नई दिल्ली (New Dehli)। मध्य प्रदेश विधानसभा (Madhya Pradesh Assembly)के लिए इस महीने मतदान (vote)होने हैं। राज्य की राजनीति (Politics)में यह क्षेत्र काफी अहम है। सीधी जिले के चुरहट (churhat)में कांग्रेस कार्यालय (Office)के बाहर एक छोटी सी चाय की दुकान(Shop) है। जहां 62 साल के वैद्यनाथ पटेल, विंध्य क्षेत्र के अविकसित होने पर अफसोस जताते हैं। पटेल 1980 के दशक में आरक्षण का वादा करके राज्य में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की राजनीति शुरू करने के लिए स्थानीय और पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह को श्रेय देते हैं। जिसकी वजह से वह राष्ट्रीय राजनीति में आ गए थे। 43 साल बाद, कांग्रेस फिर से राज्य की सत्ता में वापसी के लिए ओबीसी राजनीति पर भरोसा कर रही है।
सबसे पहले सिंह ने जगाई आरक्षण की उम्मीद
पटेल ने कहा, ‘अर्जुन सिंह ने देश में मंडल की राजनीति शुरू होने से बहुत पहले 1980 में हमें आरक्षण की पहली उम्मीद दी थी।’ ओबीसी समुदाय से आने वाले पटेल ने कहा, ‘हम पहले भी बेरोजगार थे और आज भी बेरोजगार हैं।’ मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में अपने पहले कार्यकाल में, अर्जुन सिंह ने 1980 में ओबीसी को नौकरियों में आरक्षण प्रदान करने के लिए रामजी महाजन आयोग की स्थापना की। 1983 में, आयोग ने अपनी रिपोर्ट पेश की जिसमें अनुमान लगाया गया कि राज्य की 48.8 प्रतिशत आबादी ओबीसी समुदायों की थी और उनके लिए नौकरियों में 25 फीसदी आरक्षण की सिफारिश की गई थी।
सिंह उन सिफारिशों को लागू नहीं कर सके और कांग्रेस ने 1985 में उनकी जगह मोतीलाल वोहरा को मुख्यमंत्री बना दिया। हालांकि, 2008 में ने सिंह केंद्रीय मानव संसाधन (अब शिक्षा) मंत्री रहते हुए शैक्षणिक संस्थानों में ओबीसी के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण लागू किया। इस फैसले को 2009 में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार के सत्ता में लौटने की एक वजह बताई जाती है।
एमपी कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने कहा कि भले ही सिंह राजपूत थे, लेकिन उन्होंने राजपूत और ओबीसी संयोजन बनाने के लिए ओबीसी मामले का समर्थन किया, जो मध्य प्रदेश की राजनीति का अजेय उपाय है। नेता ने कहा, ‘ऐसा न होने के दो कारण हैं। सबसे पहले, रामजी आयोग की सिफारिश को लागू नहीं किया गया क्योंकि कांग्रेस नेतृत्व ने सोचा कि इससे ऊंची जाति के वोट पार्टी से दूर हो जायेंगे। दूसरा, 1993 में जब ओबीसी वर्ग के सुभाष यादव को मुख्यमंत्री नियुक्त करने का कदम उठाया गया तो सिंह ने राजपूत दिग्विजय सिंह का समर्थन किया।’
कभी राजनीतिक शक्ति का केंद्र था
1956 में विंध्य प्रदेश का मध्य भारत (वर्तमान मध्य प्रदेश को छोड़कर छत्तीसगढ़) में विलय हो गया और तब से इस क्षेत्र ने राज्य को दो राजपूत मुख्यमंत्री दिए हैं – गोविंद नारायण सिंह और अर्जुन सिंह। गोविंद नारायण सिंह 1967 में सीएम बने जब उन्होंने तत्कालीन सीएम द्वारका प्रसाद मिश्रा के खिलाफ बगावत के बाद उन्होंने विधायकों के साथ कांग्रेस छोड़कर लोक सेवा दल का गठन किया। उन्होंने सयुंक्त विधायक दल की गठबंधन सरकार बनाई और दो साल तक सीएम रहे। अब उनके दो बेटे- हर्ष नारायण और ध्रुव नारायण सिंह क्रमशः विंध्य क्षेत्र और भोपाल में गोविंद नारायण के विधानसभा क्षेत्र रामपुर बाघेलान से भाजपा विधायक हैं।
1980 में अर्जुन सिंह बने सीएम
1980 में विंध्य की चुरहट सीट से जीते अर्जुन सिंह पहली बार मुख्यमंत्री बने। एक कांग्रेस नेता ने कहा, ‘सिंह गोविंद जी से बड़े नेता बन गए। 1985 में मध्य प्रदेश से हटाकर उन्हें पंजाब का राज्यपाल बनाया गया और शांति के लिए राजीव-लोंगेवाला समझौते पर बातचीत की। इसी साल उन्हें राजीव गांधी मंत्रिमंडल में केंद्रीय मंत्री के रूप में नियुक्त किया गया और 1988 में मप्र के मुख्यमंत्री के रूप में उनकी वापसी हुई। लेकिन, चुरहट लॉटरी घोटाले के कारण एक साल के भीतर इस्तीफा देना पड़ा।’
मेरे पिता के वादे को कांग्रेस ने अपनाया
अब अर्जुन और गोविंद नारायण सिंह के बेटे उनकी राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं। गोविंद के पोते विक्रम सिंह भाजपा के टिकट पर रामपुर बाघेलान से चुनाव लड़ रहे हैं और सिंह के बेटे अजय सिंह चुरहट से कांग्रेस उम्मीदवार हैं। वह 2018 में भाजपा के शरदेंदु तिवारी से हार गए थे, जिनके दादा सीपी तिवारी, एक समाजवादी नेता, ने अर्जुन सिंह के खिलाफ चुनाव लड़ा था। अजय सिंह को यह बताते हुए देखा जा सकता है कि कैसे उनके पिता ने पहली बार 1980 में ओबीसी आरक्षण का वादा किया था और अब कांग्रेस ने आधिकारिक तौर पर उनके चुनावी मुद्दे को अपना लिया है। उन्होंने चुरहट में कहा, ‘मेरे पिता ने पिछड़े समुदायों के लिए अथक प्रयास किया और अब कांग्रेस ने उन्हें उनकी जनसंख्या के अनुपात के अनुसार अधिकार देने का वादा किया है।’
2018 में बीजेपी ने 24 सीटों पर खिलाया था कमल
2018 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने विंध्य क्षेत्र की 30 विधानसभा सीटों में से 24 पर जीत हासिल की। जिसकी वजह से पार्टी को कांग्रेस की 114 सीटों की तुलना में पांच सीटें कम मिली। भाजपा मध्य प्रदेश के अन्य क्षेत्रों में पिछला प्रदर्शन दोहराने में सक्षम नहीं रही, जिससे कांग्रेस को सत्ता की चाबी मिल गई। 15 साल बाद कांग्रेस को सत्ता तो मिली लेकिन मुख्यमंत्री कमलनाथ अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए। इसकी वजह 22 विधायकों का विद्रोह था, जो मार्च 2020 में कांग्रेस का साथ छोड़ बीजेपी में शामिल हो गए। इससे एक बार फिर शिवराज को राज्य की कमान मिल गई।
नहीं हुआ विकास
हालांकि कभी मुख्यमंत्री के निर्वाचन क्षेत्र रहे सतना जिले के चुरहट और रामपुर बाघेलान दोनों अविकसित हैं। चुरहट में केवल एक कॉलेज है। जहां केवल एक विषय बीए (पास) की पढ़ाई होती है। “चुरहट में अधिकांश छात्र, जो पढ़ाई के लिए बाहर नहीं गए, वे बीए पास हैं। केल्हेरी गांव के निवासी 70 वर्षीय रमजान पटेल ने कहा, ‘इसी तरह, क्षेत्र में कोई कारखाना नहीं है, पानी का बड़ा संकट है और घर भी कंक्रीट के नहीं हैं।’ वहीं रामपुर बाघेलान के मतदाता राजू कुशवाह ने कहा, ‘हमने यहां कोई विकास नहीं देखा है। सड़कें खराब हैं, बिजली और पानी की कोई सुनिश्चित आपूर्ति नहीं है और स्थानीय रोजगार के कोई साधन नहीं हैं।’
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