मशहूर शायर कैसरुल जाफरी का शेर है…
तुम्हारे शहर का मौसम बड़ा सुहाना लगे
मैं एक शाम चुरा लूँ अगर बुरा न लगे।
जाफरी साब ने भोपाल में भी कई बरस गुज़ारे हैं। शायद इसी लिए भोपाल की खूबसूरती पे उन्होंने ये शेर लिखा हो। बाकी भाई मियां आप भले लंदन तलक घूमियाओ…जो कुदरती खूबसूरती अल्ला ने भोपाल को बक्शी है उसका जवाब नई हेगा। खासतौर से सावन और भादो की बारिशों में भोपाल और अतराफ़ के इलाके हरियाली से इस क़दर खिल उठते हैं कि इन वादियों से दूर जाने का दिल ही नई करता हे। आज आपको बारिशों में भोपालियों की मौजमस्ती गोया के भोपाल के आसपास के इलाकों में गोट (पिकनिक) की रिवायत के बारे में बताते हैं। ओरिजनल भोपाली बारिशों में गोट करने के बड़े शौकीन होते हैं। नवाबी दौर से लेके सत्तर से नभ्भे की दहाई तक भोपालियों के कने सेकंड वल्र्ड वार की फोर्ड और बावन माडिल की विलीज़ जीपें लपक पाई जाती थीं। ओपन हुड की ये जीपें पीर गेट से लेके इमामी गेट और पारी बाज़ार से लेके अहमदाबाद पैलेस तलक आमद-ओ-रफ्तार करतीं। सावन के इन दिनों में भोपाली अपनी इन कदीमी जीपों में सवार होके भोपाल से भदभदे, चिकलोद, चिडिय़ाटोल, ओबेदुल्लागंज, सलामतपुर के जंगलों में खूब गोट का मज़ा लिया जाता। आज़ादी से पेले के दौर में भाई लोग शिकार भी मार लिया करते। बाकी बाद के सालों में शिकार बहुत कम हो गया लेकिन गोट के सिलसिले जारी रहे। आज भी भोपाल के बाशिंदे सावन-भादो की बारिशों में गोट को निकल जाते हैं। बाकी अब भदभदा और कलियासोत किनारे खुले में गोट कम ही होती है।
पुरानी जीपें सिर्फ शौकीन लोगों के पास बची हैं। लिहाज़ा जीपों की जगह कारों ने ले ली है। पहले जहां सिर्फ मर्द ही पिकनिक पे जाते थे वहां अब नए दौर में किसी दोस्त के फार्म हाउस पे मय अहलोअयाल के जाते हैं। भोपाल में गोट करने की रिवायत सौ बरस से भी ज़्यादा पुरानी है। ये नवाब जनरल ओबेदुल्ला खां का दौर था। तब शिमला हिल की तलहटी में हज़ारों पेड़ों की एक खूबसूरत वादी थी। सावन के दिनों में वहां लोग गोट करने जाते थे। पुराने दौर में उस वादी को सतकुंडा कहा जाता। वहां साफ पानी के कई कुंड थे। इसी लिए उस जगह को सतकुंडे कहा जाता। उन दिनों गोट में शामिल होने के कुछ उसूल थे। मसलन एक ही हैसियत के लोग गोट में शरीक होते। हर बंदा अपने घर से खाना पकवा के लाता। ताश और शतरंज की बाजियां भी होतीं। पचास की दहाई में लोग सतकुंडे पर ही खाना पकाने लगे। वहां बारिश में सिर छुपाने की कोई जगह नहीं थी। लिहाज़ा तेज़ बारिश में जहां खाना खराब हो जाता वहीं लोग भी पानी मे भीग जाते। सन 1924 में जनरल ओबेदुल्ला खां ने वहां एक समरिस्तान बनवा दिया। जिसके शेड और कमरों का इस्तेमाल गोट के लिए किया जाने लगा। जब 1956 में मध्यप्रदेश वजूद में आया तो नवाब के वारिसों ने मय समरिस्तान के सतकुंडे का इलाका सरकार को देकर मुआवज़ा ले लिया। वहां तब से पुलिस की फायरिंग रेंज बनी हुई है। अब न समरिस्तान बाकी है न सतकुंडे की गोट का नामोनिशान। न वो महफिले जो इन बारिशों में वहां सजती थीं। बाकी भोपालियों की पिकनिकें अब आसपास के फार्म हाउसों तक ही सिमट के रह गई हैं।
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