– योगेश कुमार गोयल
प्रेस को सदैव लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की संज्ञा दी जाती रही है क्योंकि लोकतंत्र की मजबूती में इसकी बेहद महत्वपूर्ण भूमिका रही है। यही कारण है कि स्वस्थ और मजबूत लोकतंत्र के लिए प्रेस की स्वतंत्रता को बहुत अहम माना गया है लेकिन विडंबना है कि विगत कुछ वर्षों से प्रेस स्वतंत्रता के मामले में लगातार कमी देखी जा रही है। प्रेस की स्वतंत्रता को सम्मान देने और उसके महत्व को रेखांकित करने के लिए ही 3 मई को ‘विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस’ मनाया जाता है। यूनेस्को वर्ष 1997 से प्रतिवर्ष इसी दिन विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस मना रहा है।
प्रेस का सदैव यही दायित्व रहा है कि वह प्रत्येक जानकारी को बिल्कुल सटीक और सही तरीके से लोगों तक पहुंचाए ताकि लोगों को उसके बारे में उतना ही सच पता चल सके, जितना वास्तविक रूप से उस खबर में है लेकिन इसके लिए प्रेस की स्वतंत्रता बेहद जरूरी है ताकि वह निडर-निर्भीक रहते हुए इस कार्य को बखूबी कर सके।
अंग्रेजी शब्द PRESS का शाब्दिक अर्थ समझना भी आवश्यक है। अंग्रेजी वर्णमाला के इन पांच अक्षरों का काफी गहरा अर्थ है। पी-पब्लिक, आर-रिलेटेड, ई-इमरजेंसी, एस-सोशल, एस-सर्विस अर्थात् जनता से संबंधित आपातकालीन सामाजिक सेवा। भारत में प्रेस की भूमिका और उसकी ताकत को रेखांकित करते हुए अकबर इलाहाबादी ने एक बार कहा था, ‘‘न खींचो कमान, न तलवार निकालो, जब तोप हो मुकाबिल, तब अखबार निकालो।’’ इसका आशय यही था कि कलम, तोप व तलवार तथा अन्य किसी भी हथियार से ज्यादा ताकतवर है। दरअसल कलम को तलवार से भी ज्यादा ताकतवर और तलवार की धार से भी ज्यादा प्रभावी इसलिए माना गया है क्योंकि इसी की सजगता के कारण न केवल भारत में बल्कि अनेक देशों में पिछले कुछ दशकों के भीतर बड़े-बड़े घोटालों का पर्दाफाश हो सका, जिसके चलते बड़े-बड़े उद्योगपतियों, नेताओं तथा विभिन्न क्षेत्रों के दिग्गजों को एक ही झटके में अर्श से फर्श पर आना पड़ा।
अमेरिका के मशहूर ‘वाटरगेट’ कांड का भंडाफोड़ 1970 के दशक में हुआ था, जिसके चलते अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन को पद छोड़ना पड़ा था। भारत में भी मुख्यमंत्री और मंत्री जैसे पदों पर रहे कुछ आला दर्जे के नेता प्रेस की सजगता के ही कारण भ्रष्टाचार के विभिन्न मामलों में आज भी जेल की हवा खा रहे हैं। संभवतः यही कारण है कि समय-समय पर कलम रूपी इस हथियार को भोथरा बनाने या तोड़ने के कुचक्र होते रहे हैं और विभिन्न अवसरों पर न केवल भारत में बल्कि दुनियाभर में सच की कीमत कुछ पत्रकारों को अपनी जान देकर चुकानी पड़ती है।
3 दिसम्बर 1950 को देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने अपने सम्बोधन में कहा था, ‘‘मैं प्रेस पर प्रतिबंध लगाने के बजाय, उसकी स्वतंत्रता के बेजा इस्तेमाल के तमाम खतरों के बावजूद पूरी तरह स्वतंत्र प्रेस रखना चाहूंगा क्योंकि प्रेस की स्वतंत्रता एक नारा भर नहीं है बल्कि लोकतंत्र का एक अभिन्न अंग है।’’ हालांकि पिछले दशकों में प्रेस की स्वतंत्रता के मामले में स्थितियां काफी बदली हैं। आज दुनियाभर में पत्रकारों पर राजनीतिक, अपराधिक और आतंकी समूहों का सर्वाधिक खतरा है और भारत भी इस मामले में अछूता नहीं है। विड़म्बना है कि दुनियाभर के न्यूज रूम्स में सरकारी तथा निजी समूहों के कारण भय और तनाव में वृद्धि हुई है।
विश्वभर के पत्रकारों पर हमलों का दस्तावेजीकरण करने और मुकाबला करने के लिए कार्यरत पेरिस स्थित ‘रिपोर्टर्स सैन्स फ्रंटियर्स’ (आरएसएफ) अथवा ‘रिपोर्टर्स विदआउट बॉर्डर्स’ नामक एक गैर-लाभकारी संगठन प्रतिवर्ष 180 देशों और क्षेत्रों में प्रेस की स्वतंत्रता की स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए ‘विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक’ नामक वार्षिक रिपोर्ट पेश करता है। दुनियाभर के देशों में प्रेस की स्वतंत्रता की स्थिति की विवेचना करते हुए यह संगठन स्पष्ट करता रहा है कि किस प्रकार विश्वभर में पत्रकारों के खिलाफ घृणा हिंसा में बदल गई है, जिससे दुनियाभर में पत्रकारों में डर बढ़ा है।
विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक 2021 रिपोर्ट में कहा गया था कि दुनिया के 73 देशों में प्रेस की स्थिति बहुत बुरी है जबकि 59 देशों में बुरी स्थिति में है और बाकी देश कुछ बेहतर हैं लेकिन उनकी स्थिति भी समस्याग्रस्त ही है। 2019 की रिपोर्ट में भारत 140वें स्थान पर था, जो 2021 की रिपोर्ट में 46.56 स्कोर के साथ 142वें स्थान पर पहुंच गया। संस्था की वर्ष 2009 की रिपोर्ट के मुताबिक भारत प्रेस की आजादी के मामले में 109वें पायदान पर था लेकिन 2021 तक 33 पायदान लुढ़ककर 142वें स्थान पर पहुंच गया।
हालांकि भारत सरकार विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक रिपोर्ट की विश्वसनीयता पर सवाल उठाते हुए उसे मानने से इनकार करती रही है। केन्द्रीय सूचना प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर तो ‘रिपोर्टर्स विदआउट बॉर्डर्स’ की रिपोर्ट को मानने से इनकार करते हुए संसद में लिखित जवाब में कह चुके हैं कि विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक का प्रकाशन एक विदेशी गैर सरकारी संगठन द्वारा किया जाता है और सरकार इसके विचारों तथा देश की रैंकिंग को नहीं मानती। उनका कहना था कि इस संगठन द्वारा निकाले गए निष्कर्षों से सरकार विभिन्न कारणों से सहमत नहीं है, जिसमें नमूने का छोटा आकार, लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों को बहुत कम या कोई महत्व नहीं देना, एक ऐसी कार्यप्रणाली को अपनाना, जो संदिग्ध और गैर पारदर्शी हो, प्रेस की स्वतंत्रता की स्पष्ट परिभाषा का अभाव आदि शामिल हैं। अनुराग ठाकुर का कहना था कि केन्द्र सरकार पत्रकारों सहित देश के प्रत्येक नागरिक की सुरक्षा और रक्षा को सर्वाेच्च महत्व देती है। पत्रकारों की सुरक्षा पर विशेष रूप से 20 अक्तूबर 2017 को राज्यों को एक एडवाजरी जारी की गई थी, जिसमें पत्रकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए कानून को सख्ती से लागू करने के लिए कहा गया था।
सरकार विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक रिपोर्ट को माने या न माने किन्तु आए दिन पत्रकारों पर होने वाले हमले और थानों में बेवजह दर्ज होने वाली एफआईआर और पत्रकारों की गिरफ्तारियों की खबरें आती रहती हैं। ‘कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट’ (सीपीजे) द्वारा 2021 की वार्षिक रिपोर्ट में बताया गया है कि इस वर्ष विश्वभर में 293 पत्रकारों को उनकी पत्रकारिता को लेकर जेल में डाला गया जबकि 24 पत्रकारों की मौत हुई और यदि भारत की बात की जाए तो यहां कुल पांच पत्रकारों की हत्या उनके काम की वजह से हुई।
प्रेस की स्वतंत्रता के मामले में यह गिरावट स्वस्थ लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है। प्रेस की स्वतंत्रता में कमी आने का सीधा और स्पष्ट संकेत है, लोकतंत्र की मूल भावना में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का जो अधिकार निहित है, उसमें धीरे-धीरे कमी आ रही है। भारतीय संविधान में प्रेस को अलग से स्वतंत्रता प्रदान नहीं की गई है बल्कि उसकी स्वतंत्रता भी नागरिकों की अभिव्यक्ति और स्वतंत्रता में ही निहित है और देश की एकता तथा अखण्डता खतरे में पड़ने की स्थिति में इस स्वतंत्रता को बाधित भी किया जा सकता है किन्तु ऐसी कोई स्थिति निर्मित नहीं होने पर भी देश में पत्रकारिता का चुनौतीपूर्ण बनते जाना लोकतंत्र के हित में कदापि नहीं है। यदि प्रेस की स्वतंत्रता पर इसी प्रकार प्रश्नचिन्ह लगते रहे तो पत्रकारों से सामाजिक सरोकारों से जुड़े मुद्दे उठाने की कल्पना कैसे की जा सकेगी?
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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