– आर.के. सिन्हा
उत्तर प्रदेश में मई महीने में पंचायत चुनाव हुए और पश्चिम बंगाल में इसी जुलाई में। दोनों ही देश के आबादी और क्षेत्रफल के लिहाज से खास राज्य हैं। पर पंचायत चुनाव के दौरान जहां यूपी में पूर्ण शांति रही, वहीं पश्चिम बंगाल ने हिंसा, आगजनी और निर्मम हत्याएं होती देखीं। राजनीतिक एकाधिकार के लिए पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा की संस्कृति अन्य भारतीय राज्यों की तुलना में कहीं अधिक विद्रूप रूप धारण कर गई है। देखा जा रहा है कि राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं के बीच हिंसक झड़पों की संस्कृति, खासतौर से ग्रामीण क्षेत्रों में हाल के कुछ वर्षों में यहां कुछ ज्यादा ही फली-फूली है।
पश्चिम बंगाल में हाल ही में हुए पंचायत चुनाव के दौरान खूब खूनखराबा हुआ जिसमें तीन दर्जन से अधिक राजनीतिक हत्याएं हुई हैं। यह इस बात की पुष्टि करता है कि दीदी यानी ममता बनर्जी की सरकार सत्ता की हनक को बरकरार रखने के लिए किसी भी हद तक जा सकती हैं। लेकिन, ममता बनर्जी भूल जाती हैं कि कोई भी सरकार कल्याणकारी राज्य के तौर पर काम करती है और कानून का राज उसकी एक अहम शर्त होती है। आज भले ही पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) पंचायत चुनाव में जीत का जश्न मना रही है, लेकिन इस जश्न में उन परिवारों की चीत्कार का कोई मायने नहीं है जिनके परिजन चुनावी हिंसा के शिकार हो गए।
निश्चित रूप से खून से सने पोलिंग बूथ, टूटी मतपेटियां और बुलेट-बम की खौफनाक तस्वीरें भी जीत के जश्न में कहीं खो जाएंगी, क्योंकि; यह सब बंगाल की नियति से जुड़ गई हैं। शायद इसीलिए आम लोगों के बीच उत्तर प्रदेश में शांतिपूर्ण चुनाव की चर्चा जोर पकड़ने लगी है। यूपी में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सरपरस्ती में हुए पंचायत चुनाव शांतिपूर्ण तरीके संपन्न हुए थे। इसलिए कहने वाले कह रहे हैं कि ममता बनर्जी को यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से चुनाव प्रबंधन सीखना चाहिए।
पुराना इतिहास चुनावी हिंसा काः दरअसल पश्चिम बंगाल में चुनावी हिंसा का इतिहास बहुत पुराना है लेकिन, अगर हम आजादी के बाद की बात करें तो 1960 के दशक के अंत में पश्चिम बंगाल की राजनीति में वाम मोर्चा एक ताकतवर दल के रूप में उभरा, जिसके कारण राजनीतिक हिंसा की संस्कृति स्थापित हुई। वाम मोर्चे ने जैसे-जैसे कांग्रेस के प्रभुत्व को चुनौती देना शुरू किया, दोनों दलों के कार्यकर्ताओं के बीच हिंसक झड़पें रोजमर्रा की घटनाएं बन गईं। 17 मार्च 1970 को पूर्व बर्धमान जिले में हुए सैनबाड़ी नरसंहार, जहां कांग्रेस कार्यकर्ताओं की हत्या की गई और 27 फरवरी 1971 को कोलकाता में ऑल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक के अध्यक्ष हेमंत बसु की हत्या से जुड़ी यादें आज भी ताजा हैं।
इन घटनाओं ने राजनीतिक सत्ता को बरकरार रखने के लिए ‘बंदूक संस्कृति’ की नींव रखी। 1998 में ममता बनर्जी की ओर से टीएमसी के गठन के बाद वर्चस्व की लड़ाई ने हिंसा का नया दौर शुरू किया। उसी साल हुए पंचायत चुनावों के दौरान कई इलाकों में भारी हिंसा हुई। केंद्रीय गृह मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, 2018 के पंचायत चुनाव के दौरान 23 राजनीतिक हत्याएं हुई थी। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की एक रिपोर्ट में इस बात का उल्लेख भी है कि साल 2010 से 2019 के बीच पश्चिम बंगाल में 161 राजनीतिक हत्याएं हुई और पश्चिम बंगाल इस मामले में पूरे देश में पहले स्थान पर रहा। इससे पहले 2003 के पंचायत चुनाव की बात करें तो तब करीब 80 मौतें हुईं थीं। 2008 में 45 मौतें। ताजा चुनाव में 36 लोगों की मौत की खबर है। हालांकि यह आधिकारिक आंकड़ा नहीं है। सरकार हमेशा मौतों की संख्या कम करके बताती रहती है। वास्तविकता में कहीं ज्यादा मौतें होती हैं।
यूपी क्यों बन गया है नजीरः निश्चित रूप से जब एक तरफ जहां ममता बनर्जी के शासनकाल में उनका राज्य में अराजकता बढ़ रही है और चुनावी हिंसा में कई दर्जन लोगों ही हत्या हो जाती है तो ऐसे में योगी आदित्यनाथ का यूपी देश के लिए नजीर तो बन ही गया है। देश का सबसे बड़ा राज्य होने के बावजूद यहां 2019 के लोकसभा चुनाव से लेकर हाल में संपन्न हुए नगर निकाय चुनाव तक में एक भी सीट पर हिंसा नहीं हुई, लोगों के मारे जाने की खबर तो बहुत दूर की बात है। शांतिपूर्ण चुनाव और बड़े आयोजनों से योगी के चुनाव प्रबंधन की गूंज देश के हर कोने तक पहुंची है।
पंचायत चुनाव के दौरान तीन दर्जन से अधिक राजनीतिक हत्याएं हो चुकी हैं लेकिन ममता बनर्जी की सरकार कुंभकर्णी नींद में सोई हुई है। तृणमूल कांग्रेस के समर्थकों पर मतपेटी लेकर भागने व जलाने का भी आरोप है। बैलेट पेपर पानी में तैरते मिले तो पुलिस की गाड़ी में आग लगा दी गई। हिंसा प्रदेश बने बंगाल में खुलेआम गोलीबारी और बमबारी से पूरा देश शर्मसार है। इसके उलट उत्तर प्रदेश देश का सबसे बड़ा राज्य है। यहां लोकसभा की 80, विधानसभा की 403 सीटें हैं। पिछले मई महीने में संपन्न हुए उत्तर प्रदेश नगर निकाय चुनाव में मेयर की 17, निगम पार्षद की 1420, नगर पालिका परिषद अध्यक्ष की 199, सदस्य की 5327, नगर पंचायत अध्यक्ष की 544 और सदस्य की 7177 सीटों पर चुनाव हुए, लेकिन एक भी सीट पर हिंसा की मामूली घटना भी सुनने को नहीं मिली। हर सीट पर शांतिपूर्ण चुनाव हुए क्योंकि यूपी के पास योगी जैसा मुख्यमंत्री है जो जीरो टॉलरेंस की नीति पर काम करते हैं।
याद करें तो 2017 के पहले यूपी का हाल भी बहुत अच्छा नहीं था, लेकिन सत्ता संभालने के बाद सीएम योगी ने पुलिसकर्मी को खुली छूट दे दी कि कहीं भी कानून से खिलवाड़ हो तो आप किसी आदेश का इंतजार न करें, सीधे कानून बिगाड़ने वालों से सख्ती से निपटें। पुलिस को योगी की मिली यह छूट काफी कारगर रही और यूपी शांतप्रिय प्रदेश हो गया। यहां कानून का राज स्थापित हो गया। नतीजा इस रूप में भी सामने आने लगा कि यूपी से नजरें फेरने वाले उद्योगपति भी यहां उद्योग लगाने को बेताब हो गए। कानून का राज स्थापित होने का ही नतीजा है कि यूपी को हाल के दौर में 36 लाख करोड़ के निवेश हासिल हुए।
जाहिर सी बात है इससे रोजगार के लाखों अवसर सृजित होंगे और करोड़ों युवाओं के हाथों को काम मिलेगा। बहरहाल, योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में उत्तर प्रदेश की चुनावी संस्कृति जहां शांति व सौहार्द के रंगों से रंगी है वहीं ममता बनर्जी की लचर कार्यप्रणाली की वजह से बंगाल के चुनावों में खूनी खेल आम बात हो गई है। 25 करोड़ उत्तर प्रदेशवासी जहां चुनाव को लोकतंत्र का उत्सव के तौर पर मनाती है वहीं लगभग 10 करोड़ आबादी वाले पश्चिम बंगाल में हिंसा का तांडव मचा हुआ है। ऐसे में लहूलुहान बंगाल के लिए योगी का शांतिप्रिय यूपी नजीर है। कहने में कोई गुरेज नहीं कि ममता बनर्जी को वायलेंस पसंद है तो योगी को साइलेंस। दीदी को राजनीतिक सत्ता पसंद है तो योगी को कानून का राज। ममता बनर्जी को गुरुदेव रविन्द्र नाथ टेगौर और नेता सुभाष चंद्र बोस के राज्य को पटरी पर तो लाना होगा।
(लेखक, वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)
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