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    न्यायपूर्ण समाज की स्थापना पर राष्ट्रपति का जोर

  • September 13, 2021

    – सियाराम पांडेय ‘शांत’

    राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने प्रयागराज में राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय के शिलान्यास के बाद न्यायपालिका में महिलाओं की संख्या बढ़ाने पर तो जोर दिया ही, न्यायपालिका में 12 प्रतिशत से कम महिलाओं की सहभागिता पर चिंता भी जताई। इस दौरान वे यह बताना नहीं भूले कि वर्ष 1925 में भारत की पहली महिला वकील का पंजीकरण इलाहाबाद उच्च न्यायालय में ही हुआ था। उन्होंने हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय में तीन महिला न्यायाधीशों की नियुक्ति पर प्रसन्नता जताई। साथ ही कहा कि न्यायपालिका में महिलाओं की भूमिका बढ़ने के बाद ही न्यायपूर्ण समाज की स्थापना हो सकेगी। उन्होंने सबको न्याय देने की भावना के तहत काम करने और न्यायपालिका के प्रति जन विश्वास जगाने की जरूरत पर बल दिया। उन्होंने कहा कि अदालतों में लंबित मामलों के निस्तारण, जजों की संख्या संख्या बढ़ाने और अन्य संसाधन उपलब्ध कराने से ही न्याय प्रक्रिया मजबूत होगी।

    उन्होंने कहा कि लोग न्यायालय से मदद लेने में हिचकिचाते हैं। सवाल यह है कि ऐसा क्यों है? बाबा आदम के जमाने से यह बात कही जा रही है कि कोर्ट कचहरी जाने पर जब तक न्याय मिलता है तब तक वादी का आर्थिक दिवाला निकल जाता है। सस्ता और सहज न्याय उपलब्ध कराने की बात इस देश में आजादी के बाद से ही की जा रही है लेकिन क्या वजह है कि अदालतें इस कसौटी पर खरी नहीं उतर पा रही है। राष्ट्रपति ने बेहद पते की बात कही है कि सभी को समझ में आने वाली भाषा में निर्णय हो। सभी नागरिकों का मूलभूत अधिकार है कि न्याय उनकी पकड़ में हो।

    देश के प्रथम नागरिक को अगर यह बात कहनी पड़ रही है तो इसका मतलब है कि समस्या गंभीर है। उन्होंने जनसाधारण में न्यायपालिका के प्रति उत्साह बढ़ाने की बात कही है लेकिन सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में वाद दायर करना पाना क्या किसी गरीब के बूते का है। क्या न्यायालय इस दिशा में कोई आचार संहिता बना सकते हैं? क्या याचिका स्वीकरण, नोटिस, जिरह और निर्णय की प्रक्रिया तीन या चार न्यायिक कार्य दिवसों में पूरी हो सकती है। यदि नहीं तो फिर लोगों को सस्ता और सहज न्याय कैसे मिल पाएगा, इस पर इस देश के न्यायविदों को सोचना होगा। जजों की संख्या बढ़ाने, पर्याप्त संसाधन उपलब्ध कराने का दायित्व केंद्र और राज्य सरकारें निभा भी दें लेकिन जिस तरह वकीलों की मानसिकता है कि मुवक्किल को लंबी अवधि तक फंसाए रखो, उससे तो नहीं लगता कि देश की न्याय व्यवस्था में कोई ठोस परिवर्तन होने जा रहा है। इस मोर्चे पर सर्वोच्च न्यायालय को ही एक स्टैंडिंग आर्डर जारी करना पड़ेगा।

    भारत के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमण ने कहा कि अदालतों में लंबित मुकदमे चिंताजनक हैं। बार और बेंच दोनों मिलकर कार्य करें। इस तरह की चिंता देश के लगभग सभी मुख्य न्यायाधीश जाहिर कर चुके हैं लेकिन बार और बेंच के बीच समन्वय कितना है, यह भी किसी से छिपा नहीं है। इस दिशा में गंभीर आत्म मंथन और ठोस रणनीति बनाने की भी जरूरत है।

    मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इस अवसर पर विश्वास जाहिर किया है कि वे प्रदेश के हर न्यायालय को अत्याधुनिक बनाएंगे। डिजिटल माध्यम से अब मामलों की सुनवाई होगी। 70 करोड़ रुपए इसके लिए स्वीकृत किए गए हैं। उन्होंने कहा है कि प्रयागराज का हाईकोर्ट एशिया का सबसे बड़ा न्यायालय है। 24 करोड़ जनता यहां न्याय के लिए आती है। यहां 4 हजार वाहनों को पार्क करने के लिए हाईकोर्ट में पार्किंग बन रही है। इसके अलावा 6 हजार अधिवक्ताओं के लिए चैंबर बनाए जा रहे हैं। राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय से नई पीढ़ी को शिक्षा के साथ शोध के लिए नए आयाम देगा। प्रयागराज में धर्म, न्याय और शिक्षा का भी संगम है।

    गौरव की बात यह है कि हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के इतिहास में पहली बार नौ नए न्यायाधीशों ने एक साथ पद की शपथ ली है। तीन महिलाओं जस्टिस हिमा कोहली, नागरत्ना और बेला एम त्रिवेदी को एक साथ सर्वोच्च न्यायालय का जज बनाया गया है। जस्टिस नागरत्ना सितंबर 2027 में देश की पहली महिला प्रधान न्यायाधीश बन सकती हैं। इन तीन नई नियुक्तियों के साथ ही सर्वोच्च न्यायालय में महिला जजों की संख्या चार हो गई है। जस्टिस इंदिरा बनर्जी पहले से सुप्रीम कोर्ट की जज हैं। इससे पहले अगस्त 2018 से मई 2020 के दौरान सुप्रीम कोर्ट में तीन महिला जज-जस्टिस आर भानुमति, इंदिरा बनर्जी और इंदु मल्होत्रा थीं। जस्टिस आर भानुमति और इंदु मल्होत्रा की सेवानिवृत्ति के बाद सर्वोच्च न्यायालय में इंदिरा बनर्जी ही एक मात्र महिला जज बची थीं। यह और बात है कि इसी सर्वोच्च न्यायालय में एक दौर में 8 महिला जज हुआ करती थीं।

    वर्ष 2020 में संसद के मानसून सत्र में तत्कालीन विधि मंत्री रविशंकर प्रसाद ने जानकारी दी थी कि उच्च न्यायालयों और सुप्रीम कोर्ट को मिलाकर कुल 1,113 न्यायाधीश हैं, जिनमें केवल 80 महिला जज हैं, जो प्रतिशत के हिसाब से महज 7.2 प्रतिशत है। इन 80 महिला जजों में भी सिर्फ दो सुप्रीम कोर्ट में हैं और बाकी 78 जज विभिन्न उच्च न्यायालयों में हैं।

    उन्होंने जिन 26 कोर्ट के डेटा शेयर किए थे, उनमें सबसे अधिक महिला जज (85 में से 11) पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट में हैं। इसके बाद मद्रास हाईकोर्ट में 75 में से 9 महिला जज हैं। मुंबई और दिल्ली हाईकोर्ट में 8 महिला जज हैं। छह हाईकोर्ट मणिपुर, मेघालय, पटना, तेलंगाना, उत्तराखंड, त्रिपुरा में कोई महिला जज नहीं है। 6 अन्य हाईकोर्ट में एक-एक महिला जज हैं।

    15 अगस्त 2018 को लाल किले से भाषण देते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि यह हमारे लिए गर्व का विषय है कि हमारे देश के सुप्रीम कोर्ट में तीन महिला जज बैठी हुई हैं। कोई भी भारत की नारी गर्व कर सकती है कि तीन महिला जज न्याय कर रही हैं। अब वे चार महिला जजों की संख्या पर अपनी पीठ थपा सकते हैं लेकिन यह संख्या बहुत कम है। इस पर अत्यंत गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए।

    लम्बे समय से बड़ी अदालतों में महिला जजों की संख्या बढ़ाने की मांग होती रही है। गत वर्ष दिसंबर महीने में भारत के अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने कहा था कि सुप्रीम कोर्ट सहित न्यायपालिका के सभी स्तरों पर महिलाओं का कम से कम 50 प्रतिशत सहभागिता होनी चाहिए और यह पहल सर्वोच्च न्यायालय के स्तर से ही होनी चाहिए।

    सर्वोच्च न्यायालय की महिला वकीलों की एसोसिएशन ने बड़ी अदालतों में महिला जजों की संख्या बढ़ाने को लेकर एक याचिका वर्ष 2015 में दायर की थी। तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति जे.एस.खेहर के नेतृत्व वाली चार जजों की पीठ ने भी यह स्वीकार किया था कि बड़ी अदालतों में जजों की संख्या बहुत कम है। उन्होंने भारत सरकार से इस मामले में और ध्यान देने के लिए कहा था। मार्च 2021 में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एस. ए. बोबडे ने कहा था कि हम चाहते हैं कि महिलाएं जज बनें, लेकिन उनका बाकी भी काम होता है। उन्हें घर भी संभालना होता है। इस तरह के विचार स्वागत योग्य नहीं हैं। महिलाओं को उदार मन से दायित्व देना चाहिए और यही लोकहित का तकाजा भी है।

    सहारनपुर के सांसद हाजी फजलुर्रहमान ने महिला और पुरुष जजों के साथ-साथ उच्चतम न्यायालय और विभिन्न उच्च न्यायालयों में अल्पसंख्यक समुदाय और अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजातियों से संबंधित जजों की संख्या को लेकर भी सवाल पूछा था, लेकिन तत्कालीन कानून मंत्री किरन रिजिजू ने कहा कि उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति भारत के संविधान के अनुच्छेद 124 और अनुच्छेद 224 के अधीन की जाती है, जो व्यक्तियों की किसी जाति या वर्ग के लिए आरक्षण का उपबंध नहीं करते हैं।

    न्यायपालिका में महिला न्यायाधीशों की संख्या बढ़नी चाहिए और इसके साथ ही हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं में निर्णय देने की व्यवस्था भी होनी चाहिए। हिंदी से न्याय आंदोलन के शीर्ष पुरुष चंद्रशेखर उपाध्याय हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में देश की बड़ी अदालतों में वाद दायर करने,सुनवाई करने और निर्णय देने की मांग लंबे अरसे से कर रहे हैं। सरकार को उनकी मांग पर विचार करना चाहिए क्योंकि अंग्रेजी सामान्य समझ की भाषा नहीं है। इसलिए भी बड़ी अदालतों को अंग्रेजी के व्यामोह से बाहर आना चाहिए और इस देश की भाषाओं में न्याय देना सुनिश्चित करना चाहिए ताकि मुवक्किल भी समझ सके कि वकील ने जो अदालत में कहा, वह उसके हितों के अनुरूप था या नहीं और अदालत ने जो निर्णय दिया, उससे वह संतुष्ट हो सकता है या नहीं। यही एक मार्ग है जो जनसामान्य में न्यायपालिका के प्रति सम्मान और प्रतिष्ठा बढ़ा सकता है।

    (लेखक हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)

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