– हृदयनारायण दीक्षित
भारत में ज्ञान सर्वोपरि उपलब्धि है। भारतीय ज्ञान परम्परा में प्रकृति के सभी प्रत्यक्ष रूपों की जिज्ञासा थी। ज्ञान ही परम सत्ता के वास्तविक दर्शन का उपक्रम भी था। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के अध्यक्ष एस. सोमनाथ ने ज्ञान को सर्वोपरि बताया है। वे उज्जैन में महर्षि पाणिनि संस्कृत एवं वैदिक विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में बोल रहे थे। उन्होंने कहा, ‘भारत वैदिक काल से ही ज्ञानी समाज था। इसमें संस्कृत भाषा की विशेष भूमिका रही है। गणित, दर्शन विज्ञान, प्रौद्योगिकी, चिकित्सा, तत्व ज्ञान, खगोल, तर्क, व्याकरण, आदि विषय अतिमहत्वपूर्ण हैं। इन विषयों पर संस्कृत में विपुल लेखन हुआ है।’ उन्होंने कहा कि, ‘संस्कृत दुनिया की प्राचीन भाषा है। इसमें अंतरराष्ट्रीय स्तर का काव्य रचा गया है।
ऋग्वेद का रचनाकाल लगभग साढ़े दस हजार वर्ष प्राचीन है। वैदिक काल में ज्ञान की परिभाषा भी की गई थी। ऋग्वेद (10.71) में ऋषि आंगिरस बृहस्पति हैं। वे ज्ञान के अधिष्ठाता हैं। ब्रह्मज्ञानी हैं। सूक्त के देवता ‘ज्ञान’ हैं। सूक्त में ज्ञान की प्रारंभिक अवस्था का उल्लेख है।’ कहते हैं, ‘प्रारम्भ में पदार्थों के नाम रखे गए। नाम और रूप का परिचय ज्ञान का प्रथम सोपान है। इनका शुद्ध और दोषरहित ज्ञान अनुभूति में छुपा है।’ ऋषि सूप और सत्तू का उदहारण देते हैं। कहते हैं, ‘सूप से सत्तुओं को स्वच्छ करने की तरह मेधावी जन अपनी बुद्धि से भाषा को सुसंस्कृत करते हैं। कुछ लोग प्रकृति के गूढ़ तत्वों को देख कर भी नहीं समझ पाते। कुछ लोग सुनते हैं लेकिन समझ नहीं पाते। जैसे पति के सामने पत्नी अपना रूप नहीं छुपाती उसी प्रकार ज्ञान देवी सुपात्र के सामने अपना रूप खोल देती हैं।’ आगे कहते हैं, ‘किसी-किसी ज्ञानी में शब्द और उनके भावों को ग्रहण करने की क्षमता होती है। उनकी कोई बराबरी नहीं कर सकता। लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं जो भाषा को फल फूल रहित सुनने व अध्ययन तक सीमित मानते हैं।’ ज्ञानी एक समान नहीं होते। सबकी क्षमताएं अलग-अलग होती हैं।
ज्ञान प्राप्ति असाधारण कार्य है। ऋग्वेद के लगभग साढ़े दस हजार मंत्र हैं। अधिकांश मंत्रों में प्रकृति की शक्तियों पर गहन जिज्ञासा है। ऋषि प्रकृति के गोचर प्रपंचों को ध्यान से देखते हैं और प्रकृति की शक्तियों की गतिविधि को भी। वैदिककाल में परिपूर्ण वाकस्वातंत्र्य था। दर्शन चिंतन के लिए यूनान सारी दुनिया में विख्यात रहा है। लेकिन देवों पर ही प्रश्न उठाने के आरोप में सुकरात को प्राणदण्ड दिया गया था। सुकरात पर मुख्य आरोप था कि वे देवताओं के अस्तित्व पर प्रश्न उठाते हैं। वे अपनी तर्क कुशलता के आधार पर संस्कृति के विरुद्ध विचार देते हैं। यह भी कहा जाता था कि सुकरात पृथ्वी के नीचे और ऊपर आकाश आदि के रहस्यों को जानने का प्रयास करते हैं। सुकरात प्रतिभाशाली विद्वान थे। एथेंस नगर की न्यायपीठ में उन पर मुकदमा चलाया गया। न्यायपीठ के 501 सदस्यों के सामने सुकरात ने सफाई दी। 220 न्यायकर्ताओं ने उन्हें निर्दोष माना। 281 ने दोषी पाया। बहुमत से उन्हें प्राण दंड की घोषणा की गई। आश्चर्य है कि विश्व दर्शन की मूल भूमि यूनान में ही दार्शनिक सुकरात को प्राणदण्ड दिया गया।
भारत में वैदिककाल से ही प्रश्न और जिज्ञासा का वातावरण रहा है। ऋग्वेद में वैचारिक विविधता है। यहां वैदिककाल से लेकर उत्तर वैदिककाल, पुराणकाल और महाकाव्यकाल तक विचार अभिव्यक्ति की अगाध स्वतंत्रता रही है। प्रकृति की तमाम शक्तियों को देवता कहा जाता रहा है। देवता भी प्रकृति और समाज के नियमों को मानते हैं। अग्नि प्रकृति की प्रत्यक्ष शक्ति हैं और वैदिक देवता भी। अग्नि की अनुकूलता उपयोगी हैं। ऋषि अग्नि को प्रसन्न करना चाहते हैं। ऋग्वेद के एक मंत्र (1.76.1) में अग्नि से ही प्रार्थना है कि, ‘हम आपको किस मन से प्रसन्न करें?-केन मनसा?’ ये ऋषि अग्नि विज्ञान के खोजी प्रतीत होते हैं। ऋग्वेद में अश्विनी देवता हैं। वे आरोग्यदाता वैध हैं। ऋषि अश्विनीदेवों को प्रसन्न करना चाहते हैं। पूछते हैं कि-‘अज्ञानी लोग आपकी स्तुति कैसे करें?’
ऋग्वेद के देवता हैं मरुद्गण। वे गण समूह में चलते हैं। गणसमूहों के सभी सदस्य समान हैं। सबकी उम्र एक है। वे जल बरसाते हैं। ऋषि इस पूरे प्रपंच को जानना चाहते हैं। मरुद्गणों से प्रश्न करते हैं कि-‘एक समान उम्र वाले मरुद्गण किस शक्ति से जल बरसाते हैं? किस बुद्धि से किस देश में जाते हैं? (1.165.1) वर्षा एक जगह नहीं होती।’ जल वर्षा का वैज्ञानिक रहस्य है। ऋषि वर्षा का पूरा तंत्र जानना चाहते हैं। एक मंत्र में एक साथ तीन प्रश्न हैं। पहला – वर्षा करने की शक्ति क्या है? दूसरा – भिन्न भिन्न क्षेत्रों में जल वर्षा करने की शक्ति क्या है? तीसरा प्रश्न है – देश चयन की बुद्धि क्या है? ऋषि समूचे वर्षा विज्ञान को जान लेना चाहते हैं। आधुनिक विज्ञान वर्षा की पूर्व जानकारी देता है। लेकिन इस ज्ञान परम्परा की शुरुआत ऋग्वेद से होती है। वर्षा के ढेर सारे देवता हैं। इन्द्र हैं, वरुण हैं, मरुद्गण हैं, पर्जन्य हैं। इन्हीं देव नामों की स्तुतियों में वर्षा विज्ञान के आदि तत्व छुपे हुए हैं।
जल से ऋग्वैदिक समाज का प्रेम सर्वविदित है। जल को माता कहा गया है। जल पवित्र करता है। कृषि के लिए उपयोगी है ही। ऋषि जल प्रवाहों का इतिहास जानना चाहते हैं। प्रश्न है-‘लगातार प्रवाहित जलों का आदिप्रवाह कब हुआ था?’ यह प्रश्न पूर्णतया वैज्ञानिक है। ऋषि सभी गतिविधियों का आदिकारण और समय जानने के इच्छुक रहे हैं। सोमनाथ ने ठीक कहा है कि भारत वैदिककाल से ही ज्ञानी समाज था। ऋषि तमाम विषयों पर अपनी जानकारी देते हैं। तमाम विषयों की जानकारी उन्हें नहीं है। वे अपना अज्ञान स्वीकार करते हैं। ऋग्वेद (1.164.1) में कहते हैं कि, ‘मैं इनका उत्तर नहीं जानता।’ एक प्रश्न है, ‘जिसने छहों लोक थाम रखे हैं उस अजन्मा प्रजापति के रूप में वह एक तत्व किस प्रकार का है? मैं यह नहीं जानता। ज्ञानियों से जानने के लिए पूछना चाहता हूं।’
उपनिषदकाल में जिज्ञासा और अध्ययन का वातावरण आश्चर्यजनक है। कठोपनिषद में नचिकेता का प्रश्न है, ‘मृत्यु के बाद क्या होता है?’ केनोपनिषद के प्रश्न सामान्य जीवन से जुड़े हुए हैं। कहते हैं कि, ‘यदि आप मानते हैं कि ब्रह्म के स्वरूप को आप जानते हैं तो वास्तव में आप बहुत कम जानते हैं। विद्वानों ने जो स्वरूप प्रकट किया है वह अनिर्णीत है और मीमांसा के योग्य है।’ वैदिककाल के ज्ञान के प्रति देश के सम्पूर्ण विद्वान लगभग सहमत हैं। लेकिन राजनीतिक कारणों से वैदिक ज्ञान और वैदिक धर्म का मजाक भी उड़ाने वाले कम नहीं। धर्म जगत की व्यवस्था है। इसे वैदिक धर्म भी कहते हैं। उत्तरवैदिककाल में भी शाश्वत धर्म की उपस्थिति है और बाद में भी। वैदिक धर्म, सनातन धर्म और हिन्दू धर्म एक ही हैं। राजनीतिक कारणों से कहा जा रहा है कि यहां कोई धर्म ही नहीं है। सोमनाथ बधाई के पात्र हैं कि प्रतिष्ठित अंतरिक्ष विज्ञानी होकर भी वे अपनी ज्ञान और प्रतिभा के आधार पर भारत के सुदूर अतीत में समझे गए, जाने गए, ज्ञान की चर्चा कर रहे हैं।
(लेखक, उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं।)
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