भोपाल। चुनावी साल में सरकार प्रदेश के अधिकारियों-कर्मचारियों को पदोन्नति की सौगात देने जा रही है। इसके लिए उच्च स्तर पर पदोन्नति शुरू करने पर विचार किया जा रहा है। उम्मीद की जा रही है कि सरकार जून से सितंबर के बीच पदोन्नति शुरू कर देगी। सरकार ऐसा करके विधानसभा चुनाव से पहले राज्य सरकार अधिकारियों-कर्मचारियों की नाराजगी दूर करेगी। हालांकि, पदोन्नति उच्चतम न्यायालय के निर्णय के अधीन रहेगी। यानी न्यायालय का जो निर्णय रहेगा, अधिकारियों-कर्मचारियों को स्वीकार होगा।
गौरतलब है कि प्रदेश में सात साल से पदोन्नति पर रोक है। पिछले सात साल में प्रदेश में करीब 70 हजार कर्मचारी सेवानिवृत्त हो चुके हैं। इनमें से करीब 39 हजार कर्मचारी ऐसे हैं, जिन्हें सेवानिवृत्ति से पहले पदोन्नति मिलनी थी। हर साल पांच हजार से अधिक कर्मचारी सेवानिवृत्त हो रहे हैं और कहीं ना कहीं यह कसक है कि वे जिस पद का अधिकार रखते हैं, वह नहीं बन पाए हैं। उल्लेखनीय है कि राज्य सरकार ने अधिकारियों-कर्मचारियों की नाराजगी दूर करने के दूसरे विकल्प के रूप में वरिष्ठ पद का प्रभार देना शुरू किया है। पुलिस और जेल विभाग के कर्मचारियों को आठ माह पहले यह लाभ दिया जा चुका है। अब स्कूल शिक्षा विभाग के कर्मचारियों को प्रभार दिया जा रहा है, पर अधिकारी और कर्मचारी इससे संतुष्ट नहीं हैं। उनका कहना है कि प्रभार देना अलग बात है और पदोन्नति अलग। वरिष्ठ प्रभार मिलने से पैसा तो मिल जाएगा, पर वह प्रतिष्ठा (हैसियत) नहीं मिलेगी।
उच्च स्तर पर हो रहा मंथन
सरकारी अधिकारी-कर्मचारियों की पदोन्नति पर रोक से कर्मचारियों में भारी निराशा और सरकार असंतोष व्याप्त है। राज्य सरकार चुनाव से पहले पदोन्नति शुरू कर अधिकारियों-कर्मचारियों की नाराजगी दूर करने की तैयारी में करने को लेकर विचार किया जा रहा है। उम्मीद रही है कि सरकार जून से सितंबर के बीच पदोन्नति शुरू कर देगी। हालांकि पदोन्नति सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के अधीन रहेगी। यानी न्यायालय का जो निर्णय रहेगा, अधिकारियों-कर्मचारियों को स्वीकार होगा। मप्र तृतीय वर्ग कर्मचारी संघ के सचिव उमाशंकर तिवारी और मप्र लिपिक वर्गीय शासकीय कर्मचारी संघ के अध्यक्ष एमपी द्विवेदी कहते हैं कि पदोन्नति कर्मचारियों का अधिकार है और यह मिलना ही चाहिए। इसे लेकर आंदोलन की चेतावनी भी दी है। ऐसा नहीं किए जाने से कर्मचारियों का नुकसान हो रहा है।
2016 से लगा है प्रतिबंध
बता दें कि अप्रैल 2016 को जबलपुर उच्च न्यायालय ने मध्य प्रदेश लोक सेवा (पदोन्नति) नियम 2002 निरस्त कर दिया था। इसके विरुद्ध सरकार उच्चतम न्यायालय चली गई और तभी से मामला लंबित है। इस कानून में अनुसूचित जाति-जनजाति वर्ग के कर्मचारियों को पदोन्नति में आरक्षण देने का प्रावधान है। राज्य सरकार ने हाईकोर्ट के इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है। यह मामला अभी सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है। हाईकोर्ट के फैसले के बाद से प्रदेश में कर्मचारियों की पदोन्नति पर रोक लगी है। तब से अब तक 70 हजार से ज्यादा अधिकारी-कर्मचारी सेवानिवृत्त हो चुके हैं, इनमें कई ऐसे अधिकारी-कर्मचारी हैं, जो पदोन्नति के बिना ही सेवानिवृत्त हो गए। तभी से कर्मचारी संगठन सरकार से पदोन्नति देने की मांग कर रहे हैं।
ढाई हजार करोड़ का आएगा अतिरिक्त भार
सरकारी आंकलन के तहत अगर कर्मचारियों को प्रमोशन मिलता है तो खजाने पर सालाना ढाई हजार करोड़ रुपए का अतिरिक्त भार आएगा। उधर कर्मचारियों के प्रमोशन तो नहीं हो रहे हैं लेकिन आईएएस, आईपीएस और आईएफएस समेत राज्य प्रशासनिक सेवा के अफसरों के प्रमोशन हो रहे हैं। कमलनाथ सरकार में ये मामला विधानसभा में भी उठा था। तत्कालीन स्पीकर ने निर्देश दिए थे कि जब तक प्रमोशन का फैसला नहीं हो जाता तब तक अफसरों को भी प्रमोशन ना दिया जाए। लेकिन सत्ता बदलने के साथ ही ये निर्देश और कर्मचारियों की किस्मत भी फाइलों में कैद होकर रह गई। गौरतलब है कि प्रदेश में 2016 से सरकारी विभागों में प्रमोशन नहीं हो रहा है। इसकी वजह हाईकोर्ट में 2002 में बनाए गए प्रमोशन नियम को रद्द किया जाना है। तर्क दिया गया है कि सेवा में अवसर का लाभ सिर्फ एक बार दिया जाना चाहिए। नौकरी में आते समय आरक्षण का लाभ मिल जाता है फिर पदोन्नति में भी आरक्षण का लाभ मिल रहा था। इसे लेकर सामान्य वर्ग के कर्मचारियों को आपत्ति थी। इसलिए हाईकोर्ट ने पदोन्नति का नियम ही खारिज कर दिया। कोर्ट ने राज्य सरकार को निर्देश दिया कि आरक्षण रोस्टर के हिसाब से जो पदोन्नति हुई उन्हें रिवर्ट किया जाए। हालांकि अब सरकार चुनावी साल में अधिकारियो-कर्मचारियों को प्रमोशन देने की तैयारी कर रही है। सबकुछ ठीक रहा तो जून से पदोन्नति की सौगात मिलनी शुरू हो जाएगा।
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