माता पार्वती अपने पिछले जन्म में दक्ष प्रजापति की कन्या सती के रूप में उत्पन्न हुई थीं। उस समय भी उन्हें भगवान शंकर की पत्नी होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था।
पिता के यहाँ यज्ञ में अपने पति भगवान शिव के अपमान से क्षुब्ध होकर उन्होंने योगाग्नि में अपना शरीर त्याग दिया था। सती ने देह त्याग करते समह संकल्प किया कि, ‘‘मैं पर्वतराज हिमालय के यहां जन्म लेकर कर पुन: भगवान शिव की अर्धांगिनी बनूं।’’
कुछ समय बाद ही माता सती (पारवती) हिमालय पत्नी मैना के गर्भ से उत्पन्न हुईं। पर्वतराज की पुत्री होने के कारण वह पार्वती कहलाईं। जब वह कुछ सयानी हुईं तो उनके माता-पिता उनके विवाह के लिए चिंतित रहने लगे।
एक दिन अचनाक देवर्षि नारद पर्वतराज के घर पधारे। पर्वत राज ने उनका बड़ा आदर सत्कार किया तथा उनसे अपनी पुत्री के भविष्य के विषय में कुछ बताने की प्रार्थना की। नारद जी ने हंस कर कहा, ‘‘गिरिराज! तुम्हारी पुत्री आगे चल कर उमा, अम्बिका और भवानी आदि नामों से प्रसिद्ध होगी। यह अपने पति को प्राणों से भी अधिक प्यारी होगी तथा इसका सुहाग अचल रहेगा, किन्तु इसको माता-पिता से रहित तथा उदासीन पति मिलेगा। यदि तुम्हारी कन्या भगवान शिव की तपस्या करे और वह प्रसन्न होकर इससे विवाह करने के लिए तैयार हो जाए तो इसका सभी तरह से कल्याण होगा।’
भगवती पार्वती ने भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या करने का निर्णय लिया और माता-पिता के मना करने पर भी हिमालय के सुंदर शिखर पर कठोर तपस्या आरंभ कर दी। उनकी कठोर तपस्या को देखकर बड़े-बड़े ऋषि मुनि भी दंग रह गए। अंत में भगवान शिव ने पार्वती की परीक्षा के लिए सप्तऋषियों को भेजा और पीछे वेश बदल कर स्वयं आए। पार्वती की अटूट निष्ठा को देख कर शिव जी अपने को अधिक देर तक न छिपा सके और असली रूप में उनके सामने प्रकट हो गए।
देवी पार्वती की इच्छा पूर्ण हुई और पार्वती जी तपस्या पूर्ण करके घर लौट आई। वहाँ अपने माता-पिता को उन्होंने शंकर जी के प्रकट होने तथा वरदान देने का सम्पूर्ण वृत्तांत कह सुनाया। शंकर जी ने सप्तऋषियों को विवाह का प्रस्ताव लेकर पर्वत राज के पास भेजा। और इस प्रकार विवाह की तिथि निश्चित हुई। वर पक्ष की ओर से ब्रह्मा, विष्णु और इंद्रादि देवता बारात लेकर आए। भगवान शंकर और पार्वती का विवाह बड़ी धूमधाम से सम्पन्न हुआ। फिर भगवान शिव के साथ भगवती पार्वती कैलाश आ गई।
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