• img-fluid

    पं. दीनदयाल उपाध्याय: एकात्म मानववाद के प्रतिपादक

  • February 11, 2022

    – डॉ. अशोक कुमार भार्गव

    भारत के सांस्कृतिक अभ्युदय की पवित्र भावना से ओतप्रोत पंडित दीनदयाल उपाध्याय का एकात्म मानववाद का दार्शनिक चिंतन वैश्विक कल्याण की विशुद्ध भारतीय परिकल्पना के शाश्वत विचार प्रवाह का वो अमृत कलश है जो समाज के अंतिम छोर पर खड़े शोषित, पीड़ित, निर्धन, निरीह और निराश व्यक्ति के समग्र उत्थान अर्थात अंत्योदय के प्रति समर्पित है। यह महज एक नारा नहीं वरन सर्वत्र मानव समाज का एकात्म रूप में दर्शन का जीवंत विचार है। यह यूरोपीय पुनर्जागरण के मानववाद से परे नए संस्करण में समग्र समाज को एक भिन्न दृष्टि से देखने के कारण नई समाज रचना का गतिशील प्रतिमान प्रस्तुत करता है।

    पंडित उपाध्याय का जन्म 25 सितंबर 1916 को धनकिया, राजस्थान में हुआ था। बाल्यावस्था में ही माता-पिता के स्नेह से वंचित, अनाथ दीनदयाल का लालन-पालन मामा की देखरेख में हुआ। विषम परिस्थितियों में भी वे प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा अर्जन तक सदैव प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए। कानपुर में अध्ययन के दौरान 1937 में उनकी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रति रुचि जागृत हुई और संघ के संपर्क ने उनके जीवन की दिशा को बदल दिया। 1942 में उन्हें लखीमपुर का जिला प्रचारक नियुक्त किया गया। मामा जी के आग्रह पर वे प्रशासनिक सेवा परीक्षा में बैठे और उनका चयन भी हुआ लेकिन समाज में अंत्यजनों की दुरावस्था से आहत पंडित दीनदयाल ने सरकारी नौकरी को गुलामी मानकर उसका परित्याग कर दिया।

    जीवन में संघ की विचारधारा को पूर्णता: आत्मसात कर देश की स्वतंत्रता और अखंडता के लिए अपना खिलता हुआ जीवन पुष्प, भारत माता के श्री चरणों में अर्पित करने का संकल्प धारण कर चल पड़े राष्ट्रभक्ति का अलख जगाने व राष्ट्र के सांस्कृतिक उन्नयन के लिए। उन्हें उत्तर प्रदेश के सह प्रांत प्रचारक का दायित्व मिला। 21 सितंबर 1951 को लखनऊ में विशाल सम्मेलन बुलाकर उत्तर प्रदेश प्रादेशिक जनसंघ की स्थापना की। इसी सम्मेलन में आपने जनसंघ को अखिल भारतीय रूप देने का प्रस्ताव रखा जो सर्वसम्मति से पारित हुआ और 21 अक्टूबर 1951 को डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में दिल्ली में भारतीय जनसंघ ने अखिल भारतीय स्वरूप प्राप्त किया। दीनदयाल जी को जनसंघ का महामंत्री घोषित किया गया।

    आप 15 वर्षों तक भारतीय जनसंघ के राजनीतिक रथ का संचालन करते रहे। 1963 में जौनपुर से लोकसभा का उपचुनाव भी लड़ा किंतु पराजित हुए, उसके बाद आजीवन लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ा। राजनीति में विरोध के लिए विरोध के सख्त विरोधी दीनदयाल जी ने कहा कि सिद्धांत की बलि चढ़ा कर मिलने वाली विजय सच पूछो तो पराजय से भी बुरी है। ऐसी विजय हमें नहीं चाहिए। इस प्रकार राजनीति में रहकर भी उन्होंने सिद्धांत और व्यवहार तथा कथनी और करनी में संतुलित समन्वय की मिसाल कायम की।

    राष्ट्र सेवा, समाज सेवा और व्यक्ति सेवा की भीष्म प्रतिज्ञा लेने वाले आजीवन ब्रह्मचारी पंडित दीनदयाल उच्च कोटि के विचारक, पत्रकार, दार्शनिक, प्रतिभा संपन्न लेखक, सजग राजनीतिज्ञ, निपुण संघटक, प्रभावी वक्ता और सफल आंदोलन कर्ता थे जिनका साहित्यिक जीवन भी अत्यंत गौरवशाली रहा। राष्ट्र धर्म (मासिक), स्वदेश (दैनिक) तथा पांचजन्य (साप्ताहिक) का प्रकाशन उनके मार्गदर्शन में प्रारंभ हुआ। वस्तुतः रचनात्मक लेखनी के धनी पंडित दीनदयाल के लेखन का एकमात्र लक्ष्य भारत की प्रतिष्ठा वृद्धि अर्थात राजनीतिक दृष्टि से सुदृढता, सामाजिक दृष्टि से उन्नति और आर्थिक दृष्टि से समृद्ध राष्ट्र निर्माण रहा।

    साधन और साध्य की पवित्रता में अटूट आस्था रखने वाले पंडित जी की सहजता सरलता और सादगी उनके व्यक्तित्व की विशिष्ट पहचान थी। उनके व्यक्तित्व के अनेक ऐसे प्रसंग, संस्मरण हैं जो वर्तमान परिपेक्ष में हमें प्रेरित और प्रोत्साहित करते हैं। एकबार की बात है किसी विश्वविद्यालय में चर्चा सत्र के दौरान पंडित दीनदयाल जी ने विदेशों में प्रकाशित नए ग्रंथों के संदर्भ दिए जो उस विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में पहुंचे ही नहीं थे या विश्वविद्यालय के प्रोफेसर भी नहीं जानते थे। उनके विद्वता पूर्ण प्रामाणिक और सारगर्भित भाषण से अभिभूत होकर एक प्रोफेसर ने कहा इस व्यक्ति की केवल वेशभूषा ही साधारण है वरना ये तो विद्वानों का विद्वान हैं। इनमें मुझे कहीं शरीर नजर नहीं आता। ऊपर से नीचे तक केवल बुद्धि ही बुद्धि के अलावा और कुछ है ही नहीं। वहीं, एक प्रसंग में डॉक्टर मुखर्जी ने कहा कि जैसा मैं चाहता था वैसा ही साथी मुझे मिल गया और मुझे ऐसे दो दीनदयाल और दे दीजिए तो मैं सारे देश का नक्शा बदल दूंगा।

    राष्ट्र के सांस्कृतिक उत्थान के लिए संकल्पित दीनदयाल जी का विश्वास था कि यह कार्य हमारे पुरुषार्थ से धर्म का संरक्षण करते हुए संपूर्ण राष्ट्र की संगठित कार्य शक्ति द्वारा ही किया जा सकता है। हमारी राष्ट्रीयता का आधार भारत माता है केवल भारत नहीं। माता शब्द हटा दीजिए तो भारत केवल जमीन का एक टुकड़ा मात्र रह जाएगा। मानव समाज को समग्रता में देखने का उनका अभिनव चिंतन बौद्धिक दृष्टि से प्रगल्भ, वैचारिक निष्ठा और नैतिक मूल्यों का पक्षधर था। संसार में एकता का दर्शन कर उसके विविध रूपों के बीच परस्पर पूरकता को पहचान कर उनमें परस्पर अनुकूलता का विकास करना तथा उसका संस्कार करना ही संस्कृति है। प्रकृति को ध्येय की सिद्धि के अनुकूल बनाना संस्कृति तथा उसके प्रतिकूल बनाना विकृति है। संस्कृति प्रकृति की अवहेलना नहीं करती। हमारी संस्कृति संपूर्ण जीवन का, संपूर्ण सृष्टि का संकलित विचार करती है। वह समाज जीवन के मूल आधारों के एक्य की बात करती है। इसके विपरीत पश्चिम विश्वास करता है कि जीवन में प्रगति का आधार राज्य और व्यक्ति के मध्य सदैव चलने वाला वर्ग संघर्ष है। पश्चिम के संघर्ष की यह अवधारणा संस्कृति अथवा प्रकृति का नहीं विकृति का द्योतक है।

    विकृति, प्रकृति एवं संस्कृति को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि छीन कर खाने को विकृति, भूख लगने को प्रकृति और मिल बांट कर खाने को संस्कृति कहते है। आर्थिक चिंतन में वह अर्थायाम शब्द का प्रयोग करते हुए उसे योग के प्राणायाम के संदर्भ में परिभाषित करते हैं। वे कहते हैं जैसे प्राणायाम में हम सांस अंदर खींचते हैं और बाहर निकालते हैं उसी तरह से हमें अर्थायाम में धन प्राप्त करना चाहिए परंतु कर के रूप में एक हिस्सा राष्ट्र को भी देना चाहिए तभी राष्ट्र आर्थिक दृष्टि से उन्नति कर सकेगा। वे उदाहरण देकर स्पष्ट करते हैं कि जैसे रक्त एक स्थान पर एकत्र हो जाए तो थक्का बनकर स्वास्थ्य के लिए घातक बन जाता है ऐसे ही अर्थ भी एक ही व्यक्ति के पास बहुत अधिक मात्रा में इकट्ठा हो जाए तो वह सामाजिक स्वास्थ्य को प्रदूषित कर देता है। हमारी सांस्कृतिक चेतना राज्य और व्यक्ति को एक दूसरे का पूरक ही नहीं वरन सर्वांग का एक भाग मानती है। अतः यह नाता संघर्ष का नहीं वरन भाईचारे का है, समन्वय का है, आपसी सद्भाव और मैत्री का है। जैसे ऑक्सीजन हमें वनस्पतियों से मिलती है तथा वनस्पतियों के लिए आवश्यक कार्बन डाइऑक्साइड प्राणी जगत से प्राप्त होती है। इसी परस्पर पूरकता अथवा सहयोग के कारण ही संसार चलता है।

    जीवन में अनेकता और विविधता होते हुए भी मूलभूत एकता है। वट वृक्ष विराट है। बीज सूक्ष्म हैं। बीज में वृक्ष अपनी संपूर्ण विशालता सहित समाया हुआ है। बीज की एकता ही पेड़ के मूल, तना, शाखाएं, पत्ते और फल के विविध रूपों में प्रकट होती हैं। अर्थात जो सूक्ष्म है वहीं विराट है। जो विराट है वही सूक्ष्म है। अतः सूक्ष्म और विराट में, व्यष्टि एवं समष्टि में तथा मनुष्य एवं समाज में द्वंद नहीं एकात्म भाव है जो जीवन को टुकड़ों में नहीं देखता। वह खंडित दृष्टि नहीं अपितु समग्र दृष्टि प्रदत्त करता है। आत्मीयता और सहानुभूति मानव की आध्यात्मिक चेतना है जो व्यक्ति और समाज के संबंधों में संतुलन स्थापित करती है। यही भारतीयता की उत्तरजीविता का प्राण है। विविधता में एकता अथवा एकता का विविध रूपों में व्यक्तिकरण ही हमारी संस्कृति का केंद्रीय भाव है, विचार है। इसीलिए वह एकात्मवादी है।

    दीनदयाल जी ने भारतीय संस्कृति को शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा का समुच्चय निरूपित किया और मनुष्य के सर्वांगीण विकास की दृष्टि से व्यष्टि, समष्टि, सृष्टि और परमेष्टी की कल्पना में धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष के चार पुरुषार्थ का प्रतिपादन किया। धर्म से अर्थ की सिद्धि होती है और अर्थ से काम की पूर्ति होती है। अर्थ, काम, धर्म आधारित होता है तब अंतिम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस प्रकार यह सभी परस्पर विविध होते हुए भी एक दूसरे के पूरक हैं। यही अंतरभूत एकता ही एकात्म मानववाद का प्रकटीकरण है।दीनदयाल जी मानते हैं कि राष्ट्र की भी एक आत्मा होती है जिसे चिति कहा गया है। चिति किसी समाज की वह प्रकृति है जो जन्मजात है। चिति समाज की संस्कृति की दिशा निर्धारित करती है। अर्थात जो चीज चिति के अनुकूल होती है वह संस्कृति में सम्मिलित कर ली जाती। चिति वह मापदंड है जिससे हर वस्तु को मान्य अथवा अमान्य किया जाता है। यही राष्ट्र की आत्मा है। इसी आत्मा के आधार पर राष्ट्र खड़ा होता है और यही आत्मा राष्ट्र के प्रत्येक श्रेष्ठ व्यक्ति के आचरण द्वारा प्रकट होती है।

    इस प्रकार पंडित दीनदयाल जी के समग्र चिंतन का फलक बहुआयामी है जिसे शब्दों की परिधि में बांधना बहुत कठिन है। भौतिक सुख-सुविधाओं की चकाचौंध से कोसों दूर समस्त प्रकार की महामाया को तिलांजलि देने वाले निष्काम कर्मयोगी पंडित दीनदयाल उपाध्याय का एकात्म मानववाद का चिर प्रासंगिक दर्शन ही हमारी अमूल्य सांस्कृतिक धरोहर है जिसकी रोशनी में हमें सच्चे वैभव युक्त नए भारत की कल्पना को साकार करना है।

    11 फरवरी 1968 को मुगलसराय रेलवे स्टेशन पर दीनदयाल जी का मृत शरीर मिलने पर मां भारती के लिए समर्पित समग्र राष्ट्र प्रेमियों में शोक की लहर छा गई। यद्यपि इस घटना का रहस्य आजतक अज्ञात है। अटल जी ने भरे मन से उदगार व्यक्त करते हुए कहा था ‘सूर्य चला गया अब हमें तारों के प्रकाश में मार्ग खोजना है।’

    (लेखक, मध्य प्रदेश में भारतीय प्रशासनिक सेवा के पूर्व अधिकारी हैं।)

    Share:

    मप्रः मंत्री राजपूत की जुबान फिसली, कहा-पांच राज्यों में बनेगी कांग्रेस की सरकार, बाद में दी सफाई

    Fri Feb 11 , 2022
    जबलपुर। जबलपुर (Jabalpur) के पाटन में गुरुवार को तहसील भवन के भूमिपूजन कार्यक्रम में पहुंचे परिवहन मंत्री गोविंद सिंह राजपूत (Transport Minister Govind Singh Rajput) की जुबान फिसल (tongue slipped) गई। उन्होंने कह दिया कि उत्तरप्रदेश समेत 5 राज्यों के चुनाव में सभी जगह कांग्रेस की सरकार बनेगी। इसके बाद पास ही बैठे पूर्व मंत्री […]
    सम्बंधित ख़बरें
  • खरी-खरी
    रविवार का राशिफल
    मनोरंजन
    अभी-अभी
    Archives
  • ©2024 Agnibaan , All Rights Reserved