– डॉ. अजय खेमरिया
दसवीं और बारहवीं के रिजल्ट आए। शत-प्रतिशत नम्बरों से सजी मार्क शीट्स मीडिया और डिजिटल पटल पर साझा की गयी। कई परिचित अभिभावकों के बच्चों ने वाकई गजब की मेहनत कर 90 प्लस के समूह में स्थान हासिल किया, वे सभी बच्चे अभिनंदनीय हैं। सरस्वती की अनुकम्पा और उनका पुरुषार्थ बरकरार रहे। लेकिन एग्जाम की अंधी गली में जो 90 प्लस से रोशन नहीं हो पाए हैं, उनसे मेरी सहानुभूति ज्यादा है। साथ ही उनके मां-पिता से भी जो इस शोर में खुद को अपराध बोध से घिरा महसूस कर रहे हैं। वे अक्सर भूल जाते हैं कि हर बच्चा प्रभु की अनमोल रचना है, हर व्यक्ति की रफ्तार और उसकी जीवन यात्रा अलग होती है। कला, साहित्य, खेल, संगीत, नृत्य, सियासत, समाजकर्म, व्यापार, उद्योग से जुड़ी एक भी सफल हस्ती 90 प्लस के क्लब में कभी नहीं रही। 80 फीसदी से ज्यादा ब्यूरोक्रेट्स भी 90 प्लस वाले नहीं हैं।बावजूद इसके आज कॉन्वेंट कल्चर की अंधी दौड़ में हमारे अभिभावक पेट काटकर सीबीएसई-आईसीएससी से संबद्ध प्राइवेट स्कूलों में अपने सपनों को साकार करने के लिये लुट रहे हैं।
हर अभिभावक जो खुद अपने सपनों को पूरा नहीं कर पाता, वह चाहता है कि उसके बच्चे उन्हें पूरा करें। यही सपनों की ख्वाहिश आज भारत की शैक्षणिक त्रासदी से कम नहीं है। बाल कल्याण समिति के अध्यक्ष के तौर पर काम करते हुए हमारे सामने ऐसे तमाम प्रकरण आते हैं जिनमें अभिभावकों की शिकायत रहती है कि उनके बच्चे को मिशनरी या कान्वेंट स्कूल ने जानबूझकर फेल कर दिया है या कम अंक दिए हैं। हम उनकी आर्थिक स्थिति देखकर जब इन महंगे स्कूलों से बच्चे को बाहर करने की सलाह देते हैं तब वे उखड़ जाते हैं। उनके परिवार में अंग्रेजी का कोई माहौल नहीं है, डायरी पर लिखे नोट उनके घरों में कोई पढ़ नहीं पाता है। बच्चे माँ-पिता के दबाव में कुछ बोल नहीं पाते हैं और एक बालमन पर लगातार ये औपनिवेशिक अत्याचार चलता रहता है। नतीजतन ऑटो चलाने वाले, दिहाड़ी मजदूर, अल्पवेतन भोगी, पेट काटकर इन स्कूलों की दुकानों पर जाकर लुट रहे हैं।
एक अल्पसंख्यक दम्पति ऑटो चलाकर और सिलाई से अपनी जीविकोपार्जन करता है, उनका प्रकरण समिति के समक्ष आया। उनके तीन बच्चे एक मिशनरी स्कूल में पढ़ते हैं। एक बच्चे को कम अंक आने पर स्कूल से निकाल दिया गया। बच्चे की काउंसलिंग से पता चला कि वह अंग्रेजी नहीं समझ पाता और घर में कोई भी अंग्रेजी नहीं जानता है। बालक एक तरह की अंग्रेजीयत की दहशत में था लेकिन उसके मां-पिता की जिद थी कि उनका बेटा मिशनरी में ही पढ़े क्योंकि उसके मोहल्ले में महिलाएं उसे ताना दे रही हैं कि आपका बेटा मिशनरी स्कूल से निकाल दिया गया है। यह बताते हुए महिला रोने लगीं। समिति के आग्रह पर स्कूल ने उस बच्चे को इस साल अपने यहां पढ़ने पर रजामंदी दे दी। मां-पिता खुश थे लेकिन वह 7 वीं क्लास का बच्चा बड़ा दुखी था। उसके चेहरे पर अपने माँ-पिता के सपने का बोझ स्पष्ट पढ़ा जा सकता था। ऐसे ही तमाम प्रकरण बाल कल्याण समितियों के पास आते रहते हैं लेकिन मां-पिता के दबाव में सभी मामलों में बच्चों के हितों को संरक्षित नहीं कर पाते हैं।
हम अक्सर देखते हैं कि इन विलायती सँस्कृति वाले स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों की मां रातभर जागकर ऐसे-ऐसे प्रोजेक्ट बनाती रहती हैं जिनका कोई औचित्य नहीं होता है। वे अपने बच्चे को दूसरों से पीछे न रह जायें, इस मानसिकता से घिरी रहती हैं। कक्षा 3 में पढ़ने वाली एक बच्ची को उसके स्कूल से एक प्रोजेक्ट दिया गया कि वह मप्र के सभी मुख्यमंत्री की फोटो लेकर आये। अब इस प्रोजेक्ट की उपयोगिता को आप ही समझिये? माँ नेट कैफे पर जाकर कैसे इसे बना पाई इसका अंदाजा मुझे है।
कुछ स्कूल स्पेनिश, फ्रेंच भाषा से लेकर घुड़सवारी तक सिखाने का प्रचार करते हैं पर किसी स्कूल में हिंदी की उत्कृष्टता की बात नहीं होती है, हिंदी हार्टलैंड में भी जबकि उनकी मातृभाषा हिंदी है। तमाम शोध बताते हैं कि बच्चों का सबसे सशक्त मानसिक विकास उसकी स्थानीय भाषा में होता है, चीन इसका वैश्विक उदाहरण है। हकीकत की धरातल पर ऐसे बच्चे न अंग्रेजी में निपुण हो पाते हैं, न हिंदी में क्योंकि उनका स्वाभाविक विकास हमारी थोपी गई सोच से कुंद पड़ जाता है। वस्तुतः आपके मौलिक विचार आपकी अपनी जुबान में ही अभिव्यक्त हो सकते हैं, किसी विदेशी जुबान में नहीं। अंग्रेजी पढ़ाकर आईएएस बनाने का सपना संजोने वाले यह नहीं जानते हैं कि आईएएस बनने के लिये 90 प्लस ही पर्याप्त नहींं है। आपकी मौलिकता आपका खुद का विजन, आपकी तार्किकता, तीक्ष्णता, निर्णयन क्षमता का मूल्यांकन किया जाता है जो सिर्फ किताबी रटन्त से नहीं आ सकती। इसके लिये आपको अपने व्यक्तित्व को बहुआयामी बनाना पड़ता है, जो इस मर्म को समझते हैं वे ही ब्यूरोक्रेट, टेक्नोक्रेट्स, इंडस्ट्रियलिस्ट, लॉयर, लीडर के रूप में अपनी पहचान बनाते हैं। आइये हर बच्चे की मुस्कान बरकरार रखें। उसे उसकी जन्मजात प्रतिभा के साथ जीने का अवसर दें।
(लेखक बाल कल्याण समिति के अध्यक्ष हैं।)
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