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    राजनीतिक दलों ने किया किसान आन्दोलन का नुकसान

  • December 09, 2020

    – सर्वेश कुमार सिंह

    गैर राजनीतिक स्वरूप के साथ शुरू किसान आंदोलन को 24 पार्टियों ने समर्थन देकर इसे राजनीतिक रंग दे दिया है। इन पार्टियों के साथ आने से किसान आंदोलन को बड़ा नुकसान हुआ। जिस आन्दोलन के साथ और पक्ष में विचारधारा से ऊपर उठकर लोग जुड़ रहे थे, वे अब विपक्ष की भूमिका के कारण छिटकने लगे हैं। भारत बंद में विपक्ष के कूदने के साथ अब आन्दोलन में मोदी विरोध साफ दिखने लगा है। इसके साथ ही एक बड़ा किसान तबका आन्दोलन से दूरी बना रहा है। यही आंदोलन का सबसे बड़ा नुकसान है।

    कांग्रेस से कम्युनिस्ट तक सभी ने दिया समर्थन
    तीन कृषि कानूनों के खिलाफ आन्दोलन कर रहे किसानों के भारत बंद को सम्पूर्ण विपक्ष ने समर्थन दिया है। राजग सरकार के खिलाफ काफी समय से लामबंद होने का मौका तलाश रहे विपक्ष को किसान आन्दोलन अवसर के रूप में मिल गया है। खुद की राजनीतिक जमीन खो चुके अधिकांश विपक्षी दलों ने किसानों की ताकत का मोदी विरोध के लिए इस्तेमाल करने के लिए भारत बंद को समर्थन कर दिया। बंद को समर्थन देने वाले कांग्रेस से लेकर वामपंथी तक कुल 24 दल शामिल रहे। गैर राजनीतिक स्वरूप के साथ 26 नवंबर से शुरू हुआ आंदोलन 13 दिन पूरे होते-होते राजनीतिक रंग में रंग गया है। किसान संगठनों ने भारत बंद का ऐलान किया तो इसमें सभी विपक्षी कूद पड़े। इन्हें किसानों की समस्याओं और उनकी मांगों से ज्यादा लेना देना नहीं है, बल्कि मोदी और भाजपा का विरोध इसके मूल में है।

    किसानों को मण्डी के आधिपत्य से बाहर लाने वाले कानून
    कृषि वैज्ञानिक एमएस स्वामीनाथन के नेतृत्व में बने दूसरे किसान आयोग की संस्तुतियों और लंबे समय से मंडी समितियों के आधिपत्य से किसान को बाहर निकालने की चल रही मांग के बाद भारत सरकार ने कृषि सुधार का फैसला लिया था। इसके तहत 5 जून को भाजपा के नेतृत्व की राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार ने अध्यादेश लाकर तीन कृषि कानून लागू किये थे। कृषि सुधार के लिए लाये तीन कृषि कानून में से पहला कानून मण्डी समिति के आधिपत्य को समाप्त करते हैं तथा किसान को कहीं भी उपज बेचने की आजादी देता है। दूसरे कानून में किसानों को खेती में ठेकेदारी प्रथा यानी कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग को वैधानिक स्वरूप देता है। तीसरा कानून आवश्यक वस्तु अधिनियम के प्रावधानों को लेकर है। तीनों कानूनों में कोई भी बात किसान के विरोध या हानि पहंचाने वाली नहीं है। लेकिन, किसान संगठनों के बीच कुछ लोगों ने सुनियोजित रूप से भ्रम फैलाने की कोशिश की, जिसमें वे सफल भी हुए हैं। पांच जून को लाये गए आध्यादेश के बाद 18 और 20 सितंबर को सरकार ने क्रमशः राज्यसभा और लोकसभा में विधेयक लाकर इन्हें विधिवत कानून रूप दे दिया।

    कैसे बनी आन्दोलन की भूमिका
    पांच जून को अध्यादेश आने के बाद और 18 सितंबर तक विधेयक पारित होने तक इन कानूनों पर कोई विशेष प्रतिक्रिया देश में नहीं हुई। कहीं कोई विरोध भी सुनने को नहीं मिला। लेकिन,संसद में विधेयक पारित होने के साथ ही कुछ कृषि विशेषज्ञों विशेषकर लेखक और विचारक देवेन्द्र शर्मा और पीलीभीत के किसान नेता पूर्व विधायक सरदार बीएम सिंह ने इन कानूनों पर कुछ आपत्तियां कीं। इन आपत्तियों पर लेख और सोशल मीडिया में चर्चा के बाद यह बात पंजाब में सबसे ज्यादा चर्चा में आयी। यहां कांग्रेस की सरकार ने इस विरोध को हवा दी। यहां तक कि कानूनों को प्रदेश में लागू नहीं करने के लिए विधेयक पारित कर दिया और मंजूरी के लिए राष्ट्रपति को भेज दिया। पंजाब में कानूनों के खिलाफ रैली निकाली गई। स्वयं राहुल गांधी और मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह किसानों की ट्रैक्टर रैली में शामिल हुए। दोनों ने नेता सोफा लगे ट्रैक्टर पर बैठे। इन कानूनों का विरोध सबसे ज्यादा पंजाब में ही हुआ।

    इस आन्दोलन को बल मिला योगेन्द्र यादव के सक्रिय होने के बाद। योगेन्द्र यादव ने स्वराज यात्रा के दौरान इन कानूनों की खामियां किसानों को बतायीं। 32 संगठनों की एक किसान संघर्ष समिति बनी। इस समिति ने ही 26 नवंबर को दिल्ली कूच का फैसला किया था।

    आन्दोलन का गैर राजनीतिक स्वरूप समाप्त
    दिल्ली में ट्रैक्टर ट्रालियों के साथ घुसने के प्रयास कर रहे पंजाब के किसानों को पहले ही दिन यानी 26 नवंबर को सिन्दु बार्डर पर रोक दिया गया था। वहीं उन्होंने धरना दिया। सरकार किसानों को बुराड़ी मैदान जाकर आन्दोलन करने को कह रही थी किन्तु किसान जंतर-मंतर जाने पर अड़े थे। इसलिए किसानों को बार्डर पर ही धरना देना पड़ा है। धरने की सफलता तथा हरियाणा व पश्चिम उत्ततर प्रदेश के जाटों की खाप पंचायतों का समर्थन मिलने के बाद आन्दोलन ने गति पकड़ ली। सरकार ने पांच दौर की बातचीत की लेकिन कोई समाधान नहीं निकला, किसान तीनों कानून रद्द कराना चाहते हैं। सरकार कानूनो में कुछ संशोधन करने को तैयार है लेकिन किसान मानने को तैयार नहीं हैं। अपनी मांगों पर अड़े किसानों ने 8 दिसंबर के भारत बंद का आह्वान किया।

    इसे एक अवसर मानकर राजनीतिक दल किसान आंदोलन के समर्थन में कूद गए। कांग्रेस जो पहले से ही आन्दोलन को समर्थन दे रही थी खुलकर सामने आ गई। इसके साथ ही यूपीए के सभी दलों के साथ दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों ने भी समर्थन दिया। अन्य राज्य स्तरीय दलों जैसे समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, राजद, शिवसेना, टीआरएस, टीएमसी, सीपीआई,सीपीएम आदि ने भी बंद का समर्थन दिया। भारत बंद के समर्थन में पार्टियों के खुलकर आने के बाद यह आन्दोलन गैर राजनीतिक नहीं गया। किसान आन्दोलन अब पूरी तरह से राजनीतिक स्वरूप ले चुका है।

    (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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