– हृदयनारायण दीक्षित
प्राण से जीवन है। प्राण से प्राणी है। प्राण दिखाई नहीं पड़ते। इसके बावजूद प्राण का अस्तित्व है और प्राण के कारण ही जीव का अस्तित्व है। प्रश्नोपनिषद में कहा गया है कि ‘‘सहस्त्रों किरणों वाला, सैकड़ों रूपों वाला समस्त जीवों का प्राण सूर्य उदित हो रहा है।‘‘ यहाँ सूर्य संसार का प्राण है। प्राण किसी अभौतिक तत्व का नाम नहीं है। बेशक वह दिखाई नहीं पड़ता, लेकिन उसका अस्तित्व है। प्राण अध्यात्म का विषय भी है और भौतिकवाद का भी। ऋग्वेद (7.87.2) के अनुसार, ‘‘यह प्राण मूलतः वायु है। आत्मा के लिए कहते हैं कि, ‘‘तेरी आत्मा वायु है।‘‘ प्रश्नोपनिषद में कहते हैं यह प्राण आत्मा से उत्पन्न होता है। प्राण भौतिक तत्व है। उसका जन्म आत्मा से हुआ बताया गया है तो जन्मदाता आत्मा भी भौतिक ही होगा। विश्व दर्शन में सृष्टि के आदि तत्व की जिज्ञासा रही है। क्या सृष्टि के प्रारम्भ में कोई आदि तत्व था? इस प्रश्न पर दुनिया के सभी दार्शनिक माथा-पच्ची करते रहे हैं। ऋग्वेद में भी इस समस्या पर अनेक विचार हैं और यूनानी दर्शन में भी।
कुछ विद्वान जल को सृष्टि के आदि तत्व मानते थे। कुछ विद्वान अग्नि और वायु को भी। ईशावास्योपनिषद् में जीवों के भीतर स्थित प्राण को वायु कहा गया है और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में प्रवाहित वायु को अनिल। प्रार्थना है कि हमारा प्राण विश्व के प्राण अर्थात अनिल में समाहित हो। व्यक्ति के लिए जो प्राण है। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में वही अनिल है। ऋग्वेद में अदिति सम्पूर्णताः की पर्याय देवी या देवता है। वह सदा से हैं। कठोपनिषद में उन्हें प्राण से उत्पन्न बताया गया है। कठोपनिषद में कहते हैं कि “उन्हें ज्ञानी ही देखते हैं।” यहाँ अदिति प्रकृति है। अदिति का जन्म प्राण से हुआ है। प्राण वस्तुतः वायु है। वायु आदि तत्व है। प्राण के कारण ही प्राणियों का अस्तित्व है। इसी उपनिषद में कहते हैं ‘‘यहाँ इस संसार में जो कुछ है वह सब प्राण की गति से उत्पन्न हुआ है।‘‘
सूर्य प्रकृति का भाग है। प्रकाश का पर्याय है। अग्नि के रूप में प्रकट होता है। प्रश्नोपनिषद में कहते हैं कि प्राण शक्ति आदित्य या अग्नि के रूप में प्रकट होती है। कहते हैं, ‘‘आदित्यो ह वै प्राणः -आदित्य ही प्राण है। सूर्य सम्पूर्ण प्रकृति को प्रकाशित करते हैं। उपनिषद में कहते हैं कि वह अपनी किरणों को प्राणों में रखता है। वह अग्नि के रूप में उदित होता है। सूर्य की किरणें सहस्त्रों हैं। इनमें प्राण है। सूर्योदय को देखते हुए कहते हैं कि सभी जीवों का प्राण यह सूर्य उदित हो रहा है। यह सूर्य सभी प्राण शक्तियों का कोष भी है।”
मान्यता रही होगी इस संसार को देवता धारण करते हैं। भौतिकवादी इस विचार को भाववादी कह सकते हैं, लेकिन प्रश्नोपनिषद में संसार धारण करने वाले देवों की सूची पठनीय है, ‘‘आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, वाणी, मन, आँख और कान ये देवता संसार को धारण करते हैं। इनमें प्राण वरिष्ठ हैं -तान्वरिष्ठ प्राणः।‘‘ प्राण जीवन शक्ति के संचालक हैं। इन्द्रियाँ हमको संसार से जोड़ती हैं। वे प्राण शक्ति से प्रेरित है लेकिन प्राण को देख नहीं पाती। प्राण अनुभव में आता है। प्रकृति के गोचर प्रपंचों का संचालक हैं, लेकिन हमारा इन्द्रियबोध उसे पकड़ नहीं पाता। वह भिन्न-भिन्न रूपों में प्रकट होता है। उपनिषद में कहते हैं ‘‘प्राण ही अग्नि रूप में तपता है। वही सूर्य है। वही वर्षा का देव है। वही इन्द्र है। वही वायु है।‘‘
प्राण ने सम्पूर्ण जगत को आच्छादित कर रखा है। उपनिषद में कहते हैं ‘‘जैसे किसी रथ की नाभि में अरा लगे होते हैं वैसे ही सब प्राण में प्रतिष्ठित हैं। यह प्राण ही प्रजापति है। वही गर्भ में आता है। वही आयु की पूर्णता में विदा होता है। वह अग्नि है। इन्द्र, रुद्र और सूर्य हैं। सम्पूर्ण व्यक्त-अव्यक्त जगत प्राण के अधीन है। प्राण आत्मा से उत्पन्न होता है। भौतिकवादी कह सकते है कि ‘‘प्रत्यक्ष प्रभावित करने वाला प्राण अप्रत्यक्ष आत्मा से कैसे पैदा हो सकता है? प्राण को वायु का पिता कहा गया है। इस तरह से वायु को आदि तत्व मानने वाले के लिए प्राण आदि तत्व हो जाता है। प्राण से प्रार्थना है कि वह हमारा जीवन सुखमय बनाए। हमें न छोड़े।
प्राण वर्षा भी है। वर्षा के रूप में सबको आनन्दित करता है। एक विचार है कि आत्मा-परमात्मा में लीन होने के बाद आनन्द देती हैं, लेकिन यहाँ प्राण के द्वारा ही आनन्द है। प्राण कई रूप धारण करता है। वह अपने अंशों को अलग-अलग काम देता है। प्राणों के अलग-अलग नाम भी बताए गए हैं। आँख, कान, मुख और नाक में मुख्य प्राण है। शरीर के भीतर अन्नपाचन का काम ‘समान‘ करता है। समान की गतिविधि से आँख, कान, नाक, मुँह अपना काम करते हैं। शरीर में सैकड़ों नाड़ियाँ फैली हुई हैं। इनमें संचालित प्राण व्यान कहा गया है। ऊपर जाने वाली अथवा ऊध्र्वमुख नाड़ियों में संचालित प्राण का नाम उदान है। तेज का सम्बंध उदान से है। तेज के शान्त हो जाने पर प्राण तेज से युक्त होकर संकल्पित लोक हो जाता है। उपनिषद में कहते हैं ‘‘जो प्राण का रहस्य जानता है वह अमर है।‘‘
निद्रा की दिशा में इन्द्रियाँ अपना काम नहीं करती। लेकिन शरीर के भीतर प्राण, अग्नि जागती रहती है। ऋषियों ने इसे यज्ञ कहा है। प्राण की गतिविधि को गहराई से जाँचने वाले पूर्वजों ने इसे योग से जोड़ा। योग प्रत्यक्ष साधना है। शरीर की ऊर्जा का मुख्य आधार प्राण है। शारीरिक गतिविधि के कम होने के कारण शरीर के सहस्त्रों कोषों तक प्राण का संचरण नहीं होता। प्राण का संचरण शरीर की गतिविधि के लिए अनिवार्य है। प्रकृति की प्राण शक्ति से अन्तः सम्बन्ध बनाना प्राणायाम है। प्राणायाम की कार्यवाही को प्रथमदृष्टया शारीरिक कहा जा सकता है। सांस को धीरे-धीरे भीतर लेना फिर रोकना, धीरे-धीरे बाहर निकालना और फिर रोकना निश्चित ही भौतिक कार्यवाही है। लेकिन इसमें श्रद्धा और भावना की भी शक्ति जोड़ना शीघ्र परिणामदायी है। प्राणायाम के समय गहरी सांस के माध्यम से हम प्राण भरते हैं। शरीर के प्रत्येक कोष में प्राण का संचार होता है। शरीर प्राण पाकर आनन्दित होता है। इस आनन्द का अनुभव भी आनन्द है। यह यूरोपीय ढंग का भाववाद नहीं है। इसी प्रकार श्वास वायु को बाहर निकालना और रोकना भी अनुभव करने लायक है। तब शरीर का एक-एक कोष प्राणों का प्यासा हो जाता है। यूरोप के चिन्तन में परमात्मा या ईश्वर पलक झपकते ही संसार या विश्व रच डालता है। यहाँ वैसा भाववाद नहीं है।
(लेखक, उत्तर प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष हैं।)
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