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धर्म ही है समृद्ध जीवन का मार्ग

June 28, 2022

– गिरीश्वर मिश्र

शब्दों के अर्थ, उनकी भूमिकाएं और उनके प्रयोग के संदर्भ किस तरह देश और काल द्वारा अनुबंधित होते हैं यह सबसे प्रखर रूप में आज ‘धर्म’ शब्द के प्रयोग में दिखाई पड़ता है । आजकल बहुधा स्थानापन्न की तरह प्रयुक्त धर्म, मजहब, विश्वास, मत, पंथ, और रिलीजन आदि विभिन्न शब्द अर्थ की दृष्टि से एक शब्द-परिवार के हिस्से तो हैं पर सभी भिन्न अर्थ रखते हैं । मूल ‘धर्म’ शब्द का अब प्रयोग-विस्तार तो हो गया है पर अर्थ का संकोच हो गया है। दुर्भाग्य से धार्मिक होना साम्प्रदायिक (कम्यूनल) माना जाने लगा है । व्युत्पत्ति की दृष्टि से धर्म अस्तित्व के गुणों या मूल स्वभाव अथवा प्रकृति को व्यक्त करता है जो धारण करने / होने / जीने / अस्तित्व को रेखांकित करते हैं । इस तरह यह भी कह सकते हैं कि धर्म किसी इकाई के अस्तित्व में रहने की अनिवार्य शर्त है । जिस विशेषता के साथ वस्तु अपने अस्तित्व को धारण करती है वह धर्म हुआ । मनुष्य का जीवन जिन मूल सिद्धांतों पर टिका है वे धर्म को परिभाषित करते हैं । तभी यह कहा गया कि जो धर्म से रहित है वह पशु के समान है: धर्मेण हीना: पशुभि: समाना: । धर्म-भावना का होना और धर्म की प्रतिष्ठा जीवनदायी है।

मनुष्य के लिए मनुष्य के अस्तित्व का सवाल किसी जड़ पदार्थ से इस अर्थ में भिन्न और अधिक जटिल है कि उसे खुद अपनी (अर्थात अपने अस्तित्व की) चेतना रहती है और इस चेतना के विषय में वह विचार करने में भी सक्षम है । पशुओं से ऊपर उठ कर मनुष्य जो हो चुका है (अर्थात अतीत) और जो होने वाला है (अर्थात भविष्य ) दोनों ही पक्षों पर विचार कर पाने में सक्षम है । उसका अस्तित्व सिर्फ दिया हुआ (प्रकृति प्रदत्त) नहीं है बल्कि स्वयं उसके द्वारा भी (अंशतः! ही सही) रचा-गढ़ा जाता रहता है। सुविधा के लिए इस तरह के कार्य कलापों को हम सभ्यता और संस्कृति का नाम दे देते हैं । अत: यह कहना अधिक ठीक होगा कि मानव अस्तित्व का प्रश्न नैसर्गिक या प्राकृतिक मात्र नहीं है। वह अस्तित्व के मिश्रित (हाइब्रिड!) रूप वाला है जिसमें प्रकृति और संस्कृति दोनों ही शामिल होते हैं और वह दोनों से संबंध रखता है और अपनी नियति को निर्धारित करता है। धर्म के तुलनात्मक अध्ययन बताते हैं कि अस्तित्व के प्रश्न विभिन्न संस्कृतियों और कालखंडों में अलग-अलग ढंग से खोजे जाते रहे हैं और भिन्न भिन्न उत्तर ढूंढे जाते रहे हैं।

सीमित बुद्धि और अपरिचयजन्य असमंजस के कारण विभिन्न दृष्टियों को अपनाने वाले अन्य दृष्टि वालों के प्रति असहज होने लगते हैं। अंततः संभवत: एक होने पर भी उसकी ओर दृष्टि अनेक प्रकार की होती है और उसे जैसा कि प्रसिद्ध वैदिक उक्ति एकं सत् विप्राः बहुधा वदंति में व्यक्त किया किया गया है अलग-अलग ढंग से कहा या व्यक्त किया जाता है । भारतीय समाज की स्मृति में बड़े प्राचीन काल से ही धर्म निरंतर बना रहा है । धर्म को आचरण की अंतिम निरपेक्ष सी कसौटी के रूप में ग्रहण किया जाता है जो जीवन के स्फुरण और उसको स्पंदित बनाए रखने के लिए आवश्यक है ।

भारतीय मूल की प्रमुख धार्मिक विचार प्रणालियां (सनातन/हिन्दू, जैन, बौद्ध, सिख) धर्म को कर्तव्य, आदर्श, विवेक और औचित्य के सिद्धांतों के पुंज के रूप में ग्रहण करते हैं और उनकी ओर सतत आगे बढ़ने का आग्रह किया गया है । जीवन के क्षरण को मात देने और जीवन को समग्रता में जीने का उद्यम धर्म की परिधि में ही किया जाना चाहिए । इसके लिए ईश्वर या परम सत्ता या चेतना को केन्द्रीय महत्व दिया गया जो अमूर्त और सर्वव्यापी है । उस तक जाने के ज्ञान, कर्म, भक्ति और हठ योग जैसे मार्ग भी सुझाए गए । सीमित शरीर वाले की मुक्त अनंत, शुद्ध और बुद्ध के साथ अपना संबंध स्थापित करना पूरे जीवन को एक नए धरातल पर स्थापित करता है । इससे जीवन की निरंतरता बनी रहेगी और वह बाधाओं से भी मुक्त रहेगा जो सीमित स्व केन्द्रित जीवन (स्वार्थ !) के कारण हो सकता है । अपने आत्म-बोध को व्यापकतर बनाना सर्वोत्कृष्ट रूप में वेदांत में प्रकाशित हुआ जो सबको अपने में और अपने को सबमें देखने के लिए मार्ग दिखाता है ।

उल्लेखनीय है कि जीवन की व्यापक सत्ता पर चिंतन वैदिककाल से ही चला आता रहा है और इस विचार में जड़ चेतन सभी शामिल किए गए हैं । यदि सभी धर्म के अनुकूल आचरण करते हैं तो समृद्धि और विकास का मार्ग प्रशस्त होगा । जब यह कहा गया कि ‘धर्म की रक्षा से ही सभी की रक्षा हो सकती है’ तो उसका आशय व्यापक सर्व समावेशी जीवन-धर्म था । कालक्रम में विभिन्न संस्कृतियों के संपर्क में आकर बदलती रही और अब जाति तथा उपजाति की लंबी शृंखला खड़ी हो गई। धार्मिक जीवन में ईश्वर, परमात्मा, चेतना के सगुण, निर्गुण नाना रूप विकसित हुए । धर्म के विचार के साथ उससे जुड़े संस्थानों का विकास भी खूब हुआ । वैश्विक स्तर पर ज्ञान की जगह कर्मकांड प्रमुखता पाने लगा । मंदिर, मस्जिद, चर्च और पगोडा भी बने, अनुष्ठान की पद्धतियां भी विकसित हुईं, धर्म ग्रंथ भी प्रतिष्ठित हुए, प्रार्थना की पद्धतियां बनीं, मठ, चैत्य, विहार, मदरसे, सेमिनरी भी स्थापित हुए । ईश्वर, देवता, पवित्रता, अपवित्रता, स्वर्ग, नरक, पाप, और पुण्य की कोटियां भी बनीं और उनको नियामक बनाने की सुदृढ़ व्यवस्था भी तैयार हुई । उनके साथ पुजारी, पादरी और मौलवी जैसे मध्यस्थ लोगों की जमात भी पैदा हुई ताकि क्रम बना रहे ।

लौकिक जीवन में धर्म के अस्तित्व विषयक प्रश्न कुछ इस तरह आत्मसात (अप्रोप्रियेट) किए गए कि बुद्ध, शंकर और कबीर जैसे क्रांतिकारी विचारकों को उनके विचारों से ठीक विपरीत बना कर प्रस्तुत किया गया । धर्म के मूर्त रूप जितने दृढ़ होते गए उनके आयोजकों के बीच प्रतिस्पर्धा भी शुरू हुई । इतिहास गवाह है कि ईसाई और इस्लाम का किस तरह आक्रामक ढंग से विश्व-विजय का अभियान चला है और भारत समेत विश्व के अनेक क्षेत्रों में धर्मांतरण बड़े पैमाने पर चलता रहा और अन्य विचारों के नष्ट करने की कोशिश होती रही । इसी प्रवृत्ति के चलते ज्ञान-केंद्र नालंदा विश्वविद्यालय जला दिया गया और सोमनाथ मंदिर ध्वस्त कर दिया गया। यह कहना सही होगा कि धर्म की सामाजिक प्रकृति इतनी प्रबल होती गई कि उसके अमूर्त मूल रूप पर हावी होती गई । उसने धर्म को वस्तु (कमोडिटी!) का रूप देना शुरू किया और अब वह बाजार और राजनीति का हिस्सा बनता जा रहा है । धर्म की मूल जिज्ञासा से परे हट कर पाखंड और प्रपंच की आधारशिला मजबूत होती गई और उसे ही प्रत्यक्ष अनुभव करते हुए धर्म का प्रामाणिक रूप मानने की परिपाटी प्रबल होती गई । यह अंतर्विरोध ही कहा जाएगा कि जो सबको जोड़ने, निकट लाने का कार्य करता है उसे बांटने, तोड़ने और हिंसा से जोड़ कर देखा जा रहा है ।

अच्छे शासन की संकल्पना धर्म के अनुरूप व्यवस्था में है । ‘राम-राज्य’ की प्रसिद्ध अवधारणा राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के लिए भी आदर्श थी और वह बार-बार राजनीति में धर्म की प्रतिष्ठा पर बल देते रहे । स्वतंत्र भारत में ‘सत्यमेव जयते’ को आदर्श मान कर उसकी राह पर चलने के लिए प्रतिबद्धता व्यक्त की गई । दुर्भाग्य से धर्म से छूट लेने और उसके विपरीत आचरण की प्रवृत्ति बढ़ती गई है परन्तु धर्म के प्रति आकर्षण आम जनता के मन में बना हुआ है । इसका लाभ लेते हुए राजनीतिक हलकों में समीकरण बनाते हुए लोगों की धार्मिक भावनाओं और विश्वासों का उपयोग करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है । धर्म के साथ एक और वैचारिक बदलाव आया । आधुनिक भारत में ‘सेकुलर’ को भ्रमवश ‘धर्म निरपेक्ष’ कह दिया गया और सर्वधर्म समभाव को नीति में स्थापित करने की बात की गई । सिद्धांतत: धर्म के विचार से निरपेक्ष रह कर समत्व की प्राप्ति नहीं हो सकती । धर्म की सही अर्थों में प्रतिष्ठा से ही जीवन की संभावना बनती है।

संकट यह है कि हम इस दृष्टि से जो हमारी अपनी है उससे वंचित हो रहे हैं और आत्महीनता से ग्रस्त हैं । धर्म से अभ्युदय और नि: श्रेयस दोनों की सिद्धि होती है । अभ्युदय का अर्थ है लौकिक संपदा और भौतिक उन्नति द्वारा सुखी होना और नि:श्रेयस मोक्ष और आत्म स्वरूप का ज्ञान । अपनी पूर्णता में धर्म दोनों ही लक्ष्यों का समावेश करता है और उसके लिए धर्म मार्ग पर चलने के लिए कहा जाता है । इसलिए यह कोई अलौकिक सोच नहीं है कि धर्म पालन करने वाले से अपेक्षा की जाती है कि वह अपने आचरण में क्षमा, धृति (धैर्य), दम (संयम), अस्तेय (चोरी न करना), शौच (पवित्रता), इन्द्रिय-निग्रह (इन्द्रियों का समुचित उपयोग), धी(बुद्धि), विद्या (ज्ञान), सत्य और अक्रोध का पालन करे । मुश्किल यह है कि यह सब ठीक है यह सब जानते हैं परन्तु इनको आचरण में उतारना कठिन होता है ।

महाभारत में दुर्योधन कहते हैं कि उचित क्या है यह जानते हुए उसमें प्रवृत्ति नहीं थी और अधर्म क्या है यह जानते हुए भी उससे निवृत्ति (छुटकारा) नहीं थी । आज की यही स्थिति है और आत्म-निरीक्षण, विवेक बुद्धि की जगह पाप बुद्धि और वासनाएं प्रबल हैं और हम गलत राह अपनाने लगते हैं । यह शरीर, मन और बुद्धि का उपकरण ठीक से काम करे इसके लिए यही खाका है कि ऊपर वर्णित धर्म का व्यवहार रूप अपनाया जाए । अधिक दिन नहीं हुए जब स्वामी विवेकानंद और महात्मा गांधी जैसे युग पुरुषों ने इसको आजमाया था और इसी भारतीय समाज में परिवर्तन का मंत्र फूंका और वह कर दिखाया जो सामान्यत: अकल्पनीय था । विचार करें तो धर्मानुकूल आचरण से धरती का भविष्य सुरक्षित हो सकेगा और टिकाऊ (सस्टेनेबिल) विकास का लक्ष्य और जलवायु-परिवर्तन के वैश्विक संकट का भी निदान मिलेगा । समृद्ध और आत्म-निर्भर भारत के स्वप्न को साकार करने के लिए भी यही मार्ग है । जहां धर्म है वहीं विजय होती है : यतो धर्मस्ततो जय : ।

(लेखक, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)

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