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आरक्षण के भीतर आरक्षण

September 01, 2020

– प्रमोद भार्गव

सर्वोच्च न्यायालय की पांच सदस्यीय पीठ ने नौकरियों एवं शैक्षणिक संस्थानों में अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के आरक्षण (कोटा) संबंधी ईवी चिन्नैया मामले में 2004 के अपने उस फैसले पर पुनर्विचार की जरूरत जताई है, जिसमें कहा गया था कि राज्यों को इन वर्गों के उपवर्गीकरण का अधिकार नहीं है। न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा की पीठ ने कहा है कि उसकी नजर में 2004 का फैसला ठीक से नहीं लिया गया, अतएव राज्य किसी खास जाति को तरजीह देने के लिए एससी एवं एसटी के भीतर जातियों को उपवर्गीकृत करने के लिए कानून बना सकते हैं। पीठ ने पंजाब-हरियाणा उच्च न्यायालय के आदेश के विरुद्ध पंजाब सरकार द्वारा दायर इस मामले को प्रधान न्यायाधीश एसए बोबड़े के पास भेज दिया है। ताकि पूर्व के फैसले पर फिर से विचार करने के लिए वृहद पीठ का गठन किया जा सके।

पंजाब-हरियाणा उच्च न्यायालय ने आरक्षण देने के लिए एससी एवं एसटी को उपवर्गीकृत करने की सरकार को शक्ति देने वाले राज्य के कानून को निरस्त कर दिया था। 2004 में आए इस फैसले में कहा गया था कि पंजाब सरकार के पास इस कोटे को उपवर्गीकृत करने का अधिकार नहीं है। दरअसल राज्यों को यह अधिकार इसलिए मिलना चाहिए, क्योंकि जब उन्हें आरक्षण देने का अधिकार है तो उसे उपवर्गीकृत करने का अधिकार भी मिलना चाहिए? इसका सीधा अर्थ है कि आरक्षण के कोटे के भीतर एससी-एसटी की नई छोटी या पिछड़ी जातियों को खोजकर उनके लिए आरक्षण की व्यवस्था करना। हरियाणा सरकार ने भी ऐसा किया था लेकिन उसके फैसले को हाईकोर्ट ने 2004 के फैसले को आधार बनाकर रद्द कर दिया था।

आरक्षण के कोटे के भीतर नई जातियों को कोटा देने की मांग एससी और एसटी दोनों ही वर्गों में लगातार उठ रही हैं। यह मांग इसलिए तार्किक है क्योंकि आरक्षित वर्गों की समर्थ जातियां और जो लोग आरक्षण का लाभ उठा चुके हैं, उन्हीं परिवारों के दायरे में आरक्षण की सुविधा सिमट कर रह गई है। इन वर्गों की सामाजिक, शैक्षिक एवं आर्थिक रूप से पिछड़ी जातियां आरक्षण के लाभ से पूरी तरह वंचित हैं। यह ऐसी सामाजिक विसंगति बनती जा रही है, जो जातीय स्तर पर असमानता बढ़ाने का काम कर रही है। हालांकि नीतीश कुमार द्वारा बिहार में सामाजिक न्याय बनाम आरक्षण की ऐसी नीति अपनाई गई है, जिसके जरिए पिछड़ों के आरक्षण का 27 प्रतिशत कोटा बढ़ाए बिना ही पिछड़ा वर्ग की सूची में 79 जातियों से बढ़ाकर 112 जातियां कर दी गई थीं। नीतीश कुमार ने यही खेल दलित और महादलित जातियों के बीच विभाजन करके खेला था। इसी परिप्रेक्ष्य में पिछड़ों में क्रीमीलेयर की आमदनी का दायरा 6 लाख से बढ़ाकर 8 लाख कर दिया गया है। पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा दिया जाना भी जातियों में उपवर्गीकरण का अधिकार आयोग को देना है।

गौरतलब है, उच्चतम न्यायालय ने इंदिरा साहनी एवं अन्य बनाम भारत सरकार मामले में 16 नवंबर 1992 को अपने आदेश में व्यवस्था दी थी कि पिछड़े वर्गों को पिछड़ा या अति पिछड़ा के रूप में श्रेणीबद्ध करने में कोई संवैधानिक या कानूनी रोक नहीं है। अगर कोई सरकार ऐसा करना चाहती है तो वह करने को स्वतंत्र है। देश के नौ राज्यों आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, पुड्डुचेरी, कर्नाटक, हरियाणा, झारखंड, पश्चिम-बंगाल, बिहार, महाराष्ट्र और तमिलनाडू में अन्य पिछड़ा वर्ग का उपवर्गीकरण पहले ही किया जा चुका है। लेकिन ओबीसी या एससी, एसटी का जो निर्धारित कोटा है, उसमें बढ़ोतरी संविधान में संशोधन के बिना नहीं की जा सकती है?

संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने का प्रावधान है। इसमें शर्त है कि यह साबित किया जाए कि दूसरों के मुकाबले इन दोनों पैमानों पर पिछड़े हैं, क्योंकि बीते वक्त में उनके साथ अन्याय हुआ है, यह मानते हुए उसकी भरपाई के तौर पर आरक्षण दिया जा सकता है। राज्य का पिछड़ा वर्ग आयोग राज्य में रहने वाले अलग-अलग वर्गों की सामाजिक स्थिति का ब्यौरा रखता है। वह इसी आधार पर अपनी सिफारिशें देता है। अगर मामला पूरे देश का है तो राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग अपनी सिफारिशें देता है। देश में कुछ जातियों को किसी राज्य में आरक्षण मिला है तो किसी दूसरे राज्य में नहीं मिला है। मंडल आयोग मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने भी साफ कर दिया था कि अलग-अलग राज्यों में हालात अलग-अलग हो सकते हैं।

वैसे तो आरक्षण की मांग जिन प्रांतों में उठी है, उन राज्यों की सरकारों ने खूब सियासी खेल खेला है लेकिन हरियाणा में यह खेल कुछ ज्यादा ही खेला गया है। जाट आरक्षण के लिए मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर सरकार ने बीसी ;पिछड़ा वर्गद्ध सी नाम से एक नई श्रेणी बनाई थी, ताकि पहले से अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल आरक्षण का लाभ प्राप्त कर रहीं जातियां अपने अवसर कम होने की आशंका से खफा न हों। साथ ही बीसी-ए और बीसीबी-श्रेणी में आरक्षण का प्रतिशत भी बढ़ा दिया था। जाटों के साथ जट, सिख, बिश्नोई, त्यागी, रोड, मुस्लिम जाट व मुल्ला जाट बीसी-सी श्रेणी में मिलने वाले 10 प्रतिशत आरक्षण से लाभान्वित हो गए थे। लेकिन उच्च न्यायालय ने इन प्रावधानों को खारिज कर दिया था।

1 अक्टूबर 1993 को तत्कालीन मुख्यमंत्री भजनलाल ने सांसद रामजी लाल की अध्यक्षता में दूसरे पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन किया था। देशराज कांबोज इसके अध्यक्ष रहे थे। 7 जून 1995 को पिछड़े वर्ग की सूची में 5 जातियों अहीर-यादव, गुर्जर, सैनी, मेव, लोध तथा लोधा को शामिल किया गया। आर्थिक व सामाजिक रूप से सक्षम मानते हुए इस सिफारिश से जाट, जट सिख समेत बाकी 5 जातियों को आरक्षण के लाभ से वंचित कर दिया गया। इसी सिफारिश के तहत 20 जुलाई 1995 को राज्य के पिछड़े वर्ग को दो भाग वर्ग-ए और वर्ग-बी में बांटकर 27 प्रतिशत आरक्षण दे दिया था। साथ ही 16 प्रतिशत आरक्षण वर्ग-ए, तब 67 जातियां और 11 प्रतिशत आरक्षण वर्ग-बी ;6 जातियांद्ध को दिया गया। 8 अप्रैल 2011 को भूपेंद्र सिंह हुड्डा की सरकार ने जस्टिस केसी गुप्ता की अध्यक्षता में फिर आयोग का गठन किया। इसकी सिफारिश के आधार पर 12 दिसंबर 2012 को जाट, जट सिख, त्यागी, रोड, और बिश्नोई जातियों को विशेष पिछड़ा वर्ग में शामिल कर 10 प्रतिशत का आरक्षण का प्रावधान किया गया। किंतु अदालत ने इन्हें संविधान-सम्मत नहीं माना।

आरक्षण के इस सियासी खेल में अगली कड़ी के रूप में महाराष्ट्र आगे आया। यहां मराठों को 16 फीसदी और मुस्लिमों को 5 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान विधानसभा चुनाव के ठीक पहले कर दिया गया था। महाराष्ट्र में इस समय कांग्रेस और राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी की सरकार थी। सरकार ने सरकारी नौकरियों, शिक्षा और अर्द्ध सरकारी नौकरियों में आरक्षण सुनिश्चित किया था। महाराष्ट्र में इस कानून के लागू होने के बाद आरक्षण का प्रतिशत 52 से बढ़कर 73 हो गया था। यह व्यवस्था संविधान की उस बुनियादी अवधारणा के विरुद्ध थी, जिसके मुताबिक आरक्षण की सुविधा 50 प्रतिशत से अधिक नहीं होनी चाहिए। बाद में मुंबई उच्च न्यायलय ने इस प्रावधान पर स्थगन आदेश जारी कर दिया। फैसला आना अभी शेष है।

इस कड़ी में राजस्थान सरकार ने सभी संवैधानिक प्रावधानों एवं सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों को दरकिनार करते हुए सरकारी नौकरियों में गुर्जर, बंजारा, गाड़िया लुहार, रेबारियों को 5 प्रतिशत और सवर्णों में आर्थिक रूप से पिछड़ों को 14 प्रतिशत आरक्षण देने का विधेयक 2015 में पारित किया था। इस प्रावधान पर फिलहाल राजस्थान उच्च न्यायालय ने स्थगन दे दिया है। यदि आरक्षण के इस प्रावधान को लागू कर दिया जाता तो राजस्थान में आरक्षण का आंकड़ा बढ़कर 68 फीसदी हो जाएगा, जो न्यायालय द्वारा निर्धारित की गई 50 प्रतिशत की सीमा का उल्लघंन है। साफ है, राजस्थान उच्च न्यायालय इसी तरह के 2009 और 2013 में वर्तमान कांग्रेस की अशोक गहलोत सरकार द्वारा किए गए ऐसे ही कानूनी प्रावधानों को असंवैधानिक ठहरा चुकी है।

वैसे देश के जाट, गुर्जर, पटेल और कापू ऐसे आर्थिक व शैक्षिक रूप से सक्षम और राजनीतिक पहुंच वाले लोग हैं, जिन्हें आरक्षण की जरूरत नहीं है। बावजूद ये जातियां अपने को पिछड़ों की सूची में शामिल कराने को उतावली हैं तो इसका एक ही कारण है कि सरकारी नौकरियों से जुड़ी प्रतिष्ठा और आर्थिक सुरक्षा। जबकि पिछड़ी जातियों की अनुसूची में जाटों को शामिल करने की केंद्र सरकार द्वारा जारी एक अधिसूचना को सुप्रीम कोर्ट 17 मार्च 2015 को खारिज कर चुकी है। अदालत ने इस सिलसिले में स्पष्ट रूप से कहा है कि पुराने आंकड़ों के आधार पर आरक्षण नहीं दिया जा सकता है। अदालत ने जाटों को आरक्षण पर राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग अयोग की नसीहत नकारने के सरकार के फैसले को भी अनुचित ठहराया था। अदालत ने कहा था, इस परिप्रेक्ष्य में आयोग की सलाह आधारहीन नहीं है क्योंकि आयोग एक विधायी संस्था है। आयोग ने हरियाणा, उत्तर-प्रदेश, मध्य-प्रदेश, बिहार, गुजरात, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश और राजस्थान में भरतपुर व धौलपुर के जाटों को केंद्र की ओबीसी की सूची में शामिल करने से मना कर दिया था। कारण ये जातियां पिछड़ी नहीं रह गईं हैं इसलिए पिछड़े होने के मानक पूरे नहीं करती हैं। लेकिन केंद्र ने आयोग की रिपोर्ट पर यह आरोप मढ़कर नजरअंदाज कर दिया था कि आयोग ने जमीनी हकीकत पर विचार नहीं किया।

साफ है, जब तक जाट या आरक्षण की प्रतीक्षा में खड़े अन्य दबंग व सक्षम समुदाय सामाजिक, शैक्षिक व आर्थिक रूप से पिछड़े घोषित नहीं कर दिए जाते, तब तक किसी भी वादे या विधेयक पर अमल की उम्मीद संभव नहीं है। गोया, आरक्षण वोट के लिए राजनैतिक औजार न बना रहे और इसकी विसंगतियां भी दूर हों इस नजरिए से राज्य सरकारों को जातियों के उपवर्गीकरण का अधिकार मिलना चाहिए।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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