– प्रवीण गुगनानी
विश्व के प्रसिद्ध कूटनीतिज्ञ, राजनयिक व ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने कहा था कि ‘यदि अपने देश की दीर्घकालिक समस्याओं को सुलझाना है तो, इतिहास पढ़िए, इतिहास पढ़िए, इतिहास पढ़िए; इतिहास में ही राज्य चलाने के सारे रहस्य छिपे हैं।’ भारत के संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि यदि देश चलाना है, सुशासन करना है तो देश में जनसंख्या असंतुलन का इतिहास पढ़ो। हमें भारत की सबसे बड़ी व संवेदनशील समस्या जनसंख्या असंतुलन को समझना है तो हमें इतिहास अवश्य पढ़ना होगा- विशेषतः भारत में तुष्टिकरण का इतिहास।
यदि हम भारत में जनसंख्या की चर्चा करें तो जनसंख्या असंतुलन की चर्चा आवश्यक हो जाती है और जनसंख्या असंतुलन की चर्चा करें तो भारतीय राजनीति के सबसे घृणित शब्द तुष्टिकरण की चर्चा आवश्यक हो जाती है। यहां आवश्यक हो जाता है कि हम इस तुष्टिकरण शब्द को भली-भांति समझ लें। तुष्टिकरण के विषय में बाबा साहेब अंबेडकर ने कहा था कि ‘कुछ वर्ग मौके का फायदा लेकर अपने स्वार्थ के लिए अवैधानिक मार्ग अपनाते हैं। शासन इस संबंध में उनकी सहायता करता है, इसे ही अल्पसंख्यक तुष्टिकरण कहते हैं।’ बाबासाहेब अंबेडकर तुष्टिकरण को सदैव राष्ट्र विरोधी मानते थे। कांग्रेस जनित यह एक शब्द ‘तुष्टिकरण’ ही वह एकमात्र नीति है जिसके कारण देश में जनसंख्या असंतुलन की विकट समस्या उत्पन्न हुई है। इसबार विजयादशमी उत्सव पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघचालक जी ने जो कहा उसका एक प्रमुख बिंदु देश में बढ़ता जनसंख्या असंतुलन है।
शीघ्र ही एक दशक होने जा रहा है विश्व को आरएसएस से मिलने वाले विजयादशमी उद्बोधन या पाथेय को सुनते हुए। ये बात सत्य है कि सामान्यतः इतनी उत्सुकता किसी राष्ट्र प्रमुख से किसी सनसनी भरे समाचार के प्रति रहती है जितनी की संघ प्रमुख के संभाषण के प्रति रहती है। किंतु, यह बात भी सत्य है कि तमाम प्रतीक्षा, उत्सुकताओं व उत्कंठाओं के होने के बाद भी संघ प्रमुख कोई सनसनी उत्पन्न करने लायक या ब्रेकिंग न्यूज बनने वाली बात तो नहीं ही कहते हैं। विगत छियानवे वर्षों में किसी भी सरसंघचालक ने कभी भी कोई ब्रेकिंग न्यूज वाली बात कभी भी नहीं की, फिर भी उनके भाषणों विशेषतः विजयादशमी भाषण के प्रति समूचे समाज की आदरपूर्ण उत्सुकता बताती है कि आरएसएस का समाज में आज क्या और कैसा स्थान है। ऐसा लगता है कि संघ अपने एक मुख से बात कहता है किंतु सत्य यही है कि संघ वही बात अपने मुख से कहता है जिसे इस राष्ट्र के शताधिक करोड़ नागरिक कहना चाहते हैं व अपने हृदय में मथ रहे होते हैं। इस उद्बोधन की विषय वस्तु वही रहती है जो राजा, रंक, व्यावसायी, शिक्षक, किसान, चिकित्सक, समाजशास्त्री, अर्थशास्त्री, धर्मशास्त्री, विद्यार्थी, कानूनविद, पर्यावरणविद आदि अपने मानस में विचारते रहते हैं।
इस वर्ष के अपने उद्बोधन में मोहनराव जी भागवत ने भारत में जनसंख्या असंतुलन के प्रति अपनी चिंताओं को मुखर रूप से रखा है। विभिन्न समुदायों में जनसंख्या वृद्धि दर में भारी अन्तर, अनवरत विदेशी घुसपैठ व मतांतरण के कारण देश की समग्र जनसंख्या विशेषकर सीमावर्ती क्षेत्रों की जनसंख्या के अनुपात में बढ़ रहा असंतुलन देश की एकता, अखंडता व सांस्कृतिक पहचान के लिए गंभीर संकट का कारण बन सकता है, यह कहते हुए संघ ने अपनी चिंता को देश के समक्ष प्रकट किया है। 1951 से 2011 के बीच जनसंख्या वृद्धि दर में भारी अंतर के कारण देश की जनसंख्या में जहाँ भारत में उत्पन्न मतपंथों के अनुयाइयों का अनुपात 88 प्रतिशत से घटकर 83.8 प्रतिशत रह गया है, वहीं मुस्लिम जनसंख्या का अनुपात 9.8 प्रतिशत से बढ़कर 14.23 प्रतिशत हो गया है।
भागवत जी ने संघ की अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल की ओर से सरकार से स्पष्ट आग्रह किया कि देश में उपलब्ध संसाधनों, भविष्य की आवश्यकताओं एवं जनसांख्यिकीय असंतुलन की समस्या को ध्यान में रखते हुए देश की जनसंख्या नीति का पुनर्निर्धारण कर उसे सब पर समान रूप से लागू किया जाए। सीमा पार से हो रही अवैध घुसपैठ पर पूर्ण रूप से अंकुश लगाया जाए। राष्ट्रीय नागरिक पंजिका (National Register of Citizens) का निर्माण कर इन घुसपैठियों को नागरिकता के अधिकारों तथा भूमि खरीद के अधिकार से वंचित किया जाए। इसके अतिरिक्त, देश के सीमावर्ती प्रदेशों तथा असम, पश्चिम बंगाल व बिहार के सीमावर्ती जिलों में तो मुस्लिम जनसंख्या की वृद्धि दर राष्ट्रीय औसत से कहीं अधिक है, जो स्पष्ट रूप से बंगलादेश से अनवरत घुसपैठ का संकेत देता है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त उपमन्यु हजारिका आयोग के प्रतिवेदन एवं समय-समय पर आये न्यायिक निर्णयों में भी इन तथ्यों की पुष्टि की गयी है। यह भी एक सत्य है कि अवैध घुसपैठिये राज्य के नागरिकों के अधिकार हड़प रहे हैं तथा इन राज्यों के सीमित संसाधनों पर भारी बोझ बन सामाजिक-सांस्कृतिक, राजनैतिक तथा आर्थिक तनाव का कारण बन रहे हैं।
पूर्वोत्तर के राज्यों में तीव्रता से उपजाया जा रहा जनसांख्यिकीय असंतुलन तो और भी गंभीर रूप ले चुका है। अरुणाचल प्रदेश में भारत में उत्पन्न मत-पंथों को मानने वाले जहाँ 1951 में 99.21 प्रतिशत थे, वे 2001 में 81.3 प्रतिशत व 2011 में 67 प्रतिशत रह गये हैं। केवल एक दशक में ही अरुणाचल प्रदेश में ईसाई जनसंख्या में 13 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इसी प्रकार मणिपुर की जनसंख्या में इनका अनुपात 1951 में जहाँ 80 प्रतिशत से अधिक था, वह 2011 की जनगणना में 50 प्रतिशत ही रह गया है।
उपरोक्त उदाहरण तथा देश के अनेक जिलों में ईसाईयों की अस्वाभाविक वृद्धि दर कुछ स्वार्थी तत्वों द्वारा एक संगठित एवं लक्ष्यबद्ध मतांतरण की गतिविधि का ही संकेत देती है। प्रबोधन में आग्रह किया गया है कि संघ का अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल सभी स्वयंसेवकों सहित देशवासियों का आह्वान करता है कि वे अपना राष्ट्रीय कर्तव्य मानकर जनसंख्या में असंतुलन उत्पन्न कर रहे सभी कारणों की पहचान करते हुए जन-जागरण द्वारा देश को जनसांख्यिकीय असंतुलन से बचाने के सभी विधि सम्मत प्रयास करें।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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