नई दिल्ली। असम की प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता (Famous social worker of Assam) और पद्मश्री पुरस्कार विजेता बिरुबाला राभा (Padmashree awardee Birubala Rabha) का कैंसर से निधन (died of cancer) हो गया है। वे गुवाहाटी के एक सरकारी अस्पताल (Guwahati Government Hospital) में भर्ती थीं। 70 साल की राभा का जन्म 1954 में असम के गोलपारा जिले में हुआ था। वे जीवनभर अंधविश्वास और जादू-टोने के खिलाफ लड़ती रहीं। हजारों महिलाओं को मार्गदर्शन जीवनभर किया। राभा ने डायन बिसाही जैसी सामाजिक बुराई के खिलाफ कभी हार नहीं मानी। मेघालय सीमा के पास पड़ते गांव ठाकुरविला की बेटी के निधन पर असम के सीएम हिमंत बिस्वा सरमा ने शोक व्यक्त किया है। उन्होंने एक्स पर लिखा है कि राभा के निधन का उन्हें गहरा दुख है। अपने जीवनकाल में कई महिलाओं को आशा और आत्मविश्वास के सहारे रास्ता दिखाया। उनका चुनौती भरा जीवन रहा, जिसमें हर बाधा को पार किया। असम हमेशा समाज की सेवा में उनके नेतृत्व के लिए आभारी रहेगा। ओम शांति।
वहीं, केंद्रीय मंत्री सर्बानंद सोनोवाल ने भी उनके निधन पर दुख जताया। उन्होंने कहा कि पद्मश्री विजेता बिरुबाला राभा बाइदेव ने समाज में व्याप्त अंधविश्वासों और पूर्वाग्रहों के खिलाफ लड़ाई लड़ी। अटूट दृढ़ संकल्प और साहस के माध्यम से महिलाओं को ताकत का अहसास करवाया। उनके काम से प्रेरित होकर हम चुनौतियों के बावजूद लगातार समुदाय की सेवा करने के लिए प्रेरित रहेंगे। निधन की खबर से मेरा दिल गहरे दुख से भर गया है। उनके जाने से असम के सामाजिक ताने-बाने में एक अपूर्णीय खालीपन आ गया है। उनकी आत्मा को शांति मिले और मैं उनके शोक संतप्त परिवार के प्रति अपनी हार्दिक संवेदना व्यक्त करता हूं।
2015 में असम विधानसभा ने सर्वसम्मति से असम विच हंटिंग (निषेध, रोकथाम और संरक्षण) अधिनियम 2015 पारित किया था। 2021 में सामाजिक कार्यों में उनके महत्वपूर्ण योगदान को भारत सरकार ने मान्यता दी। जिसके बाद उनको पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया। बताया जाता है कि 1985 में गांव के एक झोलाछाप डॉक्टर ने उनके बेटे का इलाज ठीक नहीं किया। जिसके बाद उन्होंने समाज सुधार का बीड़ा उठाया। उन्होंने मिशन बिरुबाला नामक संस्था बनाई और चुडै़ल, भूत, प्रेत डायन कहकर स्त्रियों को मारने-पीटने और प्रताड़ित करने के विरुद्ध जागरूकता का संकल्प लिया था। जिसके चलते उनको भारत का चौथा सबसे प्रतिष्ठित नागरिक सम्मान मिला।
आदिवासी महिला बिरुबाला जब 6 साल की थीं, तभी उनके पिता का निधन हो गया थी। आर्थिक तंगी के कारण पढ़ाई छूट गई। वे घर चलाने के लिए अपनी मां के साथ खेतों में काम करने लगीं। बिरुबाला महज 15 साल की थीं, तो एक किसान से उनकी शादी कर दी गई। 1980 में उनके बेटे को जब टाइफाइड हुआ, तो वे इलाज के लिए नीम हकीम के पास लेकर गई थीं। हकीम ने कहा था कि उनका बच्चा बच नहीं सकता। लेकिन बच्चे की जान बच गई। इसके बाद बिरुबाला ने अंधविश्वास फैलाने वाले ऐसे लोगों के खिलाफ अभियान छेड़ दिया।
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