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    मृत्युपूर्व बयान को मानने या खारिज करने का कोई सख्त मानक नहीं, SC ने दिए ये तर्क

  • March 28, 2021

    नई दिल्‍ली । सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने कहा, मरने से पहले दिए गए बयान को मानने या खारिज करने के लिए कोई सख्त मानक नहीं है। यह किसी आरोपी को दोषी ठहराने के लिए अकेले ही पर्याप्त है, बशर्ते यह बयान स्वेच्छा से और विश्वास को बढ़ाने वाला हो। शीर्ष अदालत ने यह भी कहा कि अगर कोई विरोधाभास हुआ और उससे बयान की सच्चाई और साख को लेकर कोई संदेह पैदा होता है तो इसका फायदा आरोपी (Accused) को ही मिलेगा।

    जस्टिस नवीन सिन्हा और जस्टिस कृष्ण मुरारी की पीठ ने अपने एक फैसले में दिल्ली हाईकोर्ट (Delhi High Court) के अगस्त, 2011 के एक फैसले को चुनौती देने वाली अपील को खारिज करते हुए यह अहम टिप्पणी की। हाईकोर्ट (High Court) ने एक महिला की निर्मम हत्या करने के दो आरोपियों को बरी करने के ट्रायल कोर्ट के फैसले को बरकरार रखा था।

    पीठ ने कहा, मरने के पहले दिया गया बयान (Dying Declaration) भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 32 के तहत अहम साक्ष्य (Evidence) माना जाता है। यह किसी को दोषी ठहराने के लिए अपने आप में पर्याप्त है। अगर बयान में कोई विरोधाभास नजर आता है, जिससे बयान की सच्चाई को लेकर संदेह पैदा होता है और इससे साख पर असर पड़ता हो या फिर आरोपी मरने वाले के बयान और मौत के तरीके और प्रकृति के संदर्भ में संदेह पैदा करने में सक्षम हो जाता है तो इसका फायदा आरोपी को ही मिलेगा। यह बहुत कुछ केस के तथ्यों पर भी निर्भर करेगा। शीर्ष अदालत ने यह फैसला 25 मार्च को सुनाया था, जो शनिवार को सामने आया।


    कोर्ट ने कहा, ऐसे कोई साक्ष्य नहीं कि मृतका बयान देने की हालत में रही होगी
    तमाम परिस्थितियों के मद्देनजर शीर्ष कोर्ट ने इस बात पर गौर किया कि मरने वाली का बयान संदेह पैदा करता है। कोर्ट ने कहा कि इस मामले में डॉक्टरों की मौजूदगी समेत ऐसा कोई साक्ष्य नहीं है कि जिससे यह पता लगाया जा सके कि मृतका बयान देने की हालत में रही होगी या फिर उसकी मानसिक स्थिति ठीक रही होगी। इससे मरने वाली के बयान की सच्चाई को लेकर संदेह पैदा होता है। ऐसे में बचाव पक्ष के आत्महत्या वाली बात को सीधे तौर पर खारिज करना सुरक्षित नहीं होगा। इसी के साथ कोर्ट ने अपील खारिज कर दी।

    यह था मामला
    सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) में यह याचिका एक व्यक्ति ने 1991 के एक मामले में मृत बहन के पति और ननद को बरी किए जाने के खिलाफ दी थी। 17 सितंबर, 1991 को महिला अपनी ससुराल में 95 फीसदी जली हुई हालत में मिली थी और अगले दिन अस्पताल में उसकी मौत हो गई थी। याचिकाकर्ता के वकील ने दलील दी थी कि हाईकोर्ट (High Court) ने आरोपी को संदेह का लाभ दिया। यह संदेह पैदा किया गया कि मृतका ने खुदकुशी की थी।

    शीर्ष अदालत ने मामले पर गौर करने के बाद पाया कि आरोपी ने यह कहते हुए बचाव किया था कि मृतका और उसके बीच प्रगाढ़ संबंध थे, मगर उसकी पत्नी गर्भधारण नहीं कर पाने के चलते बेहद अवसाद में थी और इसी के चलते उसने आग लगाकर खुदकुशी कर ली थी।

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