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    राधेश्याम खेमका: जिन्होंने बताया कि संपादन सबसे बड़ा सांस्कृतिक कर्म है!

  • January 29, 2022

    – डॉ. जयप्रकाश सिंह

    वह निरंतर 60 वर्षों से प्रयागराज में कल्पवास कर रहे थे। पिछले कई दशकों से गंगाजल ही पीते थे। दिन में केवल दो बार अन्न ग्रहण करते थे। उनकी यह जीवनशैली संपादन कार्य में लगे किसी व्यक्ति की नहीं, साधु-संतों की लगती है। राधेश्याम खेमका इसी जीवनशैली के साथ लगभग चार दशकों से ‘कल्याण’ का संपादन कार्य कर रहे थे। इस मनोदशा और जीवनशैली के कारण ही संपादन में शुद्धता और संकल्पना का वह स्तर प्राप्त कर सके, जो भारतीय परंपरा पर भाष्य करने के लिए आवश्यक है।

    आज जब आजादी का अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है और डिकोलोनाइजेशन पर बड़े जोरो-शोरों से चर्चा चल रही है, तब राधेश्याम खेमका का स्मरण और भी जरूरी हो जाता है। राधेश्याम खेमका इस तथ्य की तरफ संकेत कर जाते हैं कि भारतीय जीवनशैली अपनाए बिना डिकोलोनाइजेशन का कार्य आगे नहीं बढ़ सकता। एक विशिष्ट जीवनशैली को अपनाने के बाद ही भारतीय परंपराओं और मान्यताओं को ठीक ढंग से समझा जा सकता है।

    राधेश्याम खेमका उस परंपरागत भारतीय मानस के भी प्रतिनिधि थे, जो कार्यसिद्धि के लिए साधन से अधिक साधना को महत्व देता है। यह मानस इस बात में विश्वास करता है कि कार्य की सिद्धि के लिए एक विशिष्ट मनोदशा की आवश्यकता होती है। यदि साधना के जरिए वह मनोदशा सध जाए तो कार्य के लिए आवश्यक संसाधन और संयोग अपने आप बन जाते हैं। एक ऐसे दौर में जब-जब संसाधन, तकनीक, उपकरण कार्यसिद्धि के पर्याय लिए गए हों, तब राधेश्याम खेमका साधना की भारतीय परंपरा और उसकी सफलता के प्रतीक के रूप में हमारे सामने आते हैं।

    वह लगभग चार दशकों तक ‘कल्याण’ पत्रिका के अवैतनिक संपादक रहे। आध्यात्मिक जगत में कल्याण के विशेषांकों का संग्रहणीय साहित्य के रूप में प्रतिष्ठित स्थान है। प्रतिवर्ष जनवरी माह में साधकों के लिये उपयोगी किसी आध्यात्मिक विषय पर केंद्रित विशेषांक प्रकाशित होता है। शेष ग्यारह महीनों में प्रतिमाह पत्रिका प्रकाशित होती है। खेमका जी के संपादकत्व में गीता प्रेस गोरखपुर द्वारा कल्याण के 460 सामान्य अंकों और 40 विशेषांकों का संपादन हुआ।

    उनके सम्पादकत्व में निकले ‘कल्याण’ के विशेषांकों पर दृष्टि डालें तो विषयों की विस्तार की अनुभूति स्वयं ही हो जाती है। श्रीवामन पुराण अंक, चरित्र निर्माण अंक, श्रीमत्स्य पुराण अंक (पूर्वार्ध), श्रीमत्स्य पुराण अंक (उत्तरार्ध), संकीर्तन अंक, शक्ति उपासना अंक, शिक्षा अंक, पुराणकथा अंक, देवता अंक, योगतत्वांक, संक्षिप्त भविष्य पुराण अंक, श्रीराम भक्ति अंक, गो सेवा अंक, धर्मशास्त्र अंक, कूर्मपुराण अंक, भगलल्लीला अंक, वेद कथांक, संक्षिप्त गरुड़ पुराण अंक, आरोग्य अंक, नितिसार अंक, भगवत प्रेम अंक, व्रतपर्वाेत्सव अंक, देवीपुराण (शक्तिपीठांक), अवतार कथा अंक, संस्कार अंक, श्रीमद्देवी भागवत अंक (पूर्वार्ध), श्रीमद्देवी भागवत अंक (उत्तरार्ध), जीवनचर्या अंक, दानमहिमा अंक, श्रीलिंग महापुराण अंक, भक्तमाल अंक, ज्योतितत्वांक, सेवा अंक, गङ्गा अंक, शिव महापुराण अंक (पूर्वार्ध), शिव महापुराण (उत्तरार्ध), श्रीराधा माधव अंक, बोधकथा अंक, श्री गणेश पुराण अंक का प्रकाशन उनके सम्पादकत्व में हुआ। उन्होंने अपने सम्पादकत्व में ‘कल्याण’ के विशेषांक के लिए एक तरफ ऐसे ग्रथों का प्रकाशन किया जो अप्राप्य और दुर्लभ माने जाते थे। दूसरी तरफ भारतीय संस्कृति की आधारभूत मान्यताओं और मानदंडों पर ‘कल्याण’ के विशेषांकों का प्रकाशन कर सांस्कृतिक सातत्य को बनाए रखने में अभूतपूर्व योगदान दिया।

    हनुमान प्रसाद पोद्दार ने अपने संपादकत्व में गीता-प्रेस में व्याकरणीय शुद्धता और संकल्पनात्मक श्रेष्ठता के जो उच्च मानदंड स्थापित किए थे, राधेश्याम खेमका ने न केवल उन्हें बनाए रखा, बल्कि आगे भी बढ़ाया। वह यह कार्य इसीलिए कर सके क्योंकि उन्होंने संपादन को प्रूफ संशोधन या नई संकल्पनाओं पर कार्य भर नहीं माना, उनके लिए संपादन एक धार्मिक और सांस्कृतिक कार्य था।

    वह जानते थे कि गीता प्रेस गोरखपुर में किसी एक अशुद्धि के जाने का आशय क्या है? करोड़ों घरों में गीता-प्रेस की पुस्तकों से ही नित्य पूजा-पाठ होता है। मठ-मंदिरों में स्वाध्याय का आधार गीताप्रेस गोरखपुर ही है। कथा-सत्संग में भी व्यासपीठ पर गीता-प्रेस की पुस्तक ही विराजमान होती है। अकादमिक स्तर पर भारत और भारतीयता को लेकर जो नया उल्लास पैदा हुआ है, उसके लिए भी प्राथमिक और सुलभ संदर्भ ग्रंथ गीता-प्रेस से प्रकाशित पुस्तकें और ‘कल्याण’ के विशेषांक ही हैं। इन सभी स्थानों पर गीता-प्रेस की पुस्तकों का पाठ इसी भावना के साथ किया जाता है कि इस पुस्तक में अशुद्धि नहीं हो सकती।

    ऐसे में एक त्रुटि, एक अशुद्धि का अर्थ लाखों अनुष्ठानों का भंग करना और करोड़ों व्रतों को खंडित करना था। राधेश्याम खेमका ने लगभग चार दशकों तक इस वृहत्तर भार को अपने उठाए रखा। उन्होंने यह समझ लिया था कि संपादन को यदि धार्मिक और सांस्कृतिक कर्म के रूप में किया जाए तो अशुद्धता के लिए स्थान कम हो जाता है। संपादन धार्मिक और सांस्कृतिक कर्म तभी बन सकता है, जब जीवनशैली को भी धार्मिक और सांस्कृतिक बनाया जाए। गीता-प्रेस गोरखपुर और ‘कल्याण’ पत्रिका का संचालन एक धार्मिक अनुष्ठान की तरह हुआ है। राधेश्याम खेमका को पद्म विभूषण संस्कृति संरक्षण और संवर्द्धन के मूक महाअभियान को प्रारंभिक स्वीकृति देने जैसा है। व्यापक आकलन आनेवाली पीढ़ियां ही कर सकेंगी।

    (लेखक, हिमाचल प्रदेश केन्द्रीय विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।)

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