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    आरजीएचएस: बुढ़ापे में दौड़ मत लगवाइये सीएम साहब..!

  • January 25, 2022

    – कौशल मूंदड़ा

    सरकारी स्कूलों को इंग्लिश मीडियम बनाना और निजी क्षेत्र के चिकित्सा बीमा को चुनौती देते हुए चिरंजीवी योजना लागू करना, राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के ये दो मील के पत्थर ऐसे हैं जो आज जन-जन की जुबान पर हैं। अब तो लोग इनका दायरा लगातार बढ़ाने की उम्मीद लिए बैठे हैं। सरकारी कर्मचारियों को भी राजस्थान गवर्नमेंट हेल्थ स्कीम (आरजीएचएस) से जोड़ते हुए जो सारा सिस्टम ऑनलाइन किया गया है, वह दूरगामी सोच के मद्देनजर सटीक है, लेकिन इस योजना में सेवानिवृत्त कार्मिकों के लिए कुछ तकलीफें भी सामने आने लगी हैं जिनका समाधान जरूरी है और यह संभव भी है, बस सोचने की देर है।

    योजना के शुरुआती दौर की बात करें तो सेवानिवृत्त कार्मिकों को एसएसओ आईडी का पता लगाने के दौड़ लगानी पड़ी, उसके बाद आरजीएचएस पंजीकरण हो गया तो अधिकृत दवा की दुकानों पर लाइन लगानी पड़ी, क्योंकि जो काम फोटोकॉपी से चल रहा था, उसे हाथोंहाथ स्कैनिंग पर स्थानांतरित किया गया, उसमें समय तो लगना ही था। जब सर्वर धीरे होने या बार-बार बंद होने की शिकायतों का दौर बढ़ा तो सहकारी दवाघर वालों ने बरसों से उनके यहां से दवा ले रहे बुजुर्गों की तकलीफ ध्यान में रखते हुए पर्चा अपने पास रखकर कर दवा देना शुरू कर दिया है, पर्चा सर्वर चालू होने पर अपलोड किया जाने लगा है। भले ही निजी क्षेत्र के दवा घरों को भी सरकार ने अनुमति दी है, लेकिन बुजुर्ग वहीं पर ज्यादा जा रहे हैं जहां से वे बरसों से दवा लेते आए हैं। कई कहते भी हैं, जब डॉक्टर नहीं बदल सकते तो दवाघर कैसे बदलें। जहां से लगातार दवा ले रहे हैं उन्हें भी उनकी मेडिकल हिस्ट्री पता रहती है।

    किसी भी योजना के शुरुआती दौर में इस तरह की परेशानियां आती ही हैं, लेकिन असल परेशानी तो अब शुरू हुई है जब सेवानिवृत्त कार्मिकों को मेडिकल डायरी की तर्ज पर अब आरजीएचएस में अपनी दवा के लिए पैसा बढ़वाने के लिए दौड़ लगानी पड़ रही है। कभी यह समस्या सुनने में आती है कि एसएसओ आईडी खुल नहीं रहा, वह अगले दिन खुल जाता है क्योंकि समस्या तकनीकी रूप से सर्वर की होती है, कहीं बुजुर्ग अपना एसएसओ आईडी और पासवर्ड खो चुके हैं, उन्हें भी इधर-उधर की दौड़ लगाने के बाद पता चलता है कि जीपीएफ ऑफिस जाना है। फिर पता चलता है कि पहले 20 हजार रुपये तक की बढ़ोतरी हो जाती थी, अब 6-7 हजार रुपये ही बढ़ रहे हैं। ऑटो टॉपअप की बात कही गई थी, लेकिन उसके क्रियान्वयन का कहीं सूत्र नजर नहीं आ रहा है।

    अब यह अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि जिन बुजुर्ग का गंभीर बीमारियों को लेकर उपचार चल रहा है, उसके लिए कितनी राशि की जरूरत होगी। ऑनलाइन आवेदन नहीं हो पाने की स्थिति में जेब से दवा खरीदना मजबूरी हो चुकी है। आज के समय में इस बात को भी दरकिनार नहीं किया जा सकता कि कई बुजुर्ग दम्पति अकेले नहीं रहते होंगे। ऐसे कई उदाहरण आस-पड़ोस में मिल जाएंगे जिनके बच्चे बाहर नौकरी कर रहे होंगे। इन परिस्थितियों में एक बुजुर्ग चलने की स्थिति में नहीं है तो दूसरे को कितनी तकलीफ देखनी होगी। और कोई बुजुर्ग एकल ही हो तब..? और उससे भी ज्यादा तकलीफ एकल महिला की है जिनके पति नहीं रहे। ऐसे उदाहरण भी हैं जहां सरकारी सेवानिवृत्त बुजुर्ग की पत्नी ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं है, उनकी तकलीफ भी तो समझनी होगी।

    यहां, एक बात और सामने आ रही है कि बड़ी संख्या ऐसे बुजुर्गों की भी है जिनके आधार कार्ड नहीं बन पाए थे, कारण था उनकी हाथों की अंगुलियों का नहीं आना और आधार कार्ड सिस्टम आने से पहले ही आंखों का ऑपरेशन हो चुका होना। न तो फिंगरप्रिंट न ही आईरिस, फिर उनका जनाधार नहीं बना, जब जनाधार नहीं बना तो एसएसओ आईडी नहीं बन सका और नई आरजीएचएस प्रणाली से वे अब भी बाहर हैं। उन्हें मजबूरन जेब से दवा लेनी पड़ रही है। ऐसे बुजुर्गों के लिए सरकार द्वारा विकल्प नहीं सोचा गया और यदि सोचा गया है तो सूचना उस बुजुर्ग तक कैसे पहुंचेगी कि उसे या उसके संभालने वाले को कहां जाकर प्रक्रिया पूरी करनी है। मेडिकल डायरी के समय और पेंशन के जीवित प्रमाण पत्र के लिए बैंक से कार्मिक घर पर बुलाए जा सकते हैं, लेकिन आरजीएचएस में घर पर कौन आएगा, किसे पता है?

    इन सभी तकलीफों से जूझते और छोटी-छोटी राशि बढ़ाने के लिए दौड़ बुढ़ापे में परेशान करने जैसा है। वाकई बुजुर्गों को उनकी सेवाओं और यूं कहें कि सेवाओं के दौरान उनकी ही संचित मेडिकल सुविधा को ससम्मान प्रदान करना है तो एक नई हैल्पलाइन के बारे में भी सोचना होगा। वैसे भी सरकार 181 के जरिये कई सेवाओं को जोड़ चुकी है, बुजुर्गों की इन तकलीफों के लिए भी सरकार कोई नंबर जारी करे जिस पर वे अपनी कठिन परिस्थितियों में मदद मांग सकें।

    इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि ऐसा हेल्पलाइन नंबर आते ही अनर्गल शिकायतों का अम्बार भी आएगा। मसलन, उस दुकानदार ने यह दवा देने से मना किया, उसने एक की जगह दो फोटोकॉपी मांग ली, उसने ठीक व्यवहार नहीं किया, सही जवाब नहीं दिया आदि और भी ऐसी शिकायतें आएंगी, लेकिन धीरे-धीरे बुजुर्ग समझ ही जाएंगे कि जब वाकई ‘भेड़िया’ आएगा तब उनकी मदद को कोई नहीं आएगा।

    ऐसे में सिर्फ दो-तीन महत्वपूर्ण शिकायतों के लिए जरूर उनकी बात सुनी जा सकती है, पहली एसएसओ आईडी नहीं खुलने बाबत, दूसरे ऐसी परिस्थिति में पैसा बढ़ाने के लिए इंतजार से बचने बाबत और तीसरा यदि कोई बुजुर्ग अकेले या असमर्थ हैं तो उसे समीप के अधिकृत सहकारी दवाघर से निर्धारित सेवा शुल्क के साथ अटैच किया जाने पर विचार किया जा सकता है। डिजिटल की दुनिया में असंभव कुछ भी नहीं।

    (लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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