कोई कहानी कोई वाकिआ सुना तो सही
अगर हँसा नहीं सकता मुझे रुला तो सही।
सर पे सफेद झक बाल, चेहरे पे घनी मूंछें…और 69 बरस की उमर में भी ऊंची पूरी मजबूत क़द काठी। देखने मे ये शख्स कभी हिंदी फिल्मों का केरेक्टर आर्टिस्ट तो कभी अपने सीने में कई राज़ छुपाए हुए फिलास्फर नजऱ आता है। जी हां…बात राजकुमार शर्मा की हो रही है। मध्यप्रदेश पुलिस की साढ़े छत्तीस बरस की मुलाज़मत के बाद डीएसपी के ओहदे से ये साल 2014 में सुबुकदोष (रिटायर) हुए। इनका ज़्यादातर सर्विस पीरियड भोपाल में गुजऱा। राजकुमार शर्मा भोपाल के तकरीबन हर अहम थाने के टीआई रहे। गोया के पुलिस महकमे की राई-रत्ती से वाकिफ हैं पंडिज्जी। आपको जानके खुशी होगी कि इनकी लिखी किताब ‘कुछ याद रहा कुछ भूल गयाÓ का इजरा (विमोचन) कल 28 मार्च, ब-रोज मंगल, ब-वक्त शाम 4 बजे, ब-मुक़ाम 100/45 विश्व संवाद केंद्र में हो रहा है। राजकुमार शर्मा का शुमार पुलिस महकमे के निहायत ईमानदार, संजीदा और जज़बाती अफसर के तौर पे किया जाता है। ये जिस थाने में भी रहे वहां इंन्ने अपनी वर्किंग की छाप छोड़ी। एक तरफ जहां पुलिस महकमा अपराधियों को अपराध की गलियों में ही धकेलने के लिए बदनाम है वहां राजकुमार शर्मा ने कई जरायमपेशाओं को माशरे के मरकज़ी धारे (मुख्यधारा) से जोडऩे की कोशिशें कीं। इनकी वजह से कई अपराधियों ने जरायम से तौबा कर ली। ऐसा तभी मुमकिन होता है जब कोई पुलिस अफसर लीक से हटकर सोचता है। उसका रवैया अपराधियों से नफऱत का न होकर उनके रिफॉर्म का हो तभी उसकी महकमे में साफ शफ्फ़़ाफ़ छवि बनती है।
दरअसल बुनियादी तौर पे राजकुमार शर्मा बहुत हस्सास (संवेदनशील) कवि और संजीदा मुसन्निफ़ (लेखक) हैं। ग्वालियर के बाशिंदे राजकुमार शर्मा ने बॉटनी में एमएससी के बाद 1978 में पुलिस की नोकरी ज्वाइन की। लिखने पढऩे के शौक के चलते इन्होंने सेवा में रहते हुए इग्नू से उर्दू का कोर्स और फार्मेसी से डिप्लोमा भी किया। अब हम इनकी लिखी किताब ‘कुछ याद रहा कुछ भूल गया कि तरफ लौटते हैं। इस किताब में पुलिस महकमे में मुलाज़मत के दौरान हुए वो तमाम सच्चे और रोमांचक किस्से हैं जिनको लिखने के लिए भी हिम्मत चाहिए। इन किस्सों को लेखक ने किस्सागोई जैसे दिलचस्प अंदाज़ में भेतरीन तरीके से तरतीबवार पिरोया है। सरल और सहज ज़ुबान में लिखे ये किस्से आप एक बैठक में पढ़ते चले जायेंगे। इस किताब में शर्मा जी ने बहुत बेबाकी के साथ महकमे में सियासी दखल, अपराधियों को पालने पोसने और उनका तहफ्फ़़ुज़ (सरंक्षण) करने वालों के चेहरे उजागर करे हैं। देश भक्ति-जनसेवा का हलफ उठाने वाले पुलिस अफसरान किस तरह अपनी वर्दी और ओहदे का गलत इस्तेमाल करते हैं इसका पूरा खाका पेश करती है इनकी किताब। दरअस्ल लेखक ने अपने सर्विस पीरियड में तकरीबन हर रोज़ अपनी डायरी लिखी। इस डायरी में हर वो किस्सा दर्ज किया गया जो इनकी जज़बाती हस्ती को चोट करता था। अपनी नोकरी में ज़ाती तौर पे घुटन के चलते इन्होंने कई दफे नोकरी से इस्तीफे की पेशकश भी करी। अपनी किताब में राजकुमार शर्मा ने जरायम किस तरह पैदा होता है और जरायम को सींचने वाले सफेदपोश लोगों का प्रतीकात्मक तौर पे जानदार वर्णन किया है। ज़ाहिर है ये किताब पुलिस में आर्गनाइज्ड करप्शन को भी उजागर करती है। वैसे ये किताब लेखक की सवाने-हयात (आत्मकथा) तो नहीं है बाकी इसका लबोलहजा कुछ ऐसा है जैसे ये अपनी जि़ंदगी की दास्तान लिख रहे हों। साढ़े छत्तीस बरस की नोकरी में राजकुमार अपनी यादों के रोशनदान से झांकते हुए पुलिस, अपराधी और हमारे सिस्टम पे बहुत बेबाकी से टिप्पणी कर गए हैं। इस किताब के बारे में डॉ. भगवान स्वरूप चेतन्य, साबिक़ डीजीपी संतोष कुमार राउत और जनसंपर्क महकमे में जॉइंट डायरेक्टर रहे लाजपत आहूजा ने भोत उम्दा लिखा है। ग्वालियर के लोकमंगल पत्रिका प्रकाशन ने इसे शाया किया है। मुबारक हो राजकुमार शर्मा साब। उम्मीद है ये किताब बेस्ट सेलर का तमगा पाएगी।
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