नई दिल्ली । सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने कहा कि एक अलिखित नियम है कि सार्वजनिक पद पर आसीन लोगों (People Holding Public Office) को अपने आप पर काबू रखना चाहिए (Should Control Themselves) और यह सुनिश्चित करना चाहिए (Must Ensure) कि वे अपमानजनक टिप्पणी न करें (They do not Make Derogatory Remarks) । यह नियम हमारे राजनीतिक और नागरिक जीवन में शामिल किया जाना चाहिए । न्यायमूर्ति एस.ए. नजीर की अध्यक्षता वाली पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ और न्यायमूर्ति बी. आर. गवई, ए.एस. बोपन्ना, वी. रामसुब्रमण्यम, और बी.वी. नागरत्न ने मंगलवार को कहा कि हम विधायकों के लिए आचार संहिता कैसे बना सकते हैं ? हम विधायिका और कार्यपालिका की शक्तियों में नहीं जा सकते।
मामले में एक याचिकाकर्ता का प्रतिनिधित्व करने वाले एक वकील ने तर्क दिया कि सार्वजनिक पदाधिकारियों द्वारा अभद्र भाषा में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। पीठ ने सवाल किया, क्या ऐसे मामलों में मुकदमा चलाने के लिए आईपीसी के तहत कोई प्रावधान नहीं है? वकील ने जवाब दिया, हां! दूसरों की गरिमा को ठेस पहुंचाने के लिए उन पर अपराध का मामला दर्ज किया जा सकता है, लेकिन सार्वजनिक पदाधिकारियों पर नहीं।
अटॉर्नी जनरल (एजी) आर. वेंकटरमणी ने दलील दी, कि इन सभी प्रस्तावों को संबोधित करने के लिए वकील की अकादमिक रुचि हो सकती है, लेकिन इस पर एक सकारात्मक कानून है और एक मौजूदा रोडमैप उपलब्ध है।
पीठ ने टिप्पणी की, क्या हमारे देश में ऐसी कोई संवैधानिक संस्कृति नहीं है, जो सार्वजनिक पद पर बैठे लोगों पर स्वाभाविक रूप से लागू हो? एक अलिखित नियम है कि जब कोई सार्वजनिक पदों पर होता है तो अपमानजनक टिप्पणी करने पर आत्म-प्रतिबंध लगाना जरुरी होता हैं। इसे हमारे राजनीतिक और नागरिक जीवन में शामिल किया जाना चाहिए।
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने तर्क दिया कि यह मुद्दा एक डिबेट का मुद्दा है, क्या किसी विशेष बयान के खिलाफ कार्रवाई के लिए अनुच्छेद 21 का हवाला देते हुए एक रिट दायर की जा सकती है।
जस्टिस नागरत्ना ने टिप्पणी की, इस समय कोई कानून क्यों नहीं है? अब धारणा यह है कि इस तरह के प्रतिबंधों में ढील दी जा रही है, जिससे आहत भाषण दिए जा रहे हैं और कोई जांच नहीं की जा रही। विस्तृत दलीलें सुनने के बाद, शीर्ष अदालत ने इस पर आदेश सुरक्षित रख लिया।
अक्टूबर 2017 में, तीन-न्यायाधीशों की पीठ ने विभिन्न मुद्दों पर निर्णय लेने के लिए मामले को संविधान पीठ के पास भेज दिया, जिसमें यह भी शामिल था कि क्या कोई सार्वजनिक पदाधिकारी या मंत्री संवेदनशील मामलों पर विचार व्यक्त करते हुए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दावा कर सकता है।
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