– योगेश कुमार गोयल
आजादी के राष्ट्रीय आन्दोलन में उल्लेखनीय योगदान करने वाले स्वतंत्रता सेनानियों में ‘नाइटिंगेल ऑफ इंडिया’ तथा ‘भारत कोकिला’ के नाम से विख्यात कवयित्री और देश के सर्वोत्तम राष्ट्रीय नेताओं में से एक सरोजिनी नायडू का नाम सदैव आदर के साथ स्मरण किया जाता है। उन्हीं के सम्मान में प्रतिवर्ष 13 फरवरी को अब उनका जन्मदिवस ‘राष्ट्रीय महिला दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। हैदराबाद में एक बंगाली परिवार में 13 फरवरी 1879 को जन्मी सरोजिनी नायडू की 135वीं जयंती के अवसर पर 13 फरवरी 2014 से देश में राष्ट्रीय महिला दिवस मनाने की शुरुआत की गई थी। आज समूचा देश उनकी 143वीं जयंती मना रहा है। उनके पिता अघोरनाथ चट्टोपाध्याय एक रसायन वैज्ञानिक और निजाम कॉलेज के संस्थापक थे, जबकि उनकी माता वरदा सुंदरी बंग्ला की कवयित्री थी। सरोजिनी के पिता चाहते थे कि उनकी बेटी भी उन्हीं की भांति वैज्ञानिक बने लेकिन सरोजिनी को कविताओं से अगाध प्रेम था, जिसे वह कभी त्याग नहीं सकीं। वह बचपन से ही पढ़ाई-लिखाई में बहुत तेज थीं और उन्होंने केवल 12 वर्ष की आयु में ही मद्रास यूनिवर्सिटी से मैट्रिक की परीक्षा में शीर्ष स्थान हासिल किया था। पढ़ाई के साथ-साथ वह कविताएं भी लिखती थीं और उनका पहला कविता संग्रह ‘द गोल्डन थ्रैशहोल्ड’ 1905 में प्रकाशित हुआ, जो आज भी पाठकों के बीच बेहद लोकप्रिय है।
सुंदर कविताओं, मधुर वाणी तथा प्रभावशाली भाषणों के ही कारण सरोजिनी नायडू को ‘भारत कोकिला’ तथा ‘भारत की बुलबुल’ जैसे नामों से भी जाना जाता है। 14 वर्ष की उम्र में ही उन्होंने लगभग सभी प्रमुख अंग्रेजी कवियों की रचनाओं का अध्ययन कर लिया था। साहित्य के क्षेत्र में उनका योगदान अद्धितीय है और उनके साहित्यिक कार्यों को विश्वभर में सराहा जाता है। ‘द गोल्डन थ्रैशहोल्ड’ जहां उनका पहला कविता संग्रह था, वहीं उनके दूसरे तथा तीसरे कविता संग्रह ‘द बर्ड ऑफ टाइम’ तथा ‘द ब्रोकन विंग’ ने तो उन्हें सुप्रसिद्ध कवयित्री बना दिया था। इनके अलावा ‘डेथ एंड द स्प्रिंग’, ‘द गिफ्ट ऑफ इंडिया’, ‘मुहम्मद जिन्ना: अम्बेसडर ऑफ यूनिटी’, ‘द सेप्ट्रेड फ्लूट: सांग्स ऑफ इंडिया’, ‘किताबिस्तान’, ‘द इंडियन वीवर्स’, ‘द क्वींस राइवल’, ‘नीलांबुज’, ‘हैदराबाद के बाज़ारों में’, ‘ट्रैवलर्स सांग’, ‘द रॉयल टम्ब्स ऑफ गोलकोंडा’ इत्यादि उनकी चर्चित साहित्यिक रचनाओं में शामिल हैं। उनकी कुछ कविताओं को स्कूलों-कॉलेजों के पाठ्यक्रम में भी शामिल किया गया है।
1895 में हैदराबाद के निजाम ने उन्हें ज्यादा से ज्यादा ज्ञान अर्जित करने के लिए वजीफे पर इंग्लैंड भेजा और इस प्रकार केवल 16 साल की उम्र में ही वह उच्च शिक्षा के लिए लंदन चली गईं। पहले लंदन के किंग्स कॉलेज और उसके बाद कैम्ब्रिज के गिरटन कॉलेज में उन्हें अध्ययन करने का अवसर मिला। इंग्लैंड का मौसम अनुकूल नहीं होने के कारण वह 1898 में ही इंग्लैंड से स्वदेश लौट आईं। जब वह इंग्लैंड से लौटीं, तब फौजी डॉक्टर डा. गोविन्दराजुलु नायडू के साथ विवाह करने को उत्सुक थीं, जिन्होंने तीन साल पहले उनके समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा था। हालांकि शुरू में सरोजिनी के पिता इस शादी के खिलाफ थे लेकिन बाद में 19 साल की उम्र में उनकी शादी डा. गोविन्दराजुलु के साथ हो गई।
जब सरोजिनी नायडू पहली बार 1914 में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी से मिलीं, तभी उनके विचारों से प्रभावित होकर वतन के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर करने को तत्पर हो गईं और अपना जीवन देशसेवा में समर्पित कर दिया। आजादी की लड़ाई में संकटों का डटकर मुकाबला करते हुए वह एक वीरांगना की भांति गांव-गांव, गली-गली घूमकर देश-प्रेम की अलख जगाकर देशवासियों को उनके कर्त्तव्य की याद दिलाती रहीं। उन्होंने न केवल गांधीजी के अनेक सत्याग्रह आन्दोलनों में हिस्सा लिया और जीवनपर्यन्त उनके विचारों तथा मार्ग का अनुसरण किया, बल्कि ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के तहत जेल भी गईं थीं। दांडी मार्च के दौरान गांधीजी के साथ अग्रिम पंक्ति में चलने वालों में वह भी शामिल थीं। उनके विनोदी स्वभाव के कारण उन्हें ‘गांधीजी के लघु दरबार में विदूषक’ भी कहा जाता था। अंग्रेजी भाषा पर सरोजिनी की बहुत मजबूत पकड़ थी, लंदन की सभा में अंग्रेजी में बोलकर उन्होंने वहां उपस्थित सभी श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया था। बहुभाषाविद सरोजनी नायडू अपना भाषण क्षेत्रानुसार अंग्रेजी, हिन्दी, बांग्ला अथवा गुजराती भाषा में देतीं थीं। गांधीजी ने मधुर आवाज और उनके भाषणों से प्रभावित होकर ही उन्हें ‘भारत कोकिला’ की उपाधि दी थी।
सरोजिनी नायडू कांग्रेस की पहली महिला अध्यक्ष भी बनीं। वह 1925 में कानपुर में हुए कांग्रेस अधिवेशन की अध्यक्ष बनीं और 1932 में भारत की प्रतिनिधि बनकर दक्षिण अफ्रीका भी गईं। देश की आजादी के बाद वह पहली महिला राज्यपाल बनीं। यह पद स्वीकार करते समय उन्होंने कहा था कि वह स्वयं को ‘कैद कर दिए गए जंगल के पक्षी‘ की भांति अनुभव कर रही हैं किन्तु वह पं. जवाहरलाल नेहरू का बहुत सम्मान करती थीं, इसलिए उनकी इच्छा को टाल नहीं सकीं। उन्होंने महिलाओं के अधिकारों के लिए काफी संघर्ष किया और समाज में फैली कुरीतियों के प्रति महिलाओं को जागृत किया तथा भारतीय समाज में जातिवाद, लिंग-भेद को मिटाने के लिए भी उल्लेखनीय कार्य किए। भारत में प्लेग महामारी के दौरान किए गए सराहनीय कार्यों के लिए उन्हें 1908 में ब्रिटिश सरकार की ओर से ‘केसर-ए-हिंद’ से सम्मानित किया गया था लेकिन जलियांवाला बाग हत्याकांड से क्षुब्ध होकर उन्होंने यह सम्मान वापस कर दिया था। दो मार्च 1949 को हृदयाघात के कारण लखनऊ में अपने कार्यालय में कार्य करने के दौरान उनका निधन हो गया।
(लेखक साहित्य एवं पत्रकारिता में सक्रिय रचनाकार हैं।)
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