– हृदय नारायण दीक्षित
दुख, तनाव और अवसाद समूचे विश्व की समस्या है। भारत का योग विज्ञान ऐसी समस्याओं का ठोस उपचार है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के प्रयासों से योग अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित हो गया है। गीता का बड़ा हिस्सा योग प्रधान है। गीता में प्रकृति के सूक्ष्म विश्लेषण वाला सांख्य दर्शन है। इसे सांख्य योग कहा गया है। ईश्वर या देवताओं की आराधना भक्ति कही जाती है। गीता में भक्ति भी योग है। भारत का जीवन कर्म प्रधान है। गीता में कर्मयोग भी है। योग परिपूर्ण विज्ञान है। जैसे योग अंतरराष्ट्रीय हो गया है वैसे ही गीता भी तमाम ज्ञान सम्पदा के कारण अंतरराष्ट्रीय दर्शन ग्रंथ है।राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने हरियाणा में अंतरराष्ट्रीय गीता महोत्सव में हिस्सा लिया। उन्होंने कहा कि, ‘‘गीता में हर शंका का समाधान है। यह विश्व का पवित्र ग्रंथ है। सही अर्थ में अंतरराष्ट्रीय ग्रंथ है।”
प्राचीन काल में जीवन तनाव ग्रस्त नहीं था। आधुनिक काल की परिस्थितियां जटिल हैं। योग विज्ञान का महत्व बढ़ा है। योग प्राचीन ज्ञान है। इसे सूत्र रूप में व्यवस्थित करने का काम पतंजलि ने किया था। योगसूत्र नामक ग्रंथ लिखा। पहला योगसूत्र है- अथ योगानुशासनम्- अनुशासन का अर्थ प्रकृति के अंतर्संगीत से जुड़ जाना है। पतंजलि ने बताया है कि, ‘‘चित्त की वृत्तियाँ दुखदाई होती हैं। उन्होंने योग की परिभाषा की, ‘‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः।” योग शारीरिक व्यायाम नहीं है।‘‘ पतंजलि ने बताया है कि योग सिद्धि में व्यक्ति अपने स्वरूप में स्थापित हो जाता है। यह योग भारत से चल कर यूरोप पहुंचा। यूरोपीय विद्वानों ने इसे योक् कहा। आधुनिक समाज के लोग योग को योगा कहते हैं। लंदन विश्वविद्यालय के प्रोफेसर एएल बासम ने ‘दि वंडर दैट वाज इंडिया‘ (पृष्ठ 235) में बताया कि योग पश्चिम में सुविदित है और अंग्रेजी शब्द योक् से सम्बंधित है।
गीता में योग की प्रतिष्ठा है। मनुष्य का शरीर रहस्यपूर्ण है। निष्काम कर्मयोग उपनिषद व गीता दर्शन का सार है। लेकिन कर्म करना और कर्म परिणाम की इच्छा न करना कठिन है। गीता (6-24) में कहते हैं, ‘‘ निरपवाद रूप से समस्त इच्छाओं का त्याग और इन्द्रियों को मन द्वारा वश में करना चाहिए।” लेकिन मन ही अंतिम चरण नहीं है। कहते हैं, ‘‘धीरे- धीरे बुद्धि द्वारा विश्वासपूर्वक मन को आत्मस्थ करना चाहिए और कुछ भी नहीं सोचना चाहिए।‘‘ (वही 6-25) कुछ भी न सोचने का विचार पूरा करना कठिन है। सोचने का विचार न रखना भी सोचना है। मन की क्षमता विराट है। मन भागता है। कभी यहां कभी वहां। ऋग्वेद में कहते हैं, ‘‘हम दिव्यलोक भूलोक तक गए मन को वापस लाते हैं। चंचल मन को दूरवर्ती क्षेत्रों से वापस लाते हैं। जो मन समुद्र, अंतरिक्ष या सूर्य लोक, दूरस्थ पर्वत, वन या अखिल विश्व में गया है, हम उसे वापस लाते हैं।” ऋग्वेद की ही तरह गीता (6-26) में कहते हैं, ‘‘चंचल और अस्थिर मन जहां जहां भागता है उसे वापस लाकर अपने केन्द्र में लाना चाहिए।” आगे कहते हैं, ‘‘प्रशान्त मन से योग साधक उत्तम सुख प्राप्त करता है। वह राग द्वेष रहित शान्त हो कर सम्पूर्णता के साथ एक हो जाता है।” प्रत्येक कर्म का परिणाम होता है। कर्मफल पाने की इच्छा स्वाभाविक है। कर्म बंधन में डालते हैं। लेकिन गीता में कहते हैं कि योगसिद्ध ब्रह्म स्पर्श का अनुभव करता है। ब्रह्म से जुडी अनुभूति स्वयं को सम्पूर्णता के साथ जोड़ती है।” श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा, ‘‘तब सभी तत्वों में स्वयं का ही अनुभव होता है – सर्वभूतस्थमात्मानं। स्वयं के भीतर सभी तत्वों की अनुभूति होती है- सर्वभूता न चात्मनि। ऐसा योग युक्त समदर्शी हो जाता है- सर्वत्र समदर्शिनः। गीता में कहते हैं, ‘‘जो सभी तत्वों में आत्म को और स्वयं में सभी भूतों को देखता है, उसे शोक नहीं होता।”
आत्म तत्व पूर्वजों का आकर्षण रहा है। इसकी प्राप्ति के लिए तमाम साधनाएं रही हैं। कठोपनिषद व मुण्डकोपनिषद में एक साथ आए एक मंत्र में कहते हैं, ‘‘यह प्रवचन से नहीं जाना जा सकता। तीव्र बुद्धि से भी इसका अनुभव नहीं होता। नायेनात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुधा श्रुतेन। गीता में तमाम सांसारिक बातें भी हैं। आहार विहार के संयम पर बल दिया गया है। भोजन से शरीर बनता है। अन्न से बना रस गीता के अनुसार बुद्धि पर भी प्रभाव डालता है। बड़ी बात है कि गीता जैसे दर्शन ग्रंथ में भोजन पर भी ध्यान दिया गया है। श्रीकृष्ण ने योग साधक के लिए बताया है, ‘‘ज्यादा खाने वाले अथवा बिलकुल न खाने वालों के लिए योग नहीं है। ज्यादा सोने वाले और बहुत अधिक जागने वालों के लिए भी नहीं है।‘‘
इसके बाद के श्लोक में कहते हैं आहार विहार का संयम आवश्यक है- युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।” कर्म और प्रयास भी नियमबद्ध रखने का उपदेश है। सामान्य जीवन में स्वाद के कारण ज्यादा खाने की आदत पड़ती है। व्यस्तता के कारण भोजन न करने की स्थिति भी आती है। व्यस्तता के कारण कम सोने और आलस्य के कारण ज्यादा सोने से भी योग अनुशासन टूटता है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि ”योग सिद्धि के बाद चित्त निर्मल होता है और आकांक्षाएं भी शून्य हो जाती हैं। योगसिद्ध अपनी आत्मा में ही स्थिर रहता है। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बताया कि योग सिद्धि की अवस्था में चित्त की गतिविधियां शान्त हो जाती हैं।
चित्त की चंचलता कष्ट देती है। योग के कारण चित्त प्रशान्त हो जाता है। श्रीकृष्ण कहते हैं, ‘‘तब वह आत्मा द्वारा आत्मा को देखता है। आत्मा से आत्मा देखने की बात मजेदार है। योग सिद्धि के बाद व्यक्ति की निजता निरर्थक हो जाती है। वह सम्पूर्ण अस्तित्व के साथ एक रूप हो जाता है। सम्पूर्णता ही सम्पूर्णता को देखती है। सामान्य व्यक्ति सांसारिक विषयों से बंधा रहता है। वह मन के द्वारा संचालित होता है। श्रीकृष्ण कहते हैं, ‘‘योगाभ्यास से प्रशान्त हुआ स्व बुद्धि द्वारा ग्रहण किए जाने वाले इन्द्रिय सुख को भोगता है। इन्द्रियों से परे परमानन्द को भी प्राप्त करता है। सत्य मार्ग से विचलित नहीं होता।” सामान्यतया सभी मनुष्य जय पराजय लाभ हानि में दुखी होते हैं। लेकिन योग साधक की दृष्टि बदल जाती है। लाभ हानि देखने की उसकी मनोदशा बदल जाती है। योग सिद्धि का आनंद बड़ा है। उसे यही आनंद सबसे बड़ा दिखाई पड़ता है।” श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बताया, ‘‘इस आनंद से बड़ा कोई दूसरा आनंद नहीं होता।‘‘
भारतीय दर्शन का उद्देश्य दुखों की समाप्ति है। विपरीत परिस्थितियां दुख हैं। अनुकूल परिस्थितियां सुख हैं। दुख संयोग कष्ट देता है। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बताया ”दुख संयोग से वियोग ही योग है।‘‘ योग का अभ्यास दृढ़ इच्छा शक्ति संकल्प और धैर्यपूर्ण चित्त द्वारा ही किया जाना चाहिए। पतंजलि के योगसूत्र और गीता में अभ्यास और वैराग्य शब्द आए हैं। योग साधक को किसी भी परिस्थिति में अभ्यास नहीं छोड़ना चाहिए और अभ्यास से प्राप्त सामान्य सुख के प्रति वैराग्य भाव चाहिए। गीता का योग सम्पूर्ण जीवनशैली है।
(लेखक, उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं।)
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