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राजनीति: राष्ट्र निर्माण का मधुमय अधिष्ठान

December 20, 2021

– हृदयनारायण दीक्षित

अस्तित्व विस्मय पैदा करता है। यह बहरूपिया है। अनेक रूप। अनेक नाम। परिचित है अनेक बिना जाने हुए अपरिचित। प्रत्यक्ष अनुभूति में यह ‘लोक’ है। नाम रूपों से भरापूरा लोक आलोक में देखा जाता है। इसका अंदरूनी तंत्र भी विराट है। जैसा लोक वैसा तंत्र। इसका हरेक घटक स्वतंत्र जान पड़ता है। लेकिन आंतरिक अनुभूति में प्रत्येक घटक परस्परावलम्बन में है। अस्तित्व नियमबद्ध हैं। वैज्ञानिकों ने भी सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुद्ध आदि ग्रहों को नियमबद्ध पाया है। इस नियमबद्धता के प्रति भी सबके अनुभव भिन्न-भिन्न हैं। ऐसे नियम शाश्वत कहे जा सकते हैं लेकिन प्रकृति ने हरेक प्राणी को कर्म स्वातंत्र्य भी दिया है। इस स्वातंत्र्य के उपभोग की दृष्टि भी भिन्न-भिन्न है। मनुष्य परिस्थितियों का दास नहीं है। प्रकृति और हरेक जीव में अन्तर्विरोध है। प्रकृति ने जीवन का अवसर दिया है लेकिन प्रकृति की शक्तियां जीवन की परवाह नहीं करती। वे अपनी मस्ती और लय में गतिशील हैं। आंधी, भूकम्प, बाढ़ या गर्मी, सर्दी और हिमस्खलन सभी प्राणियों को प्रभावित करते हैं।

सभी प्राणी जीना चाहते हैं। जिजीविषा या जीने की इच्छा भी प्रकृति की ही देन है। मुख्य बात है मनुष्य और प्राणी का कर्म स्वातंत्र्य या विचार स्वातंत्र्य। लोकतंत्र में विचार स्वातंत्र्य ही उच्चतर मूल्य है। विचार प्रकट करने में भाषा की भूमिका है और भाषा-वाणी में संयम और मधुमयता की। भारत में विचार अभिव्यक्ति का स्वातंत्र्य है। लेकिन राजनैतिक दलतंत्र में मधुमयता का अभाव है। यहां आरोप-प्रत्यारोप मर्माहित करते हैं। व्यक्तिगत आरोपों से जनतंत्र को क्षति होती है। आरोपों-प्रत्यारोपों की भी मधुमय अभिव्यक्ति कठिन नहीं। अपमानजनक शब्दों से बचा जा सकता है। सम्मानजनक अभिव्यक्ति के माध्यम से असहमति प्रकट करना ही सम्मानजनक तरीका है। लेकिन दलतंत्र में परस्पर सम्मान का अभाव है।

आखिरकार आरोपों की कटुता का मूल कारण क्या है? क्या भारतीय भाषाएं सम्मानजनक असहमति प्रकट करने का उपकरण नहीं हैं? क्या वे अपर्याप्त है? आखिरकार अपमानजनक शब्दों का चलन राजनीति की अपरिहार्यता है? क्या अपमानजनक कथन से ही सामाजिक या आर्थिक परिवर्तन के लक्ष्य प्राप्त किए जा सकते हैं? क्या चुनावी जीत के लिए अपमानजनक व्यक्तिगत आरोपों का कोई विकल्प नहीं है? दलतंत्र व्यक्तिगत आरोपों-प्रत्यारोपों को ही क्यों महत्व देता है?

हम विश्व के सबसे बड़े जनतंत्र हैं। तो भी वैचारिक असहमति के प्रकटीकरण में मधुमयता का अभाव है। दलतंत्र मधुरसा नहीं है। यह संस्कृति से प्रेरित नहीं हैं। भारतीय परंपरा मधुमय है। समूचा वैदिक साहित्य मधुरस से लबालब है। प्राचीन भारत में मधुमयता के बोध को मधुविद्या कहा गया है। छान्दोग्य उपनिषद् में मधु विद्या का उल्लेख है। यहां “सविता-सूर्य को देवताओं का मधु कहा गया है- असौ आदित्यो देवमधु। अन्तरिक्ष मधु का छत्ता है और सूर्य किरणें मधुकरों के पुत्र हैं।”

वैदिक पूर्वजों का हृदय मधुमय है। उन्हें सूूर्य किरणें भी मधुमय प्रतीत होती हैं। इसी के भाष्य में शंकराचार्य बताते हैं – उस सूर्य रूप मधु की पूर्व दिशागत किरणें पूर्व- मधु नाडियां है ऋचाएं मधुकर हैं। वे मधु उत्पन्न करती है। ऋग्वेद पुष्प है। ऋग्वेद से यश, तेज, बोध और मधुुरस आये। सूर्य का रूप तेजस् है, वह रस है।” यह रस मधुमय है। पृथ्वी गंधमय है। जल के बिना जीना असंभव। सूर्य ही मधु रस के दाता विधाता हैं। सूर्य की दक्षिण दिशा को आवृत्त करने वाली रश्मियों को यजुर्वेद की श्रुति बताते हैं और मंत्रों को मधुकर। इसी तरह पश्चिमी-रश्मियों को साम बताते हैं और साम कर्मों को पुष्प। फिर इतिहास-पुराण को भी मधुमय बताते- मधुकृत इतिहास पुराणं। फिर कहते हैं “ये ही रसों के रस हैं। वेद रस हैं। ये उनके भी रस है। ये अमृतों का अमृत हैं। ‘अमृतों का अमृत’ प्यारी अनुभूति है। अमृत कोई द्रव्य या पदार्थ नहीं है कि पिये और अमर हो गये। अमृत सम्पूर्णता के साथ सदा अस्तित्वमान रहने की आंतरिक अनुभूति है। वेद-रस उन्हीं “अमृतों का अमृत” हैं। लोक स्वाभाविक ही मधुरसा है।

बृहदारण्यकोपनिषद् में याज्ञवल्क्य ने मधुमयता का मूलतत्व समझाया है, “इयं पृथ्वी सर्वेषा भूतानां मध्वस्यै पृथिव्यै सर्वाणि भूतानि मधु- यह पृथ्वी सभी भूतो (मूल तत्वों) का मधु है और सब भूत इस पृथ्वी के मधु।” इसी प्रकार ‘यह अग्नि समस्त भूतों का मधु है और समस्त भूत इस अग्नि के मधु हैं।” फिर कहते हैं, “यह वायु समस्त भूतों का मधु है और समस्त भूत वायु के मधु हैं।” फिर आदित्य और दिशा चन्द्र, विद्युत मेघ और आकाश को भी इसी प्रकार ‘मधु’ बताते हैं। फिर कहते है “यह धर्म और सत्य समस्त भूतों का मधु है और समस्त भूत इस सत्य व धर्म के मधु है।” फिर “मनुष्य को भी इसी प्रकार मधु बताते हैं।” मधु अनुभूति राष्ट्र को मधुमय बनाने की अभीप्सा है। यह मधुमती और मधुरसा है और हमारे पूर्वजों की परम आकांक्षा है। यह भौतिक जगत् का माधुर्य है, दर्शन में परम सत्य है और अंततः सम्पूर्णता है। मनुष्य इसी विराट प्रवाह की मधु इकाई है। मनुष्य को मधुमय आच्छादित होना ही चाहिए। ज्ञान सदा से है। उसका प्रवचन सृष्टि रचना के बाद हुआ। आनंद प्राप्ति की मधुरसा विद्या बहुत पहले से है।

शंकराचार्य अपने भाष्य में बताते हैं “यह मधु ज्ञान हिरण्यगर्भ ने विराट प्रजापति को सुनाया था। उसने मनु को बताया और मनु ने इक्ष्वाकु को बताया।” भारत में सर्वत्र व्याप्त मधुरस की पहचान और मधुमय मधुविद्या का प्रबोधन लगातार हुआ है। उपनिषद् में कहते हैं अरूण पुत्र उद्दालक को अपने पिता से मिला था।” मधुविद्या और मधु अनुभूति आसान नहीं। सुनना या पढ़ना उधार होता है। अनुभूति अपनी है। गीता के श्रीकृष्ण ने यही ज्ञान परंपरा दोहराते हुए अर्जुन से कहा कि काल के प्रभाव में यह ज्ञान नष्ट हो गया। आधुनिक काल में भी यही स्थिति है।

संवेदनशीलता गहन आत्मीय भाव है। संवेदनशीलता में पशुओं, पक्षियों के दुख भी हम सबको आहत करते हैं। जितनी गहन संवेदना उतनी ही गहन आत्मीयता। वाल्मीकि तमसा नदी के तट पर थे। क्रौंच पक्षी को तीर लगा। तीर पक्षी को लगा, लेकिन उससे भी ज्यादा घायल हुआ वाल्मीकि का अन्तस्। उनकी गहन संवेदना में काव्य उगा। भारतीय इतिहास का यह संवेदनशील रूपक विश्व के सभी कवियों, साहित्यकारों के लिए अविस्मरणीय क्षण है। लेकिन हम सबकी संवेदनाएं नहीं जगतीं।

राजनीति राष्ट्र निर्माण का मधुमय अधिष्ठान है। राजनीति सामाजिक कार्य का ही भाग है। सो उसको भी मधुरसा होना चाहिए। हम सब प्राणी, वनस्पतियां, औषधियां और सभी जीव सूर्य के प्रभाव में है। ऋग्वैदिक ऋषि निवेदन करते हैं “हम सब विषभाग को सूर्य किरणों के पास भेजते है। वे इस विष से प्रभावित नहीं होते। बताते हैं पक्षी भी विष के प्रभाव में नहीं मरते, हम पर भी विष का प्रभाव नहीं पड़ता- अस्य योजनं हरिष्ठा मधु त्वा मधुला चकार। मधुमयता विष को अमृत बनाती है।”

सूर्य विष निवारण करते हैं। मधुविद्या विष को अमृत बनाती है।” यहां बार-बार मधुविद्या का उल्लेख है। मधुविद्या अमरत्व है। विष और अमृत वस्तुतः मृत्यु और अमरत्व के प्रतीक हैं। जैसे विष सत्य है, अस्तित्व में है, वैसे ही अमृत भी सत्य है, अस्तित्व में है। मृत्यु सत्य है अमृतत्व भी सत्य है। मृत्यु और अमरत्व विरोधी नहीं हैं। दोनों साथ हैं। पक्ष सत्य है, विपक्ष भी सत्य है। सहमति का मूल्य है और असहमति का भी। असहमति के प्रकटीकरण में विष नहीं अमृत भाव चाहिए। विष पीकर शिव होने जैसा प्रगाढ़़ भाव।

(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं।)

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