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    यह कैसा किसान आंदोलन ?

  • December 18, 2020

    – रंजना मिश्रा

    भ्रष्ट होती राजनीति में जो पार्टियां चुनाव में जनता द्वारा नकार दी जाती हैं, वह सत्तारूढ़ पार्टी द्वारा बनाए गए हर कानून का विरोध करती नजर आती हैं। जब आर्टिकल 370 हटाया गया, सीएए बनाया गया और अब नया कृषि कानून बनने पर ये सभी पार्टियां विरोध में खड़ी हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था में विरोधी पार्टियों का होना बहुत जरूरी है ताकि सत्ताधारी निरंकुश होकर मनमानी न करे। उसके गलत कदमों का संसद में विरोध हो सके, किंतु अब समस्या यह होती जा रही है कि ये विरोधी पार्टियां सरकार को कोई काम नहीं करने देना चाहतीं। उसके हर कदम की भरपूर निंदा और विरोध करने पर तुली रहती हैं। विरोधी पार्टियों के इस रवैये के कारण न तो देश का विकास संभव है और न ही देश की बड़ी-बड़ी समस्याओं का निराकरण।

    आजकल देश में किसान आंदोलन जोरों पर है। इस आंदोलन का जो स्वरूप सामने आ रहा है उससे लगता है कि ये आंदोलन, किसान आंदोलन न होकर राजनीतिक स्वार्थ से भरा आंदोलन बनकर रह गया है। आंदोलन के नाम पर आजकल दिल्ली और सरकार को घेरने का ट्रेंड चल गया है। किसानों को अन्नदाता कहकर उनसे झूठी हमदर्दी दिखाने वाले क्या सचमुच अन्नदाता का भला चाहते हैं? यदि ऐसा है तो उन्हें अधिक लाभ कमाने के अवसर देने के खिलाफ क्यों खड़े हैं? किसानों के मन में भ्रम और शंकाएं पैदा की जा रही हैं, किंतु जो सच्चा किसान है वह वास्तविकता समझता है इसीलिए पंजाब और हरियाणा के अलावा देश के दूसरे हिस्से के किसान इस आंदोलन में शामिल नहीं हैं।

    यह आंदोलन का कैसा विकृत रूप है जहां कुछ महिलाएं देश की जनता द्वारा चुने हुए प्रधानमंत्री की मृत्यु के गाने गा रही हैं। देश विरोधी लोगों के पोस्टर लगाना, खालिस्तान के पोस्टर लगाना दर्शाता है कि किसान आंदोलन को अल्ट्रा लेफ्ट संगठनों ने हाईजैक कर लिया है। स्वार्थी तत्व किसानों के कंधे पर बंदूक रखकर चलाने की फिराक में हैं। देश को हिंसा की आग में झुलसाने की चाल चली जा रही है।

    आज जो नेता नये कृषि कानूनों का विरोध करने के लिए पंजाब के किसानों के साथ खड़े दिखाई देते हैं, उन्हीं में से कई नेता पहले इन कानूनों की प्रशंसा कर रहे थे। ये नेता केवल किसान आंदोलन का फायदा उठाकर चुनाव जीतना चाहते हैं। कांग्रेस खुद पूर्व में एमपीएमसी एक्ट में सुधार की बात करती रही है। अपने ही घोषणापत्र में जनता से किए वादों को भुलाकर वह विरोध कर रहे किसानों के पक्ष में खड़ी है। विरोध करने वाले कुछ राजनेता पहले कहते थे कि कांट्रैक्ट फार्मिंग होगी तो किसान टेंशन फ्री हो जाएगा, किंतु अब कह रहे हैं कि कांट्रैक्ट फार्मिंग होगी तो पूंजीपति किसानों की जमीन पर कब्जा कर लेगा। ये पहले कहते थे कि प्राइवेट कंपनियां आएंगी तो किसान मालामाल हो जाएंगे, अब कह रहे हैं कि किसान कंगाल हो जाएंगे। पहले कहते थे कि आढ़तिए किसानों को लूटते हैं, किंतु अब उन्हें किसानों का दोस्त बता रहे हैं। इन स्वार्थी नेताओं का ये दोहरा चरित्र केवल अपने राजनीतिक स्वार्थ के कारण है, उन्हें देश और देश की जनता के भले की कोई चिंता नहीं है। अपने शासनकाल में तो इन्होंने किसानों की समस्या का निदान करने के लिए कोई कारगर कदम उठाया नहीं। अब जब मोदी सरकार किसानों को मजबूत बनाने का प्रयास कर रही है तो ये सरकार का विरोध कर जनता के बीच में सरकार की छवि खराब करने का प्रयत्न कर रहे हैं। इन कानूनों को किसानों के लिए काला कानून बता रहे हैं।

    सरकार बार-बार किसानों के साथ वार्ता कर रही है। उनकी शंकाओं तथा भ्रम को दूर करने का प्रयास व कानूनों में सुधार का आश्वासन भी दे रही है, किंतु पंजाब के किसान अपनी जिद पर अड़े हैं कि सभी कानून पूरी तरह निरस्त करने होंगे, तभी वे आंदोलन वापस लेंगे। विदेशी ताकतें भी इस आंदोलन का फायदा उठाना चाहती हैं। अभीतक देश के किसान परेशान होकर आत्महत्या करने पर मजबूर थे, अब सरकार उनकी स्थिति सुधारना चाहती है और उन्हें लाभ के ज्यादा अवसर देना चाहती है तो कुछ स्वार्थी तत्व ऐसा होने नहीं देंगे। यह कानून पूरे देश के किसानों के लिए है। देश के केवल एक हिस्से के किसानों की बात मानकर देश के बाकी हिस्से के किसानों को उनके उज्ज्वल भविष्य से वंचित करना कहां तक सही होगा?

    (लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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