गोरखपुर। काकोरी कांड के महानायक पंडित राम प्रसाद बिस्मिल की आज पुण्यतिथि है। 19 दिसंबर 1927 को उन्हें गोरखपुर जेल में फांसी दी गई थी। उन्होंने देश की खातिर सब कुछ न्यौछावर कर खुशी-खुशी फांसी का फंदा चूम लिया था।
पंडित राम प्रसाद बिस्मिल क्रांतिकारी होने के साथ लेखक, साहित्यकार, इतिहासकार और बहुभाषी अनुवादक थे। वहीं गोरखपुर में बिस्मिल की एक अलग पहचान है। उन्होंने अपने जीवन के आखिरी चार महीने और दस दिन यहां जिला जेल में बिताए थे। आज हम उनकी एक खास कहानी बताने जा रहे हैं।
चौरीचौरा कांड के बाद अचानक असहयोग आंदोलन वापस ले लिया गया। इसके कारण देश में फैली निराशा को देखकर उनका कांग्रेस के आजादी के अहिंसक प्रयत्नों से मोहभंग हो गया। फिर तो नवयुवकों की क्रांतिकारी पार्टी का अपना सपना साकार करने के क्रम में बिस्मिल ने चंद्रशेखर ‘आजाद’ के नेतृत्व वाले हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के साथ गोरों के सशस्त्र प्रतिरोध का नया दौर आरंभ किया लेकिन सवाल था कि इस प्रतिरोध के लिए शस्त्र खरीदने को धन कहां से आए?
इसी का जवाब देते हुए उन्होंने नौ अगस्त, 1925 को अपने साथियों के साथ एक ऑपरेशन में काकोरी में ट्रेन से ले जाया जा रहा सरकारी खजाना लूटा तो थोड़े ही दिनों बाद 26 सितंबर, 1925 को पकड़ लिए गए और लखनऊ की सेंट्रल जेल की 11 नंबर की बैरक में रखे गए। मुकदमे के नाटक के बाद अशफाक उल्लाह खान, राजेंद्रनाथ लाहिड़ी और रौशन सिंह के साथ उन्हें फांसी की सजा सुना दी गई।
मौत के डर से नहीं मां, तुमसे बिछड़ने के शोक में आए हैं आंसू
पंडित राम प्रसाद बिस्मिल की माता मूलरानी ऐसी वीरमाता थीं जिनसे वे हमेशा प्रेरणा लेते थे। शहादत से पहले ‘बिस्मिल’ से मिलने गोरखपुर वे जेल पहुंचीं तो पंडित बिस्मिल की डबडबाई आंखें देखकर भी उन्होंने धैर्य नहीं खोया। कलेजे पर पत्थर रख लिया और उलाहना देती हुई बोलीं, ‘अरे, मैं तो समझती थी कि मेरा बेटा बहुत बहादुर है और उसके नाम से अंग्रेज सरकार भी थरथराती है। मुझे पता नहीं था कि वह मौत से इतना डरता है।
उनसे पूछने लगीं, ‘तुझे ऐसे रोकर ही फांसी पर चढ़ना था तो तूने क्रांति की राह चुनी ही क्यों? तब तो तुझे इस रास्ते पर कदम ही नहीं रखना चाहिए था।’ इसके बाद ‘बिस्मिल’ ने अपनी आंखें पोंछ डालीं और कहा था कि यह आंसू मौत के डर से नहीं, तुमसे बिछड़ने के शोक में आए हैं।
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