इंदौर। संजय शुक्ला (Sanjay Shukla) को पता था कि उन्हें एक नंबर विधानसभा सीट (assembly seat)से लडऩा है, लिहाजा वे पांच साल से क्षेत्र में सक्रिय रहे… यह सक्रियता कांग्रेस डेढ़ साल के शासनकाल में ठंडी थी, लेकिन सत्ता परिवर्तन होते ही संजय (Sanjay) ने अपने बूते पर विकास के साथ-साथ क्षेत्र के मतदाताओं को भोजन-भंडारे, कथा और तीर्थ यात्रा के माध्यम से अपना बनाने और लुभाने के प्रयास शुरू कर दिए। अपनी इस सक्रियता से संजय आगामी चुनाव में जीत के लिए इतने आशान्वित और बेफिक्र थे कि कोई भी प्रतिद्वंद्वी मैदान में आ जाए, वे उसे शिकस्त दे देंगे, लेकिन भाजपा ने इस क्षेत्र से तुरूप के इक्के अपने राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय (National General Secretary Kailash Vijayvargiya) को मैदान में उतारकर संजय को जहां स्तब्ध कर दिया, वहीं कुछ दिनों के लिए संजय अज्ञातवास जैसी स्थिति में भी जा पहुंचे। यहां तक कि पहले दो दिनों तक तो वो विजयवर्गीय को इस बात के लिए ताना देते रहे कि उन्होंने चुनाव मैदान में उतरकर अपने दो बेटों यानि आकाश विजयवर्गीय और खुद उनकी बलि चढ़ाने का प्रयास कर डाला। संजय का यह भावनात्मक हमला जहां उनकी विजयवर्गीय से निकटता प्रदर्शित कर रहा था, वहीं चिंता भी जता रहा था। विजयवर्गीय ने भी प्रत्युत्तर में उन्हें अपने परिवार का सदस्य बताकर मर्यादा में रहने का वचन दे डाला। दोनों की इस बयानबाजी से क्षेत्र की जनता असमंजस में हो गई कि दोनों के बीच प्रतिस्पर्धा की बजाय प्रेम प्रदर्शित हो रहा है। ऐसे में उनकी भूमिका विरोध के बजाय किसी एक के समर्थन में प्रतीत होने लगी। हालांकि जैसे-जैसे समय बढ़ा वैसे-वैसे संजय जुबानी तलवार के वार करने लगे और कथा की इजाजत में रोड़े पर उन्होंने भाजपा को जमकर कोसा, लेकिन विजयवर्गीय के नाम पर उन्होंने खामोशी बरती। यहां तक कि एक स्थान पर दोनों प्रत्याशियों का आमना-सामना हुआ तो विजयवर्गीय ने उन्हें गले लगा लिया। दोनों के बीच का यह प्रसंग इस बात की तो ग्यारंटी दे चुका है कि क्षेत्र में चुनाव में मतभेद तो दूर मनभेद भी नजर नहीं आएगा। विजयवर्गीय, जहां अपने विकास के प्रमाणित व्यक्तित्व को चुनाव का आधार बना रहे हैं तो संजय शुक्ला स्वयं को क्षेत्र का बेटा कहकर भावनात्मक रूप से लुभा रहे हैं।
विजयवर्गीय जहां संजय शुक्ला के पिता पं. विष्णुप्रसाद शुक्ला को अपनी पार्टी का स्तंभ में मानते हैं और घर जाकर उनके चित्र पर माल्यार्पण कर आते हैं, वहीं संजय यह समझ नहीं पाते हैं कि विजयवर्गीय की इस राजनीति का क्या जवाब दें। संजय शुक्ला की मुसीबत यह है कि वो विजयवर्गीय पर न तो व्यक्तिगत प्रहार कर सकते हैं, न सार्वजनिक तोहमतें लगा सकते हैं, क्योंकि भले ही विजयवर्गीय प्रतिद्वंद्वी पार्टी का प्रतिनिधित्व करते हों, लेकिन संजय ने उन्हें ही अपना आदर्श मानकर अपनी विधानसभा में वर्चस्व बनाने के लिए सारे प्रयास करते हुए उनकी ही शैली में कथा, भजन, भंडारे और तीर्थ यात्राओं के माध्यम से घर-घर मेंं घुसपैठ की, लेकिन अब हालात यह है कि चेले को गुरु से टकराना पड़ेगा… हालांकि संजय फिर भी आश्वस्त हैं कि क्षेत्र की जनता उन्हें चुनेगी। अपने इस तथ्य को प्रमाणिक करने के लिए संजय अटलजी जैसे दिग्गज की भी हार का उदाहरण देते हैं। इस रण का परिणाम चाहे जो हो, लेकिन एक बात तय है कि इस क्षेत्र के चुनाव जितने रोचक होंगे, उतने ही मर्यादापूर्ण रहेंगे। विजयवर्गीय यहां संजय से नहीं, बल्कि कांग्रेस से मुकाबले का दावा कर रहे हैं तो संजय भी विजयवर्गीय से नहीं, बल्कि भाजपा की तानाशाही से लडऩे और जीतने की कोशिश कर रहे हैं।
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