मजाकिया अंदाज में कभी ‘जुलाहा’ तो कभी ‘लिटिल मैन’ और कभी ‘मिकी माउस’ कहा करती थी। गांधीजी ने 8 अगस्त 1932 को सरोजिनी नायडू को लिखे एक पत्र में उन्हें ‘बुलबुल’ नाम से सम्बोधित किया था और उसी पत्र में उन्होंने स्वयं के लिए ‘लिटिल मैन’ शब्द इस्तेमाल किया था। सरोजिनी कांग्रेस की पहली महिला अध्यक्ष भी बनी। वह 1925 में कानपुर में हुए कांग्रेस अधिवेशन की अध्यक्ष बनी और 1932 में भारत की प्रतिनिधि बनकर दक्षिण अफ्रीका भी गई। अंग्रेजी भाषा पर सरोजिनी की बहुत मजबूत पकड़ थी, लंदन की सभा में अंग्रेजी में बोलकर उन्होंने वहां उपस्थित सभी श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया था। बहुभाषाविद सरोजनी नायडू अपना भाषण क्षेत्रानुसार अंग्रेजी, हिन्दी, बांग्ला अथवा गुजराती भाषा में देती थी। गांधीजी ने मधुर आवाज और उनके भाषणों से प्रभावित होकर ही उन्हें ‘भारत कोकिला’ की उपाधि दी थी।

देश की आजादी के बाद सरोजिनी नायडू भारत की पहली महिला राज्यपाल बनी लेकिन यह पद स्वीकार करते समय उन्होंने कहा था कि वह स्वयं को ‘कैद कर दिए गए जंगल के पक्षी‘ की भांति अनुभव कर रही हैं किन्तु वह पं. जवाहरलाल नेहरू का बहुत सम्मान करती थी, इसलिए उनकी इच्छा को टाल नहीं सकी। उन्होंने महिलाओं के अधिकारों के लिए काफी संघर्ष किया और समाज में फैली कुरीतियों के प्रति महिलाओं को जागृत किया तथा भारतीय समाज में जातिवाद, लिंग-भेद को मिटाने के लिए भी उल्लेखनीय कार्य किए। भारत में प्लेग महामारी के दौरान किए गए सराहनीय कार्यों के लिए उन्हें 1908 में ब्रिटिश सरकार द्वारा ‘केसर-ए-हिंद’ से सम्मानित किया गया था लेकिन जलियांवाला बाग हत्याकांड से क्षुब्ध होकर उन्होंने यह सम्मान वापस कर दिया था। 2 मार्च 1949 को हृदयाघात के कारण लखनऊ में अपने कार्यालय में कार्य करने के दौरान उनका निधन हो गया। सरोजिनी नायडू का निधन 2 मार्च 1949 में हुआ था। भारत सरकार द्वारा उनकी जयंती के अवसर पर उनके सम्मान में 13 फरवरी 1964 को 15 पैसे का एक डाक टिकट जारी किया गया था।

(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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