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    असफलता की राजनीति

  • August 15, 2020

    – अंबिकानंद सहाय

    “रहिमन धागा प्रेम का, मत तोरो चटकाय;
    टूटे पे फिर न जुरे, जुरे गाँठ परि जाय।”
    राजस्थान में राजनीतिक मोर्चे पर क्या हो रहा है, यह समझने के लिए आपको अब्दुल रहीम खानखाना द्वारा सदियों पहले लिखे गए इस उत्कृष्ट दोहे के सार को समझने की जरूरत है। कभी एक झटके में प्यार का धागा न तोड़ें, अगर एक बार यह अलग हो गया तो इसे कभी भी पूर्व स्थिति में नहीं लाया जा सकता। जब भी आप दो छोरों को जोड़ेंगे तो एक गाँठ हमेशा दिखाई देगी।

    आज राजस्थान कांग्रेस राज्य विधानसभा के पटल पर अपनी “जीत” के बावजूद गांठों से बंधी हुई दिख रही है।

    क्या आपने गुरुवार की रात अपने टेलीविजन सेट पर यह सब देखा? यह अजीब दृश्य था जिसमें मास्क लगाए दो लोग- मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और पूर्व उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट- हाथ मिलाते और “नमस्ते” के साथ एक दूसरे का अभिवादन करते दिखाई दे रहे थे। दोनों ही सामान्य दिखने की पुरज़ोर कोशिश कर रहे थे। कोई भी यह नहीं देख सकता था कि मास्क के पीछे दोनों नेताओं की मुस्कान स्वाभाविक थी या नहीं। या वे एक-दूसरे को चुपचाप देख रहे थे? कोई भी – यहाँ तक कि सभास्थल पर मौजूद पार्टी के विधायक भी निश्चित तौर पर नहीं जानते थे।

    बस एक चीज़ निश्चित तौर पर कही जा सकती थी कि दोनों नेताओं की बॉडी लैंग्वेज असामान्य थी।

    आखिरकार, कौन भूल सकता है कि मुख्यमंत्री ने हाल ही में अपने उप मुख्यमंत्री के बारे में क्या कहा था: “वो तो नकारा, निकम्मा व्यक्ति है।” अब उन शब्दों को हजम करना मुश्किल है। जिस दिन पार्टी आलाकमान ने जयपुर में दोनों पक्षों के बीच समझौते की कोशिश की, मुख्यमंत्री को यह कहते हुए सुना गया: “हमने इन 19 विधायकों के दोबारा प्रवेश के बिना भी अपना बहुमत साबित कर दिया होता, लेकिन इससे हमें खुशी नहीं होती।”

    यह सभी को स्पष्ट था कि मुख्यमंत्री अपनी आदतानुसार सभी परिस्थितियों में बहादुर दिखने की कोशिश कर रहे हैं।

    दो और दो पांच नहीं हो सकते, न तो गणित में और न ही राजनीति में। गहलोत, सचिन और उनके दोस्त, सभी एक बात निश्चित रूप से जानते थे कि टीम सचिन के सक्रिय समर्थन के बिना गहलोत सरकार स्थिर नहीं रह सकती।

    तो फिर सचिन ने बीच में ही लड़ाई ख़त्म करने का फैसला क्यों किया? गहलोत और उनके दिल्ली के नेता अचानक टीम सचिन का स्वागत करने के लिए क्यों सहमत हो गए? इस पहेली का उत्तर सरल है: असफलता की राजनीति!

    गहलोत अपने बल पर बहुमत हासिल करने में नाकाम रहे, पायलट संयुक्त विपक्ष से अप्रत्यक्ष समर्थन के बावजूद सत्ता से अपने प्रतिद्वन्द्वी को दूर करने में समान रूप से असफल रहे और पार्टी आलाकमान मध्य प्रदेश के बाद एक और राज्य में अपने नेताओं को एकजुट रखने में विफल रहा। समय निरंतर बढ़ता रहा और एक महीने से अधिक समय तक गतिरोध जारी रहा।

    आखिरकार प्रियंका गांधी ने पार्टी के भीतर “पुराने” नेताओं के ऐतराज़ के बावजूद गतिरोध ख़त्म किया।

    जानकार सूत्रों की मानें तो उन्होंने जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री और सचिन पायलट के ससुर फारूक अब्दुल्ला से बात की, जो बातचीत के लिए तैयार थे। हां, यह फारुख साहब ही थे जिन्होंने प्रियंका के कहने पर सचिन से समझदारी से निर्णय लेने को कहा। और यह प्रियंका ही थीं, जिन्होंने भाई राहुल गांधी के साथ गहलोत को कहा कि वे तर्कसंगत कारणों को सुनें। सभी ने उनकी बात मानी, कम से कम कुछ समय के लिए।

    इसके बाद विधानसभा के फर्श पर एक नाटकीय दृश्य दिखा, जिसमें गहलोत सरकार ने बड़े आराम से एसिड टेस्ट पास किया। लेकिन दोनों गुटों के बीच एकजुटता का यह प्रदर्शन कब तक चलेगा? सटीक उत्तर तो कोई नहीं जानता। शायद, यहाँ कवि रहीम का एक और सुनहरा दोहा सटीक बैठता है:
    “खैर, ख़ून, खाँसी, ख़ुशी, बैर, प्रीति, मद्य-पान;
    रहिमन दाबे न दबे, जानत सकल जहान।”
    अर्थ: आप लोगों से समृद्धि, खाँसी, दुश्मनी, प्रेम और शराब में लिप्त होने जैसी चीज़ों को नहीं छिपा सकते।
    अब इसका आंकलन आपको करना है कि क्या सचिन और गहलोत हमेशा के लिए दोस्त बन गए हैं।

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