डॉ दिलीप अग्निहोत्री
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की संरचना में शाखाएं सर्वाधिक महत्वपूर्ण होती हैं। यहीं से सामाजिक संगठन और निःस्वार्थ सेवा का संस्कार मिलता है। इसमें मातृभूमि की प्रार्थना की जाती है-नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमि। यह भाव राष्ट्र को सर्वोच्च मानने की प्रेरणा देता है। समाज के प्रति सकारात्मक विचार जागृत होता है। स्वयंसेवकों के समाज सेवा कार्य इसी भावना से संचालित होते हैं। देश में कहीं भी आपदा आती है,तब संघ के स्वयंसेवक वहां राहत कार्यों के लिए पहुंच जाते हैं। इनमें से किसी का कोई निहित स्वार्थ नहीं होता। यही स्वयंसेवक शब्द का निहित अर्थ है। कोरोना लहर के पहले व दूसरे दौर में भी स्वयंसेवकों ने सेवा भाव के अनुरूप आचरण किया। दूसरी लहर अधिक भीषण थी। इसमें भी स्वयंसेवक मेडिकल से लेकर अन्य राहत कार्यों में सतत सहयोग कर रहे हैं। इसके अलावा संघ वैचारिक रूप से भी सकारात्मक प्रयास कर रहा है। आपदा के दौर में पीड़ितों की सहायता करने के साथ समाज का मनोबल बढ़ाना भी आवश्यक होता है। संघ की प्रेरणा से जीतेंगे पॉजिटिव अनलिमिटेड वर्चुअल व्याख्यान की श्रृंखला का आयोजन शुरू किया गया। इसका उद्देश्य समाज में सकारात्मक वातावरण का निर्माण करना था। इसको समाज के अनेक प्रतिष्ठित लोगों ने संबोधित किया।
यह समाज हितैषी नागरिक,धार्मिक सामाजिक संगठनों की एक ऐसी पहल है जिसमें कोरोना संकट काल में महामारी से निपटने के लिए भारत के व्यापक प्रयासों के बीच समाज में सकारात्मक वातावरण के निर्माण के लिए व्याख्यान श्रृंखला का आयोजन किया गया। इसमें सद्गुरु जग्गी वासुदे ,जैन मुनिश्री प्रमाणसागर, श्री श्री रविशंकर, अज़ीम प्रेमजी, काँची कामकोटी, पीठम् , कांचीपुरम के शंकराचार्य जगद्गुरु विजयेंद्र सरस्वती, प्रसिद्ध कलाकार सोनल मानसिंह,आचार्य विद्यासागर जी महाराज, जैन मुनि,श्रीमहंत संत ज्ञानदेव सिंह के साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ.मोहन भागवत का संबोधन हुआ। इस वर्चुअल कार्यक्रम में आध्यात्मिकता,धार्मिक चर्चा,मानसिक स्वास्थ्य से लेकर जीवन को मजबूत बनाने जैसे विभिन्न पहलुओं पर विचार व्यक्त किये गए।
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयः ही संघ की विचार दृष्टि है। स्वयंसेवक का भाव भी इसी को रेखांकित करता है। निःस्वार्थ सेवा का विचार ही किसी को स्वयंसेवक बनाता है। सेवा कार्य में कोई भेदभाव नहीं होता। संघ के स्वयंसेवक पूरे देश में इस समय सेवा प्रकल्प चला रहे हैं। सभी आनुषंगिक संघटन इस समय इसी कार्य में तन मन धन से समर्पित हैं। संविधान की प्रस्तावना में ही बंधुत्व की भावना का उल्लेख किया गया है। यह शब्द हिंदुत्व की भावना के अनुरूप है। इस दर्शन में किसी सम्प्रदाय से अलगाव को मान्यता नहीं दी गई। संघ संपूर्ण समाज को अपना मानकर काम करता है। भाषा,जाति, धर्म,खानपान में विविधता है। उनका उत्सव मनाने की आवश्यकता है। कुछ लोग विविधता की आड़ में समाज और देश को बांटने की कोशिश में जुटे रहते हैं। लेकिन संघ विविधता में भी एकत्व ढूंढने का काम करता है। हमारी संस्कृति का आचरण सद्भाव पर आधारित है। यह हिंदुओं तक सीमित नहीं है, बल्कि भारत में रहने वाले ईसाई और मुस्लिम परिवारों के भीतर भी यह भाव साफ देखा जा सकता है। संघ की स्थापना के असली उद्देश्य हिंदू समाज को जोड़ना था। किसी के विरोध में संघ की स्थापना नहीं की गई थी। संघ मजबूत भारत के निर्माण कार्य में समर्पित भाव से कार्य करता रहेगा। मोहन भागवत ने भारतीय चिंतन के अनुरूप सहयोग पर बल दिया। जरूरतमंदों की निस्वार्थ सहायता करनी चाहिए। यह हमारे देश का विषय है। इसलिए हमारी भावना सहयोग की रहेगी। एक सौ तीस करोड़ का समाज भारत माता का पुत्र है। हमारा बंधु है। हमें अपने मन में क्रोध और अविवेक के कारण इसका लाभ लेने वाली अतिवादी ताकतों से सावधान रहना है। सेवा समरसता आज की आवश्यकता है। इस पर अमल होना चाहिए। संकट को अवसर के रूप में समझने की आवश्यकता है। इसी से श्रेष्ठ भारत की राह निर्मित होगी। वर्तमान परिस्थिति में आत्मसंयम और नियमों के पालन का भी महत्व है। समाज में सहयोग,सद्भाव और समरसता का माहौल बनाना आवश्यक है।भविष्य की चुनौतियों के लिए भी तैयारी करनी होगी। नए सिरे से अर्थनीति,विकासनीति की रचना अपने सिस्टम के आधार से करना होगी। इस संकट में संघ कार्य का स्वरूप बदल गया है। प्रचंड रूप से संघ के सेवा कार्य चल रहें है। स्वयं के प्रयास से अच्छा बनना और समाज को अच्छा बनाना ही संघ का काम है। यह समाज हमारा है, इसलिए सेवा कर रहें हैं। इसमें अहंकार का विचार नहीं आना चाहिए। भारत ने दूसरे देशों की मदद की, क्योंकि यहीं हमारा विचार है। समस्त समाज की सर्वांगीण उन्नति ही हमारा एकमात्र लक्ष्य है। सम्पूर्ण संसार के मुकाबले भारत में अभी तक बहुत अच्छा काम हुआ है। आरएसएस सामाजिक- सांस्कृतिक संगठन है। इसकी स्थापना सकारात्मक चिंतन के आधार पर हुई थी। अर्थात संघ का उद्देश्य किसी का विरोध करना नहीं बल्कि हिंदुओं को संगठित करना रहा है। जब हिंदुत्व की बात आती है तो किसी अन्य पंथ के प्रति नफरत, कट्टरता या आतंक का विचार स्वतः समाप्त हो जाता है। तब वसुधैव कुटुंबकम व सर्वे भवन्तु सुखिनः का भाव ही जागृत होता है। भारत जब विश्व गुरु था, तब भी उसने किसी अन्य देश पर अपने विचार थोपने के प्रयास नहीं किये। भारत शक्तिशाली था, तब भी तलवार के बल पर किसी को अपना मत त्यागने को विवश नहीं किया। दुनिया की अन्य सभ्यताओं से तुलना करें तो भारत बिल्कुल अलग दिखाई देता है, जिसने सभी पंथों को सम्मान दिया। सभी के बीच बंधुत्व का विचार दिया। ऐसे में भारत को शक्ति संम्पन्न बनाने की बात होती है तो उसमें विश्व के कल्याण का विचार ही समाहित होता है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ऐसे ही भारत को पुनः देखना चाहता है। इस दिशा में प्रयास कर रहा है। भारत की प्रकृति मूलतः एकात्म है और समग्र है। अर्थात भारत संपूर्ण विश्व में अस्तित्व की एकता को मानता है। इसलिए हम टुकड़ों में विचार नहीं करते। हम सभी का एक साथ विचार करते हैं। समाज का आचरण शुद्ध होना चाहिए। इसके लिए जो व्यवस्था है उसमें ही धर्म की भी व्यवस्था है। धर्म में सत्य,अहिंसा, अस्तेय,ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह,शौच, स्वाध्याय, संतोष, तप को महत्व दिया गया। समरसता सद्भाव से देश का कल्याण होगा। हमारे संविधान के आधारभूत तत्व भी यही हैं। संविधान में उल्लेखित प्रस्तावना,नागरिक कर्तव्य,नागरिक अधिकार और नीति निर्देशक तत्व यही बताते हैं। जब भारत एवं भारत की संस्कृति के प्रति भक्ति जागती है व भारत के पूर्वजों की परंपरा के प्रति गौरव जागता है, तब सभी भेद तिरोहित हो जाते हैं। भारत ही एकमात्र देश है, जहाँ पर सबके सब लोग बहुत समय से एक साथ रहते आए हैं। सबसे अधिक सुखी मुसलमान भारत देश के ही हैं। दुनिया में ऐसा कोई देश है, जहाँ उस देश के वासियों की सत्ता में दूसरा संप्रदाय रहा हो। हमारे यहाँ मुसलमान व ईसाई हैं। उन्हें तो यहाँ सारे अधिकार मिले हुए है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
©2024 Agnibaan , All Rights Reserved