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जब भयानक आर्थिक संकट से गुजरे थे मोहम्मद अली जिन्ना, अंग्रेज मित्र की मदद से बने थे बैरिस्टर

December 25, 2022

नई दिल्‍ली । मोहम्मद अली जिन्ना (Mohammad Ali Jinnah) पाकिस्तान (Pakistan) के पहले गवर्नर जनरल (Governor General) थे। उन्हें पाकिस्तान का राष्ट्रपिता और कायदे-आजम भी कहा जाता है। उन्होंने ही मुस्लिम लीग (muslim league) का गठन किया था। वह ब्रिटिशकालीन भारत में एक बड़े नेता थे। जिन्ना कराची के एक संपन्न व्यापारी जिन्नाभाई पुंजा की सात संतानों में सबसे बड़े बेटे थे। जब जिन्ना 16 साल के हुए तो उनके पिता ने उन्हें व्यापार करने के लिए लंदन भेज दिया था लेकिन उन्होंने व्यापार छोड़कर वहां कानून की पढ़ाई शुरू कर दी थी।

सरोजिनी नायडू ने अपनी किताब “Mohomed Ali Jinnah – An Ambassador of Unity” में लिखा है कि उका जन्म 25 दिसंबर, 1876 को हुआ था। हालांकि, उनका यह आधिकारिक जन्मदिन नहीं है, लेकिन इसी को बाद में आधिकारिक जन्मतिथि मान लिया गया। इसी दिन को पाकिस्तान में राष्ट्रीय अवकाश घोषित किया गया है।


सरोजिनी नायडू ने लिखा है कि 1896 में जब मोहम्मद अली जिन्ना भारत लौटे तो उनका अमीर परिवार गरीब हो चुका था और उन्हें भयानक आर्थिक संकट का सामना करना पड़ रहा था। लिहाजा, जिन्ना को भी तंगी से जुड़ी भारी मुश्किलें झेलनी पड़ी थी लेकिन वो जल्द ही कराची छोड़कर मुंबई चले गए, जहां एक ब्रिटिश मित्र ने उनकी बड़ी मदद की।

नायडू ने लिखा है कि मोहम्मद अली जिन्ना साहसी युवा थे और उनकी महत्वाकांक्षाएं बड़ी थीं। तीन साल तक गुमनामी और आर्थिक झंझावत झेलने के बाद उन्हें आखिरकार सफलता मिल ही गई, जब वे बॉम्बे में बैरिस्टर बन गए। इसमें एक अंग्रेज मित्र ने उनकी बड़ी मदद की थी। बतौर नायडू, तब बॉम्बे के एक्टिंग एडवोकेट जनरल मिस्टर मैकफर्सन ने उन्हें अपना चैम्बर दे दिया था, ताकि जिन्ना पढ़ाई कर सकें। यह किसी भारतीय को दी जाने वाली किसी ब्रिटिश अधिकारी की इस तरह की पहली मदद थी।

इस अवसर ने जिन्ना को एक बड़ा वकील बनने में बड़ी मदद की। 1906 के कलकत्ता कांग्रेस अधिवेशन से उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की थी। जिन्ना दादाभाई नौरोजी और गोपालकृष्ण गोखले के बहुत चहेते और करीबी थे। जिन्ना हिन्दू-मुस्लिम एकता के हिमायती थे और कहा करते थे कि अगर दोनों समुदाय मिल जाए तो ब्रिटिश भारत छोड़ने को मजबूर हो जाएंगे। वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और गांधीजी के समर्थक थे लेकिन उन्होंने गांधीजी के असहयोग आंदोलन का तीव्र विरोध किया था।

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