– प्रमोद भार्गव
राजस्थान का सत्ता-संग्राम राजस्थान उच्च न्यायालय के बाद राजभवन पहुंच गया। न्यायालय ने कांग्रेस के 19 बागी विधायकों की याचिका पर विधानसभा अध्यक्ष से यथास्थिति बनाए रखने को कहा है। साफ है, अब अध्यक्ष सीपी जोशी सचिन पायलट समेत 19 विधायकों को एकाएक अयोग्य घोषित नहीं कर पाएंगे? सोमवार को सर्वोच्च न्यायालय में भी इस मामले पर सुनवाई होनी है। इसी घटनाक्रम के दौरान अशोक गहलोत अपने विधायकों को होटल से लेकर राजभवन पहुंचे और विधायक परिसर में ही धरने पर बैठ गए। गहलोत समेत विधायकों ने नारे लगाए और आरोप लगाया कि सरकार विधानसभा-सत्र बुलाना चाहती है लेकिन राज्यपाल कलराज मिश्र ‘ऊपरी दबाव’ के चलते सत्र बुलाने की अनुमति नहीं दे रहे हैं। हालांकि मुख्यमंत्री और राज्यपाल की दो घंटे चली गुप्त चर्चा के बाद विधायक होटल चले गए। अलबत्ता विधानसभा अध्यक्ष की दलील है कि उच्च न्यायालय उन्हें बागी विधायकों को अयोग्यता की कार्यवाही से नहीं रोक सकता है। जबकि सर्वोच्च न्यायालय ने नसीहत दी है कि ‘लोकतंत्र में असहमति के स्वर को दबाया नहीं जा सकता है। असंतुष्ट विधायक भी जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि हैं, अतएव वे असहमति व्यक्त कर सकते हैं। अन्यथा लोकतंत्र समाप्त हो जाएगा।’
इसी बीच राजस्थान के सियासी दंगल में केंद्र सरकार ने भी दखल दे दिया। लिहाजा उच्च न्यायालय ने पायलट खेमे की ओर से केंद्र सरकार को पक्षकार बनाने के लिए दी गई अर्जी को स्वीकार कर लिया है। साफ है, अब केंद्र का पक्ष भी सुना जाएगा। केंद्र की ओर से महाअधिवक्ता आरडी रस्तोगी सरकार का पक्ष रखेंगे। बहरहाल यह मामला इतना पेचीदा हो गया है कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को सरकार बचाना मुश्किल होगा? लेकिन पायलट की गति भी ‘दोई दीन से गए पांडे, हलुआ मिले न माड़े’ कहावत को चरितार्थ हो सकती है क्योंकि राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया ने अभी अपने पत्ते नहीं खोले हैं।
दरअसल मुख्यमंत्री गहलोत का यह बयान उन्हीं के लिए उल्टा पड़ सकता है कि ‘यदि राजस्थान की जनता राजभवन का घेराव करती है तो मेरी कोई जिम्मेवारी नहीं होगी।’ यह बयान इसलिए बेबुनियाद है, क्योंकि अबतक गहलोत स्वयं मुख्यमंत्री हैं और कानून व्यवस्था की सीधे-सीधे जिम्मेदारी उन्हीं के हाथ है, इसलिए वे यदि यह कहते हैं कि वे सुरक्षा की जिम्मेदारी नहीं ले सकते तो यह कहने से पहले उन्हें राज्यपाल को त्यागपत्र सौंप देना चाहिए था। शायद इसीलिए राज्यपाल ने तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा भी है ‘यदि राज्य सरकार राज्यपाल की सुरक्षा की जिम्मेदारी नहीं ले सकती है तो यह सवाल उठता है कि ऐसे राज्य में कानून-व्यवस्था की क्या स्थिति होगी।’ यही नहीं राज्यपाल कलराज मिश्र ने बाकायदा मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर कहा, ‘इससे पहले कि मैं विधानसभा सत्र बुलाए जाने के संबंध में संविधान विशेषज्ञों से चर्चा करता, आपने सार्वजनिक रूप से कह दिया कि यदि राजभवन का घेराव होता है तो यह आपकी जिम्मेदारी नहीं होगी। यदि आप और आपका गृह मंत्रालय राज्यपाल की सुरक्षा नहीं कर सकता तो राज्य में कानून व्यवस्था का क्या हश्र होगा? मैंने कभी किसी मुख्यमंत्री का ऐसा बयान नहीं सुना। यह गलत प्रवृत्ति की शुरुआत है। जहां विधायक राजभवन के भीतर विरोध प्रदर्शन कर रहे है।’ साफ है, मुख्यमंत्री के बयान ने इस मामले को और पेचीदा बना दिया है।
अशोक गहलोत की मुश्किलें आगे और भी बढ़ती दिखाई दे रही है। दरअसल गहलोत ने बहुजन समाज पार्टी के सभी छह विधायकों का कांग्रेस में विलय करा लिया था, विलय का यह मामला भी उच्च न्यायालय पहुंच गया है। भाजपा विधायक दिलावर ने उच्च न्यायालय में याचिका दायर कर इन विधायकों के कांग्रेस में विलय पर सवाल उठाए हैं। इस याचिका पर फिलहाल सुनवाई होना शेष है। दिलावर ने इसी सिलसिले में विधानसभा अध्यक्ष को भी एक याचिका दायर की है। उल्लेखनीय है कि ये सभी विधायक सितंबर 2019 में बसपा छोड़ कांग्रेस में विलय हो गए थे। इस घटना को बीते एक साल बाद ये याचिकाएं दायर की गई हैं। इससे तय होता है कि अशोक गहलोत को चारों तरफ से घेरा जा रहा है।
ऐसे कयास लगाए जा रहे हैं कि सचिन पायलट ने ज्योतिरादित्य सिंधिया की प्रेरणा से गहलोत को पटकने के घटनाक्रम को अंजाम दिया हुआ है। लेकिन सिंधिया के साथ सुविधा यह रही कि वे अपने 22 विधायकों के साथ कांग्रेस छोड़ने की घोषणा के साथ इस्तीफे भी दे चुके थे। इसलिए उन्हें राज्यसभा सदस्य बना देने से लेकर मध्य-प्रदेश की कमलनाथ सरकार को पटकनी देने का बीड़ा शिवराज सिंह चौहान, नरेंद्र सिंह तोमर और नरोत्तम मिश्रा ने उठा लिया था। इस घटना को अंजाम तक पहुंचाने में सहयोग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह और रक्षामंत्री राजनाथ सिंह भी कर रहे थे। इसलिए कमलनाथ सरकार को बहुमत के बावजूद गिराना आसान हो गया और इसके प्रमुख सूत्रधार शिवराज सिंह मुख्यमंत्री भी बन गए। कालांतर में सिंधिया को भी केंद्रीय मंत्री की शपथ दिला दी जाएगी।
इस परिप्रेक्ष्य में सचिन दुविधा में रहे। उन्होंने अभी तक स्पष्ट नहीं किया है कि वे अपने 19 विधायकों के साथ भाजपा में शामिल हो भी रहे हैं अथवा नहीं? यदि सचिन इस्तीफा देकर भाजपा में शामिल हो भी जाते हैं तो उन्हें कोई उपलब्धि मिलना मुश्किल है? दरअसल उनके पास इतने विधायक नहीं है कि वे भाजपा के 72 विधायकों के साथ राजस्थान के मुख्यमंत्री बन जाएं? इसीलिए गहलोत सचिन को तेजाबी शब्दवाणों से कोसते हुए निकम्मा और नाकारा तक कह रहे हैं। ऐसा इसलिए भी कहा गया है कि वे सरकार में उप-मुख्यमंत्री और राजस्थान कांग्रेस के अध्यक्ष रहते हुए सरकार गिराने में निर्लज्जता से जुटे हैं। जबकि सिंधिया ने बगावत का रुख इसलिए किया क्योंकि उन्हें चाहने के बावजूद न तो प्रदेश अध्यक्ष बनाने पर कमलनाथ और दिग्विजय सिंह तैयार थे और न ही उन्हें राज्यसभा सदस्य बनाए जाने की गारंटी दी जा रही थी। इस अनिश्चितता से उबरने के लिए उन्होंने अपने निष्ठावान अनुयायी विधायकों के साथ भाजपा का दामन थाम लेने में ही राजनैतिक भविष्य की गारंटी समझी और सफलता भी प्राप्त कर ली।
राजस्थान में इतनी बड़ी राजनीतिक उठा-पटक चल रही है लेकिन यहां की पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा की कद्दावर नेत्री वसुंधरा राजे सिंधिया अबतक मौन हैं। सभी जानते हैं कि वे भाजपा आलाकमान की आंख की किरकिरी बनी हुई हैं। जबकि भाजपा के सहयोगी रालोपा के सांसद हनुमान बेनीवाल ने राजे पर अशोक गहलोत सरकार को बचाने में सहयोग देने का आरोप लगाकर सनसनी फैला दी है। बावजूद भाजपा के किसी भी नेता ने बेनीवाल की लानत-मलानत नहीं की। अलबत्ता वसुंधरा राजे ने भी कांग्रेस की दबे स्वर में आलोचना जरूर की, पर उनको लेकर गहलोत सरकार बचाने की जो शांकाएं की जा रही हैं, उस सिलसिले में कोई सफाई नहीं दी। दरअसल राजे गहलोत सरकार गिराने के खेल से इसलिए दूर बनी हुई हैं क्योंकि वे भलि-भांति जानती हैं कि यदि कांग्रेस सरकार गिरती भी है तो केंद्रीय नेतृत्व उन्हें मुख्यमंत्री बना देने का अवसर नहीं देगा। इस पद पर अलाकमान के पसंदीदा केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत बिठाए जा सकते हैं?
दरअसल वसुंधरा की आलाकमान अर्थात नरेंद्र मोदी से आरंभ से ही नहीं पटी। तमाम कोशिशों के बावजूद वसुंधरा लगातार चौथी बार धौलपुर लोकसभा सीट से चुनाव जीते अपने बेटे दुष्यंत को केंद्र सरकार का हिस्सा नहीं बना पाई हैं। उनके भतीजे ज्योतिरादित्य के भाजपा में आने से उनकी बची-खुची उम्मीदों पर भी पानी फिर गया है। ऐसे में गहलोत सरकार गिरी तो उन्हें भाजपा के 72 विधायकों पर भी पकड़ मजबूत बनाए रखना चुनौती साबित होगी? गोया, गहलोत सरकार गिर भी जाती है तो सचिन पायलट का मुख्यमंत्री बनना तो मुश्किल होगा ही वसुंधरा भी कोई गुल खिला दें, ऐसा लगता नहीं है? ऐसे में अंततः राजस्थान में मध्यावधि चुनाव की ज्यादा उम्मीद लगती है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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