– डॉ. अरविन्द पाण्डेय
रामनवमी, आदर्शों के पुंज मर्यादा पुरुषोत्तम के इस धराधाम पर अवतीर्ण होने का पावन दिवस है। अगस्त्य संहिता के अनुसार चैत्र शुक्ल नवमी को मध्याह्न में पुनर्वसु नक्षत्र में जब चंद्रिका, चंद्र और बृहस्पति तीनों समन्वित थे; पाँच ग्रह अपनी उच्चावस्था में थे, सूर्य मेष राशि में थे, लग्न कर्कटक थी, तब श्रीराम का जन्म हुआ था। इस दिन किया हुआ व्रतानुष्ठान अगस्त्य संहिता के अनुसार सांसारिक सुख एवं अलौकिक आनंद देने वाला है। अशुद्ध, पापिष्ठ व्यक्ति भी इस व्रत से अपने पापों से मुक्त हो जाता है और सबसे सम्मान पाता है।
रामनवमी का पर्व देश के कोने-कोने में बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। इसका धार्मिक-परंपरागत स्वरूप जो भी हो; इसका मूल उद्देश्य भगवान श्रीराम की परम पावन लीलाओं का सुमिरन करना और उनके आदर्श चरित्र का चिंतन-मनन करना है तथा उनके द्वारा निर्देशित एवं स्थापित आदर्शों के अनुरूप अपने आप को ढालने का सचेष्ट प्रयास-पुरुषार्थ करना है। वर्तमान मर्यादाहीनता एवं नैतिक अवमूल्यन के क्षणों में इसकी आवश्यकता सर्वोपरि है।
आज विघटन एवं विध्वंस की स्थिति बड़ी गंभीर है। इस बीच सृजन की सुखद संभावनाओं की आहट भी विज्ञजन महसूस करते हैं, किंतु प्रबलता विनाशकारी शक्तियों की ही दृश्यमान है। पूरे समाज, जनमानस पर अनास्था, मर्यादाहीनता एवं अराजकता का साया छाया हुआ है। व्यक्ति के जीवन की दिशा धूमिल है। परिवार, समाज, राष्ट्र- सभी विघटन-बिखराव की ओर प्रवृत्त दिख रहे हैं। इन सबके मूल में मानवीय मन की बहकी-भटकी हुई आकांक्षाएँ काम कर रही हैं। जिनको हवा देने में पिछले समय में सक्रिय भोगवादी विचारधारा ने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है।
हमारी सांस्कृतिक परंपरा में संकीर्ण ‘स्व’ को महत्त्व नहीं दिया गया है; क्योंकि इसको प्रश्रय देना जीवन को बिखराव विखंडन की ओर ले जाता है। वर्तमान समाज में भ्रष्टाचार, अपराध, आतंक एवं हिंसा, आत्महत्या आदि की घटनाएँ इसी की चरम परिणतियाँ हैं। आध्यात्मिक परंपरा में इस ‘स्व’ को, ‘अहं’ को तुच्छ एवं नगण्य माना गया है; क्योंकि यह अहं स्व-केंद्रित क्षुद्रता एवं संकीर्ण स्वार्थपरता को ही जन्म देता है। अतः इसकी जगह यहाँ सर्वांतर्यामी एवं सर्वव्यापी ईश्वर के सनातन अंश के रूप में अपने ‘स्व’ की पहचान की गई है।
“मैं अरु मोर तोर तैं माया” (मानस-3,14,1/2)। ‘मैं’ के रूप में क्षुद्र ‘स्व’ को यहाँ माया, भ्रम, मोह, अज्ञान एवं मूढ़ता माना गया है। इसके त्याग अर्थात परिष्कार को ही यहाँ जीवन-साधना का उद्देश्य माना गया। ‘स्व’ का विकास उसी सीमा तक वांछनीय है; जहाँ तक वह समाज के हित में प्रतिकूल न हो। अतः ‘स्व’ को अनंत छूट नहीं मिलनी चाहिए, जैसा कि भोगवादी विचारधारा मानती है। उस पर नीति-मर्यादा का अंकुश अनिवार्य है। मर्यादा का निर्वाह किए बिना ‘स्व’ का पूर्ण विकास संभव भी नहीं।
प्रभु श्रीराम का जीवन मर्यादा-निर्वाह के आदर्श चरित्र के रूप में मानवीय इतिहास का एक जाज्वल्यमान प्रकाशपुंज है। अतः आदिकवि महर्षि वाल्मीकि द्वारा उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम से अलंकृत किया गया। पग-पग पर श्रीराम के जीवन में मर्यादा- निर्वाह के उच्चतम आदर्श को जीवंत होते देखते हैं। जीवनपर्यंत मर्यादा निर्वाह उनकी विलक्षणता है।
विद्याध्ययन के दौरान वे एक आदर्श शिष्य की मर्यादा का पालन करते हैं। उन्होंने गुरु की सादर सेवा करते हुए विनयपूर्वक विद्या ग्रहण की; जबकि उन्हें ज्ञान के बतौर कुछ सीखना शेष नहीं था।
“जाकी सहज स्वास श्रुति चारी” (मानस-1,203, 2-1/2) के अनुसार वे सर्वांगपूर्ण थे। किंतु वे असामान्य होते हुए भी मर्यादा-पालन हेतु सामान्य ही बने रहे। यहाँ निम्न ‘स्व’ अर्थात अहं की कहीं गंध तक नहीं आती।
इसी तरह राज-रसभंग प्रसंग में युवराज पद पर जन्मसिद्ध अधिकार होते हुए भी वे कुलहित-परहित के विचार में ‘स्व’ को मर्यादित रखते हैं और चेहरे पर बिना एक शिकन के सहर्ष चौदह वर्ष का कष्टसाध्य वनवासी जीवन अंगीकार करते हैं।
सागर तट प्रसंग में इसी मर्यादा का अप्रतिम उदाहरण प्रस्तुत होता है। प्रभु का एक ही बाण कोटि सिंधु शोषण में समर्थ था, लेकिन प्रभुश्री ने तीन दिन तक विनयपूर्वक प्रतीक्षा करते हुए मर्यादा- पालन की अपूर्व मिसाल प्रस्तुत की।
करुणानिधान प्रभु श्रीराम के लिए सदैव लोक-कल्याण, दूसरे का भला ही सर्वोपरि रहा। इसी को वे सर्वश्रेष्ठ कार्य एवं सर्वश्रेष्ठ धर्म मानते हैं।
“पर हित सरिस धर्म नहिं भाई।” (मानस-7, 40, 1/2) उनके जीवन का मूलमंत्र था। उनका समूचा जीवन ही जैसे परहित के महायज्ञ की आहुति रहा। रावण-राक्षसादि आततायियों का संहार भी लोक-कल्याण के आदर्श से ही प्रेरित था। इस तरह परहित का आदर्श प्रभु के लिए सदैव सर्वोपरि रहा। शबरी को नवधा भक्ति का अमृतपान कराते हुए प्रभु श्रीराम कहते हैं-
“प्रथम भगति संतन्ह कर संगा।” (मानस- 3/34/4) संतों को इतना ऊँचा स्थान इसलिए दिया गया कि वे सदैव जगत हित में निमग्न रहते हैं- “संत सरल चित जगत हित” (मानस-1 /3ख)।
राजा के रूप में भी प्रभु श्रीराम का चरित्र इसी आदर्श से ओत-प्रोत था। रामराज्य का अलौकिक सुख प्रभुश्री के इसी चरित्र का फल था। जिसके प्रताप से प्रजा भी श्रद्धावनत होकर उसी आदर्श पर न्योछावर थी। “राम भगति रत नर अरु नारी” (मानस-7/20/2)। इस तरह रामराज्य में राजा और प्रजा सब परहित के आदर्श से प्रेरित थे। रामराज्य अनंत सुख-समृद्धि एवं शांति से समृद्ध था; जिसकी आज भी एक आदर्श राज्य के रूप में मिसाल दी जाती है। इसके विपरीत वर्तमान स्थिति में जीवन ‘पर’ के बजाय ‘स्व’ पर केंद्रित है। सब अपने क्षुद्र अहं एवं संकीर्ण स्वार्थ के पोषण में लगे हुए हैं। आज की विघटनकारी परिस्थितियाँ इसी की उपज हैं। आज हमारा धर्म परहित नहीं, स्वहित हो गया है और हम अपने सहज संतत्त्व से विमुख हो गए हैं। नाना पापों में प्रवृत्त होकर लोक में पतित हो रहे हैं और अपना परलोक भी बिगाड़ रहे हैं-
“करहिं मोह बस नर अघ नाना।
स्वारथ रत परलोक नसाना॥” (मानस-7/40/2)
नर- पशु से भी पतित होकर साक्षात् असुरों का आचरण कर रहे हैं-
“पर द्रोही पर दार रत पर धन पर अपबाद।
ते नर पाँवर पापमय देह धरें मनुजाद॥” (मानस-7/39)
मनुष्य, समाज एवं संस्कृति के पतन की इस गंभीर स्थिति में रामनवमी का पुण्यपर्व इस दुर्दशा से उबरने के लिए संकल्पित होने का अवसर है। प्रभु श्रीराम के आदर्श चरित्र का चिंतन एवं उनकी परम पावन लीलाओं का स्मरण करते हुए यह सहज ही संभव है।
(लेखक, बीआरडीबीडीपीजी कॉलेज, देवरिया में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।)
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