– हृदयनारायण दीक्षित
भारत प्राचीन राष्ट्र है लेकिन कई यूरोपीय और देश के वाम विचार के विद्वान भारत को राष्ट्र नहीं मानते। इस विशाल देश में अनेक बोलियां, अनेक रीति रिवाज व अनेक भाषाएं हैं। वामपंथी इतिहासकार रामशरण शर्मा ने ‘प्रारंभिक भारत का परिचय‘ में भारतीय संस्कृति को विलक्षण बताया है। यह शर्मा जी की लिखी सुंदर किताब है। उन्होंने लिखा है, ‘‘भारत अनेकानेक मानव प्रजातियों का संगम रहा है। प्राक् आर्य, हिन्द आर्य, यूनानी, शक, हूण और तुर्क आदि प्रजातियों ने भारत को अपना घर बनाया है। प्रत्येक प्रजाति ने भारतीय सामाजिक व्यवस्था, शिल्प कला, वास्तु कला और साहित्य के विकास में यथाशक्ति अपना अपना योग दिया है। सभी समुदाय और उनके सांस्कृतिक वैशिष्ट्य इस तरह मिल गए हैं कि उनमें से किसी को हम उनके मूल रूप में पहचान भी नहीं सकते।‘‘ यूनानी, शक, हूण आदि इस तरह मिल गए कि उन्हें पहचानना कठिन है। शर्मा ने इस घुलनशीलता का श्रेय मूल भारतीय आर्य संस्कृति को नहीं दिया। इस्लाम भारतीय समाज में घुल नहीं पाया। ब्रिटिशों ने भारतीय संस्कृति, इतिहास परंपरा और दर्शन को परलोकवादी बताया। दुर्भाग्य से उनके निष्कर्ष यहाँ ‘आधुनिक‘ कहे जाते हैं। यह चुनौती बड़ी है। देश में बाहर से आई प्रजातियों के योगदान की प्रशंसा उचित है। कला और साहित्य के विकास में भी उनके योगदान का उल्लेख सही है। लेकिन शर्मा जी ने यहां के मूल निवासी अभिजनों के रचनात्मक कार्यों की ओर ध्यान नहीं दिया है।
भारत में वैदिक काल में ही शिल्प, वास्तु और साहित्य का विकास हो चुका था। भारत के लोग राष्ट्रीय एकता के लिए सक्रिय रहे हैं। इसका मूल कारण उनके चित्त में सक्रिय सांस्कृतिक राष्ट्रभाव था। रामशरण शर्मा ने भी लिखा है, ‘‘भारत के लोगों ने इस विशाल उपमहाद्वीप को एक अखण्ड देश समझा। सारे देश को भरत नामक एक प्राचीन वंश के नाम पर ‘भारतवर्ष‘ नाम दिया गया।‘‘ ऋग्वेद के अनेक ऋषि भरतजन हैं। ऋग्वेद में इनकी चर्चा है। शर्मा ने लिखा है, ‘‘हिमालय से समुद्र तक फैली यह भूमि को सार्वभौम राजा के द्वारा शासित क्षेत्र के रूप में कल्पित है। हिमालय से कन्याकुमारी तक। पूर्व में ब्रह्मपुत्र की घाटी से पश्चिम में सिन्धु पार तक अपना राज्य फैलाने वाले राजाओं का व्यापक यशोगान किया है।‘‘
राष्ट्र यहां के निवासियों के लिए आराध्य रहा है। सो इस अखण्ड देश का राजा यशस्वी होना चाहिए। ऐसे राजा प्राचीन काल में चक्रवर्ती कहलाते थे। देश के बड़े भूभाग की राजनैतिक एकता का स्वप्न काल्पनिक नहीं था। ईसापूर्व तीसरी सदी में अशोक ने अपना साम्राज्य सुदूर दक्षिणांचल को छोड़कर सारे देश में फैलाया। इसके पहले चन्द्रगुप्त मौर्य का शासन भी उल्लेखनीय है। चैथी सदी में समुद्रगुप्त की विजय यात्रा गंगा की घाटी से तमिल देश के छोर तक पहुंची थी। शर्मा ने याद दिलाया है कि राजनैतिक एकता के अभाव में भी सारे देश में राजनैतिक ढांचा कमोबेश एक जैसा था। इसका कारण संस्कृति है।
सांस्कृतिक एकता महत्वपूर्ण होती है। यहाँ सांस्कृतिक एकता मजबूत करने के प्रयास जारी रहे हैं। ईसापूर्व तीसरी सदी में प्राकृत भाषा काफी बड़े हिस्से में प्रयुक्त होती थी। अशोक के शिलालेख प्राकृत और ब्राह्मी लिपि में लिखे गए। शर्मा जी ने संस्कृत भाषा के सम्बंध में सही बात लिखी है, ‘‘बाद में संस्कृत ने प्रतिष्ठित स्थान पाया। संस्कृत देश के अधिकांश हिस्सों में राजभाषा के रूप में स्वीकृत थी।‘‘ प्राचीन भारत का इतिहास प्रेरक है। भारतीय विद्वानों ने हस्तलिखित महाकाव्यों और पुराणों आदि में अपने प्राचीन इतिहास को लगातार व्यवस्थित करने का काम जारी रखा। लेकिन यूरोपीय विद्वानों की शिकायत है कि प्राचीन भारत के इतिहास में इतिहास लेखन की यूरोपीय शैली नहीं मिलती।
ब्रिटेन ने भारत का शासन हथिया लिया। शासन चलाने के लिए उन्हें भारतीय इतिहास की जानकारी की आवश्यकता प्रतीत हुई। 1765 में बंगाल और बिहार ईस्ट इंडिया कम्पनी के शासन में आ गए। अंग्रेज शासकों के सामने काफी कठिनाइयाँ आईं। हिन्दुओं के उत्तराधिकार की न्याय व्यवस्था के संचालन में कठिनाई आई। भारत की विधि व्यवस्था पर अलग-अलग प्राचीन ग्रंथों में सामग्री थी। रामशरण शर्मा ने बताया है कि 1776 में सबसे अधिक प्रामाणिक मानी जाने वाली मनुस्मृति का अंग्रेजी अनुवाद ‘ए कोड ऑफ जेंटू लॉज‘ के नाम से किया गया। 1784 में कोलकाता में ईस्ट इंडिया कम्पनी के सिविल सर्वेंट विलियम जोंस (1746-1794) ने ‘एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल‘ नामक शोध संस्था की स्थापना की। दिलचस्प बात यह है कि जोंस ने 1789 में कालिदास के ‘अभिज्ञान शाकुंतलम‘ नामक नाटक का अंग्रेजी में अनुवाद किया। एक विद्वान विलकिंस ने भगवद्गीता का अंग्रेजी अनुवाद किया। एशियाटिक सोसाइटी काफी चर्चा में थी। मुम्बई में भी एशियाटिक सोसाइटी की स्थापना हुई और लंदन में भी। विलियम जोंस ने लिखा है कि मूलतः यूरोपीय भाषाएं संस्कृत और ईरानी भाषाओं से बहुत मिलती हैं। यह बड़ा तथ्य था। उन्होंने संस्कृत की प्रशंसा की।
जर्मनी, फ्रांस, रूस आदि यूरोपीय देशों में भारतीय दर्शन के प्रति विद्वानों में आकर्षण बढ़ा। जर्मनी के विद्वान मैक्समूलर (1823-1902) ने वैदिक साहित्य का अनुवाद किया। अंग्रेज 1857 के विद्रोह से परेशान थे। उन्हें अनुमान हो गया कि भारत जैसे विशाल देश पर राज करना आसान नहीं है। भारतीय परम्पराओं और सामाजिक व्यवस्था का अध्ययन जरूरी था। ईसाई मिशनरी धर्मांतरण के लिए सक्रिय थे। वे भी हिन्दू धर्म की खामियां बढ़ा चढ़ाकर बता रहे थे। ईसाई धर्मांतरण का उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्य की मजबूती था। लेकिन भारतीय दर्शन के प्रति पूरे यूरोप में रुचि बढ़ रही थी। मैक्समूलर के सम्पादन में प्राचीन भारतीय ग्रंथों का बड़ी मात्रा में अनुवाद हुआ। यह अनुवाद ‘सैकरेड बुक्स ऑफ दि ईस्ट‘ सीरीज में लगभग 50 खण्डों में संकलित है।
पाश्चात्य विद्वानों ने जानबूझकर निष्कर्ष निकाला कि प्राचीन भारत के लोगों को इतिहास का विशेषतया काल और तिथि क्रम का बोध नहीं था कि भारत के लोग स्वेच्छाकारी शासन के आदी रहे हैं। वे आध्यात्मिक या पारलौकिक समस्याओं में ही डूबे रहे। पाश्चात्य विद्वानों ने कहा कि भारतवासियों को राष्ट्रीय भावना का अहसास नहीं था। ऐसे सारे निष्कर्षों के आधार पर विंसेंट स्मिथ की पुस्तक ‘अर्ली हिस्ट्री ऑफ इंडिया‘ चर्चा का विषय रहती है। उनका दावा है यह प्राचीन भारत का पहला सुव्यवस्थित इतिहास है। भारत के विरुद्ध सारे आरोप मिथ्या थे। कालिदास ने रघुवंश में राम के समय के इतिहास-बोध की चर्चा की है। भवभूति, कालिदास और राजशेखर ने रामायण को इतिहास बताया है। बौद्ध जातकों में अयोध्या के इक्ष्वाकुवंशीय मांधाता, दशरथ और राम का उल्लेख है। बौद्ध पंथ अंधविश्वासी नहीं है। राम भारत की श्रुति व स्मृति में हैं। कुछेक राजनेता, वामदल और विद्वान राम को इतिहास नहीं मानते।
दरअसल भारत ने यूरोपीय तर्ज पर इतिहास संकलन नहीं किया। अलबरूनी का भी आरोप था-‘‘हिन्दू चीजों के ऐतिहासिक क्रम पर अधिक ध्यान नहीं देते, वे अपने सम्राटों के काल क्रमानुसार उत्तराधिकार के वर्णन में लापरवाह हैं।‘‘ भारत ने राजाओं की विवरणी नहीं बनाई। भारतीय इतिहासकारों का मुंह भविष्य की ओर था। उन्होंने इतिहास से अनुकरणीय पात्र छाटें, उन्हें काव्य और गीत बनाया। लोकस्मृति ने बुद्धि में सुरक्षित जगह दी और लोकमन ने हृदय में। राजा और राज्य बहुत हुए, लेकिन राम राज्य ने गांधी को भी मोहित किया। आधुनिकता अंग्रेजी सभ्यता की नकल नहीं हो सकती।
(लेखक, उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं।)
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