नई दिल्ली । जैसे-जैसे कांग्रेस (Congress) की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ आगे बढ़ रही है, वैसे-वैसे राहुल गांधी (Rahul Gandhi) की दाढ़ी (beard) भी बढ़ती जा रही है. राहुल गांधी की इसी बढ़ती दाढ़ी पर अब सियासत भी शुरू हो गई है. इस सियासत के केंद्र में हैं इराक के पूर्व तानाशाह सद्दाम हुसैन (Saddam Hussein). दरअसल असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा (Himanta Biswa Sarma) ने राहुल के नए लुक को सद्दाम हुसैन जैसा बताया है. कांग्रेस ने इसपर तीखा जवाब भी दिया है लेकिन इस सियासी आरोप-प्रत्यारोप के बीच ये जानना जरूरी है कि आखिर सद्दाम हुसैन थे कौन.
दो दशकों तक इराक के राष्ट्रपति रहे सद्दाम हुसैन को दुनिया ‘तानाशाह’ कहकर बुलाती है. ऐसा तानाशाह जिसने जमकर कत्लेआम मचाया. आज से 16 साल पहले सद्दाम हुसैन को अमेरिका ने फांसी पर लटका दिया था.
सद्दाम हुसैन का जन्म अप्रैल 1937 में बगदाद के उत्तर में स्थित तिकरित गांव में हुआ था. वे जब 20 साल के थे, तब उन्होंने बाथ पार्टी की सदस्यता ले ली. 1920 से 1932 तक ब्रिटेन ने इराक पर शासन किया. और उसके बाद भी यहां जो राजशाही थी, उसे ब्रिटेन का समर्थन था. इराक में पश्चिमी सभ्यता को लेकर जबरदस्त गुस्सा था. आखिरकार ये गुस्सा फूटा और 1962 में ब्रिगेडियर अब्दुल करीम कासिम ने राजशाही को हटाकर सत्ता अपने कब्जे में कर ली.
कुछ ही महीनों बाद ब्रिगेडियर कासिम को मारने की नाकाम कोशिश हुई. इसमें सद्दाम हुसैन भी शामिल थे. उन्हें भागकर मिस्र जाना पड़ा. आखिरकार 1963 में बाथ पार्टी ने सत्ता हासिल कर ली. हालांकि, कासिम के करीबी ने बाथ पार्टी को सत्ता से हटा दिया और सद्दाम हुसैन को जेल में डाल दिया.
1966 में सद्दाम हुसैन जेल से भाग निकले. दो साल बाद 1968 में फिर विद्रोह हुआ और इस बार सद्दाम हुसैन ने जनरल अहमद हसन अल बक्र के साथ मिलकर सत्ता हथिया ली. धीरे-धीरे सरकार में सद्दाम हुसैन की पकड़ मजबूत होती चली गई और उन्होंने कई ऐसे फैसले लिए जिन्होंने पश्चिमी देशों की टेंशन बढ़ा दी.
1978 में इराक में नया कानून बना और इसका मतलब था कि अगर आपने विपक्षी दलों की सदस्यता ली तो आपको मार दिया जाएगा. 1979 में अल बक्र ने इस्तीफा दे दिया और सद्दाम हुसैन राष्ट्रपति बन गए. कहा जाता है कि सद्दाम हुसैन ने अल बक्र को इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया था.
इराक-ईरान युद्ध और 148 लोगों की हत्या
इराक अरब देशों में प्रभावशाली होता जा रहा था. ये 1980 का समय था और पड़ोसी ईरान में इस्लामिक क्रांति शुरू हो गई थी. इस क्रांति को कमजोर करने के लिए इराक ने पश्चिमी ईरान में सेना उतार दी और शुरू हुआ इराक-ईरान युद्ध.
इसी बीच जुलाई 1982 में सद्दाम हुसैन पर एक आत्मघाती हमला हुआ. इसमें सद्दाम हुसैन बच तो गए, लेकिन इसके बाद उन्होंने कत्लेआम मचा दिया. सद्दाम हुसैन ने शिया बहुल दुजैल गांव में 148 लोगों की हत्या करवा दी.
ईरान के साथ इराक ने 8 साल तक युद्ध लड़ा. इस युद्ध में लाखों लोगों की जान गई. 1988 में दोनों देशों के बीच युद्ध विराम हुआ.
फिर शुरू हुआ खाड़ी युद्ध
आठ साल तक युद्ध ने ईरान और इराक की अर्थव्यवस्था चौपट कर दी. जुलाई 1990 में सद्दाम हुसैन ने आरोप लगाया कि कुवैत और संयुक्त अरब अमीरात तय कोटे से ज्यादा तेल का उत्पादन कर रहे हैं, जिससे अंतरराष्ट्रीय बाजार में कीमत कम हो रही है और इराक को नुकसान हो रहा है. सद्दाम हुसैन ने धमकी दी कि अगर उत्पादन कम नहीं होता है तो फिर कोई विकल्प नहीं होगा.
2 अगस्त 1990 को कुवैत पर कब्जे के लिए इराकी सेना चल पड़ी. मात्र 6 घंटे में ही इराकी सेना ने कुवैत पर कब्जा कर लिया. अमेरिका ने इराक को तुरंत कुवैत खाली करने को कहा. लेकिन सद्दाम हुसैन ने कुवैत को इराक का 19वां प्रांत घोषित कर दिया.
पहले ईरान और फिर कुवैत पर जीत ने सद्दाम हुसैन का मनोबल बढ़ा दिया. अगले ही दिन यानी 3 अगस्त को इराक ने सऊदी अरब की सीमा पर अपनी सेना तैनात कर दी. इराकी सेना को कुवैत से निकालने के लिए अमेरिका की अगुआई में 28 देशों का गठबंधन बना.
कुवैत की मुक्ति के लिए जनवरी 1991 को इराक के खिलाफ जंग शुरू हुई. इराकी सेना पर जमकर बमबारी की गई. जमीन पर भी युद्ध लड़ा गया. आखिरकार इराकी सेना हार गई और कुवैत को छुड़ा लिया गया.
ऑपरेशन इराकी फ्रीडम
कुवैत पर कब्जा करने पर इराक पर कई तरह के प्रतिबंध लगा दिए गए. इससे उसकी अर्थव्यवस्था और चौपट होने लगी. साल 2000 में अमेरिका में जॉर्ज बुश की सरकार बन गई. उन्होंने सद्दाम हुसैन पर दबाव और बढ़ा दिया.
अमेरिका और अंतरराष्ट्रीय समुदाय इराक को बड़ा ‘खतरा’ बताने लगे. इसके बाद अमेरिका इराक में सत्ता परिवर्तन की बात कहने लगा. 2002 में संयुक्त राष्ट्र की टीम ने इराक का दौरा भी किया. इस दौरान इराक ने कई खतरनाक मिसाइलों को खत्म भी किया, लेकिन बुश की टेंशन कम नहीं हुई.
2003 में 19 मार्च को इराक पर अमेरिका ने हमला कर दिया. अमेरिकी सेना इराक की राजधानी बगदाद की ओर तेजी से बढ़ने लगी. 9 अप्रैल 2003 को सद्दाम हुसैन की सरकार को गिरा दिया गया. लेकिन सद्दाम हुसैन तब भी पकड़ में नहीं आए.
13 दिसंबर 2003 को सद्दाम हुसैन को अमेरिकी सैनिकों ने पकड़ लिया. वो तिकरित में एक घर में छिपे थे. इसके बाद उन पर कई मुकदमे चले. दुजैल नरसंहार (148 लोगों की हत्या) के मामले में सद्दाम हुसैन को 5 नवंबर 2006 को मौत की सजा सुनाई गई. 30 दिसंबर 2006 को सद्दाम हुसैन को बगदाद में फांसी पर लटका दिया गया.
जाते-जाते… जब कुर्दिश लोगों का हुआ था कत्लेआम
सद्दाम हुसैन की कहानी हेलबजा नरसंहार का जिक्र किए बिना अधूरी है. ईरान-इराक युद्ध के दौरान ही ये नरसंहार हुआ था. हेलबजा इराकी शहर था जिसकी सीमा ईरान से सटी हुई थी. यहां कुर्द लोग रहते थे. सद्दाम हुसैन को इनसे नफरत थी.
मार्च 1988 से ही हेलबजा में इराकी सेना तबाही मचाने लगी थी. इसी दौरान हेलबजा शहर पर केमिकल अटैक हुआ. इस हमले में लोग बच न जाएं, इसलिए दो दिन पहले से इराकी सेना ने इतने बम बरसाए कि लोगों के घरों के खिड़की-दरवाजे टूट जाएं. उनके पास ऐसा कुछ न बचे जिसकी आड़ में वो अपनी जान बचा सकें. ये केमिकल हमला इतना खतरनाक था कि ये शहर लाशों का शहर बन गया. और जो बच गए वो बीमारियों की फैक्ट्री बन गए.
केमिकल अटैक के लिए हेलबजा चुनने की दो वजहें थीं. पहली ये कि यहां कुर्द लोग रहते थे, दूसरी वजह ये कि जब ईरानी सेना इराक में घुसी तो हेलबजा के कुर्दों ने उनका स्वागत किया. केमिकल अटैक कर सद्दाम हुसैन को ये बताना था कि बगावत का अंजाम क्या होता है.
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